Tuesday, January 10, 2023

असम डायरी : कार्बियों के एक गांव से AS011

कार्बी जनजाति की महिलाएं

काजीरंगा से
लौटते वक्त हमने एक तय किया कि एक चक्कर चिरांग नेचर ट्रेल का भी चक्कर लगाएंगे। हम काजीरंगा के कोहोरा वाले प्रवेश द्वार पर रुके थे, जहां से चिरांग वाला रास्ता तकरीबन 25-30 किलोमीटर था। हालांकि अधिकतर लोग काजीरंगा के बागोरी गेट के आसपास ही रुकते हैं, फिर भी चाहे कोहोरा गेट हो, बागोरी गेट हो या फिर बूरापहार सफारी, काजीरंगा जाने वाले अधिकतर लोग यहां नहीं जाते हैं। इसकी दो-तीन वजहें हैं। पहली यह कि अधिकतर लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं है। इंटरनेट पर भी इसके बारे में कुछेक लोगों ने ही लिखा है, वह भी अंग्रेजी में। दूसरे, इसका जो रास्ता है, उसकी शुरुआत में बहुत छोटा सा बोर्ड लगा है, जो एनएच 74 पर स्पीड को बीस-तीस की लिमिट में रखने की दर्जनों चेतावनियों के बावजूद सरपट गुजरती गाड़ियों से किसी को ठीक से दिख ही नहीं सकता। एक वजह यह भी है कि काजीरंगा घुमाने वाले यहां जितने भी गाइड्स हैं, उनका मरकज जंगल का वही चार पांच किलोमीटर का घेरा ही रहता है, जिसकी खातिर वह लोगों से अच्छे खासे पैसे लेते हैं। 

जाखलोबंधा में एक कार्बी घर और बच्चे

चिरांग नेचर ट्रेल असल में कार्बियों के तीन चार गावों का रास्ता है, जिसे किसी शौकीन ने कभी मशहूर किया और फिर काजीरंगा जाने वाले कुछ लोग जाने लगे। काजीरंगा की शुरुआत बूरापहार से होती है, हिंदी में इसका मतलब है बूढ़ा पहाड़। यह कोई पहाड़ नहीं है, बल्कि छोटे-छोटे टीले हैं, जहां टाटा के लिए अब चाय उगाई जाती है। यहां हर ओर आपको चाय बागान दिखेंगे। इन दिनों दिसंबर-जनवरी में चाय कम तोड़ी जाती है और चाय के पेड़ों की छंटाई कर दी जाती है ताकि नई पत्ती उगे। चाय के पेड़ से हमेशा नई पत्ती ही तोड़ते हैं। ऐसी नई पत्ती, जिसका रंग धानी हो। हरी पत्तियां नहीं तोड़ी जातीं हैं। यहां पर सिलिमकोवा, कनिया एंग्जाई, इंजाई, बूरा सिंग चेहोन, लॉन्ग टोक्बी, लॉन्ग थिंग पांग्चो जैसे और भी कई गांव हैं। मगर हर गांव का नाम सिर्फ असमिया में ही लिखा है। वह तो शुक्र है कि मेरे साथ के सब लोग असमिया ही थे, वरना इन गावों के नाम पढ़ पाना मेरे बस से बाहर की बात थी। जैसा कि पहले बताया, यह सारे के सारे प्योर कार्बियों के गांव हैं। कार्बी जनजाति असम की पहली मूल जनजाति है और कभी इस पूरे इलाके में इन्हीं का राज था। मगर इस कभी को गुजरे कम से कम छह सात सौ साल हो चुके हैं। अब तो कार्बी जनजाति यहां के हरवाहे हैं, क्योंकि ज्यादा बड़े कामों पर अधिकतर दूसरी जातियों का कब्जा है। वहीं कार्बी शहरों में छोटे मोटे कामों में ही लग पाए हैं। मेरी ससुराल की एक रिश्तेदारी यहां से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर जाखलोबंधा में है और उनके घर में एक कार्बी परिवार पारंपरिक असमिया घर बनाकर सालों से रह रहा है। उनके घर में रहने की कीमत यही है कि घर और खेतों के सारे काम संभालना। इससे एक बात तो साफ है कि यह जनजाति उसी काम में अव्वल है, जिससे कि दुनिया में नई सभ्यता की शुरुआत हुई, जिसे खेती-किसानी कहते हैं। 

कार्बियों के चाय बागान

इन गावों में जो चाय बागान हैं, पहले तो मुझे लगा कि यह भी सारे टाटा के ही हैं। अब जब टाटा ने सारा बूरापहार ही खरीद रखा है तो मेरा यह मानना लाजिमी था, मगर मैं गलत था। यह सारे के सारे बागान इन गावों में रहने वाले कार्बियों के हैं। आमतौर पर इंटरनेट पर मेघालय या मिजोरम की साफ-सफाई और सलीके की तस्वीरें वायरल होती हैं, मगर एक बार जो इन गावों में घूम लेगा, हम सबकी तरह वह भी इसी सुखद आश्चर्य से भर उठेगा कि यहां की साफ-सफाई और यहां के सलीकेदार लोग आज तक लोगों की नजरों से दूर कैसे। गांव की हर एक सड़क सलीके से बुहारी हुई, कहीं भी कूड़े का ढेर नहीं, ढेर तो छोड़िए- जिस तरह से अपने यहां जगह जगह पन्नियां उड़ा करती हैं, यहां कागज का एक कतरा या चाय की एक पत्ती भी सड़क के किनारे देखने को नहीं मिलती। जब हम पहुंचे तो कार्बियों का लंच आवर था। दूध, मछली, पोर्क, चावल और बांस से बनी तरह-तरह की खाने की चीजें इनका आहार है। गांव में स्कूल है, चर्च है और एक शायद नामघर भी दिखा था। नामघर असम के हर कोने में मिलते हैं और काजीरंगा से पहले पड़ने वाला नगांव जिला तो समझ लीजिए कि नामघर की राजधानी ही है। हिंदू संस्कृति की संस्कृत से भरपूर बेहद कठिन पूजा पद्धति को संकरदेव ने यहां आकर आसान किया था और लोगों को कोई मूर्ति पूजने की जगह नाम भजना सिखाया था। शायद इन्हें ही नामधारी समुदाय कहते हैं और इन नामधारियों की संख्या पूरे राज्य में सबसे ज्यादा है। इससे कोई मतलब नहीं कि कोई बोडो है, कार्बी है या फिर अहोम है, संकरदेव की लाई और फैलाई धार्मिक संस्कृति ने पूरे असम के लोगों को एक धागे में पिरो रखा है।

कार्बी लड़कियां

घर बिलकुल असमिया स्टाइल के हैं, यानी चार कोनों में चार बांस लगाया। दीवार के लिए बांस की ही जाली बनाई और उसे मिट्टी से थोप दिया। छत यहां खपरैल या सरपत की नहीं बनती, टिन ही लगाया जाता है। घर के आगे नारियल, तांबूल के पेड़, घर के पीछे भी यही पेड़। जो साधारण पेड़ गांव में हैं, उन पर पान और कालीमिर्च की बेल चढ़ा रखी है। सारे के सारे घरों में दरवाजा एक बरामदे में खुलता है, जहां चार बजे के बाद चाहे जो भी जाति या जनजाति हो, चाय पीती और पड़ोसियों से चुहल करती नजर आती है। मगर अभी तो काम का वक्त था, सो कई औरतें और कुछेक मर्द हमें खेतों में नजर आए। चाय के खेत थे तो पौधों की कटाई-छंटाई में लगे थे, कुछ और खेत थे तो उनमें । इन सारे गावों का चक्कर लगाते हुए जब हम अंत तक पहुंचे तो देखा कि दो लड़कियां हाथ में शायद कॉपी लेकर आ रही थीं। इनमें से एक मिनी स्कर्ट में थी। मैंने अपने साले, जो कि खुद भी असमिया हैं, उनसे पूछा कि यहां के गांवों में क्या लड़कियां स्कर्ट, खासकर शॉर्ट स्कर्ट पहन सकती हैं? उसका कहना था कि यह बेहद खुला समाज है और यहां पहनने-ओढ़ने और प्रेम करने पर कहीं भी रोक नहीं है। मैंने मन में सोचा, काश हमारे यूपी के गांव भी इन कार्बियों से कुछ सीख लेते।

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