Thursday, March 4, 2021

दिख ही गई सीजेआई बोबडे की स्त्री विरोधी मानसिकता

 सोमवार एक मार्च को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसए बोबडे ने एक रेप पीड़िता के लिए ऐसा फैसला दे दिया, कि लोगों को पूछना पड़ रहा है कि आखिर अदालत में ये सब हो क्या रहा है। हर तरफ सीजेआई बोबडे के इस फैसले की मुखालफत जारी है। महिलाओ ने खास तौर पर इस पर नाराजगी जताते हुए इसे स्त्री विरोधी बताया है। इस फैसले में जो कहा गया है उससे सवाल उठता है कि कोर्ट के फैसले भी बोलीवुड की तरह अब फिल्मी ही होंगे क्या ? या फिर जस्टिस बोबडे ये देश की सुप्रीम कोर्ट के बजाय कहीं किसी खाप पंचायत में तो नहीं जाकर बैठ गए? दरअसल मामला कुछ यूं है कि  सुप्रीम कोर्ट में रेप के आरोपी  की याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई बोबडे ने उससे पूछा कि क्या वह पीड़ित महिला से शादी करेगा? उन्होंने कहा कि अगर वह पीड़िता से शादी करने को तैयार है तो उसे राहत दी जा सकती है। रेप का ये आरोपी सरकारी कर्मचारी है उसने गिरफ्तारी से राहत के लिए


सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उसके वकील का कहना था कि गिरफ्तारी होने पर उसे नौकरी से सस्पेंड कर दिया जाएगा। उसकी ये दलीलें सुनने के बाद सीजेआई बोबडे ने कहा, "अगर आप शादी करना चाहते हैं तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। अगर नहीं तो आपको अपनी नौकरी गंवानी पड़ेगी और जेल जाना पड़ेगा। आपने लड़की से छेड़खानी की, उसका रेप किया।" क्योंकि मोहित नाम का यह आरोपी व्यक्ति पहले से शादी –शुदा है इसलिए उसके वकील ने बताया कि शादी भी नहीं हो सकती है। सवाल यह है कि क्या इस तरह के फैसले से उस पीडिता को न्याय मिल सकता है जिसके साथ इतना वीभत्स कृत्य किया गया हो। क्या सजा से बचने के लिए आरोपी शादी का प्रस्ताव दे तो उस पर रहम करना चाहिए ? एक सवाल यह भी है कि सीजेआई बोबडे का काम पीड़ित को न्याय देना है या फिर वे वहां बलात्कारियों की शादी कराने के लिए बैठाए गए हैं? और इससे भी बड़ा सवाल महिलाओं की तरफ से यह है कि ऐसी महिला विरोधी मानसिकता के साथ किसी भी शख्स को क्या सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने का हक है? क्यों नहीं सीजेआई बोबडे को महिलाओं का सम्मान करते हुए स्वेच्छा से अपनी गलती मानते हुए कुर्सी छोड़ देनी चाहिए? फिल्म अभिनेत्री तापसी पन्नू ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी ने लड़की से यह सवाल पूछा कि क्या वह दुष्कर्म करने वाले शख्स से शादी करना चाहती है या नहीं? क्या यह सवाल है? यही हल है या सजा? एकदम घटिया। वहीं माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने भारत के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे को पत्र लिख कर उनसे वह टिप्पणी वापस लेने का आग्रह किया है, जिसमें उन्होंने बलात्कार के मामले की सुनवाई के दौरान आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीड़िता के साथ विवाह करने के लिये तैयार है।

वैसे अदालत में यह कोई पहली बार नहीं है कि उसका महिला विरोधी चेहरा दिखा है। असल में हमारी अदालतें अपनी जड़ से ही महिला विरोधी हैं। पिछले साल यानी दस जुलाई 2020 में एक बहुत ही विचित्र घटना हुई जो बताती है कि हमारा अदालती सिस्टम किस कदर स्त्री विरोधी हो चुका है। ये घटना  बिहार के अररिया जिले की है। जहां सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती को ही जेल भेज दिया गया। उस पर न्यायिक कार्य में कथित तौर पर बाधा डालने का आरोप लगाया गया। हुआ ये कि इस केस में युवती के किसी परिचित ने ही अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसका रेप किया था और शिकायत करने पर उसे ही जेल जाना पड़ गया था। जब घटना सामने आई तो हंगामा मच गया। इस घटना पर देश के जाने माने वकीलों और सामाजिक संस्थाओं ने पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश से दखल देने की अपील करते हुए एक पत्र लिखा . 15 जुलाई 2020 को लिखे पत्र में साफ़ कहा गया कि ऐसा मामला पहली दफा सुनने में आया है कि मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज कराने आई बलात्कार पीड़ित युवती व उसके दो सहयोगियों को उसकी मनोदशा को संवेदनशीलता के साथ देखे बिना अदालत की अवमानना के आरोप में माननीय मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक हिरासत में लेने का निर्देश जारी किया गया। तीनों को न्यायिक हिरासत में लेकर वहां से 240 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया। लगभग 376 वकीलों द्वारा लिखे पत्र का नतीजा था कि  इन पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने इन पत्रों को जनहित याचिका (पीआइएल) में बदल दिया। इस तरह के मामलों की जैसे पूरे देश में ही झड़ी लगी हो।  एक मामला 2018 का है जब सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के एक आरोपी की सजा में बदलाव करने या संशोधन करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी निहित शक्तियों का उपयोग किया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना था ताकि पीड़िता या शिकायकर्ता को कोई और कष्ट न झेलना पड़े क्योंकि घटना के तुरंत बाद आरोपी से उससे शादी कर लिया था।


अब यहां सवाल ये है कि शादी करने या करवाने से अपराध कम हो जाता है क्या ? क्या यह संभव नहीं है कि कई बार शातिर अपराधी सजा से बचने के लिए भी शादी का फैसला कर सकता है। और कोई पीडिता समाज की उपेक्षा से बचने के लिए राजी भी हो सकती है लेकिन इसका परिणाम अंतत उस पीड़ित स्त्री को ही भुगतना पड़ता है जैसा की दिल्ली में हुए 2017 में एक केस में हुआ था। मामला कुछ ऐसा था कि इसमें एक रेप पीडिता और रेप आरोपी की शादी की गई थी। कुछ ही दिनों बाद आरोपी उस लड़की से छुटकारा पाने की सोचने लगा। उसने अपनी ही पत्नी के अश्लील वीडिओ बनाकर उन्हें वायरल करने की धमकी दी। तंग आकर लड़की ने रिपोर्ट की तब जाकर पुलिस को पता चला यह हरकत उसका पति कर रहा था। वो उसे तमाम धमकियां भी देता था जिससे लड़की खुद भाग जाये। शायद इस तरह करायी गई शादी का यही हश्र होता है। एक निहायत बचकाना फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने कुछ ही अरसा पहले 19 जनवरी को २०२१ दिया था इसमें एक मामले में जस्टिस पुष्पा वी। गनेदीवाला की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि टॉप को हटाए बिना किसी नाबालिग लड़की का ब्रेस्ट छूना यौन हमले की श्रेणी में नहीं आएगा, लेकिन इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत किसी महिला का शीलभंग करने का अपराध माना जाएगा। हैरत की बात यह है कि ऐसा फैसला एक महिला जज की पीठ से आया था। जिसमे पाक्सो एक्ट के तहत यौन हमले की व्याख्या कुछ इस तरह की गई। कहा गया कि यौन इरादे और स्किन-टू-स्किन कांटैक्ट के बिना किसी बच्चे के ब्रेस्ट को जबरन छूना यौन अपराधों से बच्चों को बचाने के लिए बने विशेष कानून प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस (पोक्सो) एक्ट के तहत यौन हमला नहीं है।

इस फैसले से महिला संगठनो सहित तमाम लोगो ने नाराजगी जताई। गुजरात की एक महिला देवश्री त्रिवेदी ने इस फैसले से नाराज होकर तमाम जगह कंडोम के पैकेट ही भेज दिए और जज पुष्पा गनेदीवाला को निलंबित करने की मांग की। एक और मामला बेहद भयावह है जिसमे ये सुनकर ही गुस्सा आ जाये कि आखिर कोई न्यायधीश ऐसी सलाह कैसे दे सकता है। मामला दिल्ली की अदालत का है जहां भूरा नाम के आदमी पर रेप का केस था। युवक ने  अस्पताल में काम करने वाली एक नर्स के साथ बलात्कार किया था और फिर उसकी एक आंख निकाल ली थी। मुक़दमे में जब दोषी ने पीड़ित महिला के संग शादी का सुझाव दिया था तो न्याधीश ने पीड़ित महिला को सुझाव पर गौर करने को कहा था। न्यायाधीश की सलाह के बावजूद नर्स ने भूरा के साथ शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसके बाद अदालत ने भूरा को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। इतने हिंसक व्यव्हार के बाद किसे कोई स्त्री ऐसे इन्सान से शादी करने का सोच सकती है इसे एक पुरुष न्यायाधीश ही सोच सकता है। जाहिर है आरोपी तो शादी का प्रस्ताव अपने बचाव में दे रहा। शारीरिक और मानसिक चोट देने वाले से शादी का फैसला करना आसन नहीं है। जिसने किया भी कोर्ट की सलाह के बाद मज़बूरी में ही किया होगा। जबलपुर की एक अदालत भी ऐसे ही एक फैसले में आरोपी  कमलनाथ पटेल और पीड़ित लड़की की शादी अदालत परिसर में बने मंदिर में ही करा चुकी है।

इसी तरह का एक और केस पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का है। इस केस में एक नाबालिग का गैंगरेप चार लोगों ने किया। इनमें से एक आरोपी ने 1 दिसंबर 2019 को ज़मानत के लिए याचिका लगाई कहा कि उसने जेल में विक्टिम के साथ शादी कर ली है। कोर्ट ने उसे ज़मानत दे दी। पर बाकी तीन आरोपियों की याचिका खारिज़ कर दी। कोर्ट ने जमानत इस चेतावनी के साथ दी कि अगर आरोपी ने लड़की को तलाक देने की भी कोशिश करता है तो भी उसकी ज़मानत रद्द हो जाएगी। और अगर आरोपी आने वाले समय में शादी तोड़ेगा तो भी उसके खिलाफ उचित आपराधिक कार्यवाही भी की जाएगी।  जहां शादी वाली सलाह से काम नहीं चला वहां भाई बनाने की सलाह भी दी गई। रक्षाबंधन सलाह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की है। एक महिला का रेप करने पर आरोपी को जमानत दी गई और उसे कहा गया कि  शिकायतकर्ता के घर जाए उसकी रक्षा का वचन देकर उससे  "राखी बांधने" का अनुरोध करे। सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता अपर्णा भट और आठ अन्य महिला वकीलों ने इस जमानत आदेश में चुनौती दी। इस तरह की सलाह बेहद ही हास्यास्पद है। पीड़िता की तकलीफ़ को बढ़ाने वाली है। कोर्ट ने महज शादी करने ,भाई बनाने की की सलाह दी हो यहीं तक सीमित नहीं है उसने एक मामले में सास की भूमिका भी निभा डाली। 19 जून 2020 का एक फैसला गुआहाटी का है जिसमें  हाईकोर्ट ने ‘सिंदूर’ लगाने और ‘चूड़ी’ पहनने से इनकार करने पर एक व्यक्ति को अपनी पत्नी से तलाक लेने की अनुमति दे दी। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘चूड़ी पहनने और सिंदूर लगाने से इनकार करना यह दर्शाएगा कि वह अपने पति साथ इस शादी को स्वीकार नहीं करती है।  समझ से परे है कि फैसले में ऐसी बातें किसी स्मृति या शास्त्र के हिसाब से कही गईं हैं या फिर संविधान के हिसाब से।


दिल्ली में ही एक केस में रेप के एक आरोपी को हाईकोर्ट से एक टैटू की वजह से ज़मानत मिल गई। आरोपी के वकील ने कहा कि शिकायत करने वाली महिला शादीशुदा है और आरोपी के साथ सहमति से रिलेशन में थी। अपनी इस दलील के पीछे वकील ने सबूत के तौर पर महिला के हाथ पर बने एक टैटू का ज़िक्र किया जिसमें आरोपी व्यक्ति का नाम लिखा है। आरोपी के वकील ने कहा कि महिला भी आरोपी से प्यार करती थी, जिसका सबूत ये टैटू है। इस पर शिकायतकर्ता महिला ने कहा कि ये टैटू उसके हाथ पर जबरन बनवाया गया है। लेकिन कोर्ट ने महिला की इस बात को ना मानते हुए कहा कि “सामने वाले की रज़ामंदी के बगैर टैटू बनाना कोई आसान काम नहीं है। हमारी राय में टैटू बनाना एक कला है और उसे बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की मशीन की ज़रूरत होती है। शिकायतकर्ता के हाथ पर जहां ये टैटू बनाया गया है, वहां बनाना आसान नहीं। वो भी तब, जब उसने इस बात का विरोध किया हो। इस तरह के ना जाने कितने फैसले हैं जो बहुत सारे सवाल खड़े करते हैं। इनमे एक अहम् सवाल है कि क्या इस तरह के फैसलों का एक बड़ा कारण न्यायपालिका में पुरुष वर्चस्व है। पूरे भारत में उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 1,113 न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या में से केवल 80 महिला न्यायाधीश हैं।  इन 80 महिला जजों में से, सुप्रीम कोर्ट में केवल दो हैं, और अन्य 78 विभिन्न उच्च न्यायालयों में हैं, जो कुल न्यायाधीशों की संख्या का केवल 7।2 प्रतिशत है। इस सख्या को और बढ़ाने की जरुरत है। माना कि कुछ केसेज गलत हो सकते हैं लेकिन कुछ की वजह से तमाम पीड़ित महिलाओं की हक़तलफी ना हो जाये। कोर्ट कम से कम पीड़िता लिए इतना संवेदनशील हो कि सलाह उसके लिए सजा न बन जाये।

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