मोदी राज में कैग की ऑडिटिंग का बुरा हाल
क्या आप जानते हैं कि 2018 में कैग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि 2013-14 से 2015-16 के बीच एफसीआई ने हरियाणा के कैथल में अडानी ग्रुप के गोदाम में इसकी औकात के मुताबिक गेहूं नहीं रखा और खाली जगह का किराया भरती रही? इसके चलते 6।49 करोड़ रुपये फालतू में खर्च हो गए। मोदी सरकार के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय, जिसके अंडर में एफसीआई आता है, उसने कैग को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि इस पैराग्राफ को रिपोर्ट से हटाया जाना चाहिए। इस पैराग्राफ बोले तो जो मोदी जी ने अडानी जी को खाली डब्बों के पैसे दे दिए, उस पैराग्राफ को। मगर कैग ने कहा है कि ये पैराग्राफ हटाया नहीं जा सकता है और उनका आकलन सही है। पूरा खुलासा वेबसाइट ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में किया है। ये जो साढ़े छह करोड़ मोदी जी ने अडानी जी को फ्री फंड में दे दिए, इसके बारे में कैग ने एफसीआई को फटकार लगाते हुए लिखा था कि इस फालतू के खर्च के चलते टैक्सपेयर्स का साढ़े छह करोड़ बेवजह खर्च किया गया है। मंत्रालय अब कैग के पीछे पड़ा है कि इसे हटा दे, मगर कैग हटाने का नाम नहीं ले रहा है। हो सकता है कि इस बात से एकबारगी किसी को फख्र महसूस होने लगे कि कोई तो है, जो सही से हिसाब किताब पर ध्यान दे रहा है। मगर आगे जो हम बताएंगे, वो ऐसे किसी भी फख्र को मिनटों में छूमंतर करने वाला है। एक आरटीआई से भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट्स को लेकर चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को आरटीआई के तहत जो जानकारी मिली है, वह चीख चीखकर बता रही है कि साल 2015 से 2020 के बीच कैग की की रिपोर्ट में 75 फीसदी की गिरावट आई है। साल 2015 में कैग ने 55 रिपोर्ट्स पेश की थी, लेकिन 2020 तक इसकी संख्या घटकर महज 14 रह गई है।
कैग रिपोर्ट में 75 प्रतिशत की गिरावट मामूली बात नहीं है। इसका एक मतलब यह भी है कि मोदी जी जो कर रहे हैं, कैग उसका चौथाई या आधा नहीं, सीधे सीधे पौना काम चेक ही नहीं कर रहा है। ऐसे में बिना कैग रिपोर्ट के यह पता ही नहीं चल सकता कि मोदी जी किस मद में कहाँ क्या खर्च कर रहे हैं और उससे बड़ी बात यह कि कहां बेवजह खर्च कर रहे हैं। दरअसल कैग की रिपोर्ट्स के जरिये ही सरकार की वित्तीय जवाबदेही तय होती है और अगर सरकार द्वारा कोई अनियमितता की जा रही है तो उसका भी खुलासा होता है। अब जैसे इसी सूचना में पता चला कि आज तक मोदी जी ने नोटबंदी की ऑडिटिंग ही नहीं होने दी है। वो नोटबंदी की ऑडिटिंग क्यों नहीं होने देना चाहते, इसका अंदाजा आपको इसी से लग सकता है कि कैग रिपोर्ट कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सिंह की सरकार को इन्ही रिपोर्ट्स की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। क्योंकि यूपीए के कार्यकाल के दौरान हुए ये घोटाले चुनाव का मेन मुद्दा बन गए थे। 2 जी आवंटन, कोयला आवंटन, आदर्श हाउसिंग सोसायटी और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटाला ये सब नाम तो सबको याद ही होंगे। ये सब के सब कैग रिपोर्ट से ही उजागर हुए थे। यूपीए सरकार के कार्यकल के दौरान हुए इन तमाम घोटालों को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट्स ने उजागर किया था। इसके चलते तत्कालीन यूपीए सरकार की छवि की धज्जियाँ उड़ गई थी। और इसका फायदा भाजपा ने खूब उठाया था। यहाँ तक की साल 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा बना और मोदी सरकार सत्ता में आ गई। लेकिन जब से बीजेपी, खासकर हम दो हमारे दो की सरकार सत्ता में आई है, कैग को उसने करीने से ठिकाने लगा दिया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल आंदोलन की बेंच पर बेताल की तरह सवार होकर मोदी सरकार आई थी। लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद व्यवस्था में पारदर्शिता की बात भुला ही दी गई।
और तो और जो इसके पहले यूपीए सरकार के दौरान पारदर्शिता थी वो भी सिरे से गायब है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘एनडीए सरकार के शुरुआती वर्षों के दौरान संसद में कैग की रिपोर्ट की संख्या 10 वर्षों में सबसे अधिक थी। लेकिन उसके बाद संख्या में लगातार गिरावट आई है।’ एक बार कैग के काम की भी थोड़ी जानकारी ले ली जाये और उसका महत्त्व समझ लिया जाये। भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक भारत के संविधान के तहत एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। इस संस्था के जरिए संसद और राज्य विधानसभाओं के लिये सरकार और अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों (सार्वजनिक धन खर्च करने वाले) की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है और यह जानकारी जनसाधारण को दी जाती है। लेकिन फिलहाल ये जानकारी किसी को नहीं मिल रही है। सबको मालूम ही है कि रफायल विमान सौदा कितना बड़ा मामला रहा है लेकिन हैरत की बात यह है कि सरकार इस मामले में ज्यादा जवाबदेही से बचती रही है और यह बात आरटीआई के जवाब से भी सामने आई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि रक्षा ऑडिट रिपोर्ट के संख्या में काफी गिरावट आई है। साल 2017 में इस तरह की आठ ऑडिट रिपोर्ट संसद में पेश की गई थी, लेकिन पिछले साल यह संख्या शून्य रही। रेलवे ऑडिट रिपोर्ट्स के मामले में भी यही हाल है। 2017 में 5 रिपोर्ट आई थी लेकिन पिछले साल 1 ही आई। नोटबंदी जैसा बड़ा कदम मोदी सरकार ने उठाया था। बहुत लोग इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला तक कह रहे थे। इसके बारे में तो जरूर रिपोर्ट आणि चाहिए थी। इससे सरकार का पक्ष और मकसद साफ़ होता लेकिन हैरत ये कि नोटबंदी जैसे विवादित मामलों की भी कैग ने ऑडिटिंग नहीं की, जो बेहद अजीब बात है। जबकि नोटबंदी सरकार का एक फ़िज़ूल कदम साबित हुआ। तो यह बाते पता लगनी चाहिए 1,000 रुपये के नोट को बैन करने से क्या प्रभाव पड़ा? नोटबंदी की किसी बात का कुछ पता नहीं चला।
जबकि इस मामले में संस्था की जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी। इस सुस्ती का जवाबदेह कौन है कोई खबर नहीं है। कैग के इस लचर प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए पूर्व आईएएस अधिकारी जवाहर सरकार ने कहा कि कैग अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है, जो फंड के खर्च की ऑडिटिंग करना है। आरटीआई की इस रिपोर्ट पर लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि कैग को यह पता लगाना होता है कि क्या पैसा सही तरीके से और नियम-कानूनों के मुताबिक खर्च किया गया है। कैग को सरकार के इन सभी लेनदेन की जांच करनी होती है। इसका मतलब है कि कैग ने ऑडिट के लिए कम मामलों को उठाया या फिर उन्हें खर्च में कुछ भी गलत नहीं लगा।’ मामला केंद्र तक सीमित नहीं है केंद्र के साथ ही बीते कुछ सालों में विधानसभाओं में ऑडिट रिपोर्ट्स पेश करने में भी ख़ासी देर हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि रिपोर्ट पेश होने में हुई देर से उसका प्रभाव कम हो जाता है, साथ ही सरकार में ग़ैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा भी मिलता है। वित्तीय वर्ष 2017-18 से संबंधित कम से कम नौ राज्यों के लिए कैग की ऑडिट रिपोर्ट अभी भी विधायकों और नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं है, जबकि वित्तीय वर्ष को खत्म हुए 30 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है। ये राज्य आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल हैं। इस तरह की देरी के चलते रिपोर्ट पेश होने के बाद वाले कामों जैसे लोक लेखा समिति यानी पीएसी और सार्वजनिक उपक्रम समिति यानी सीओपीयू की निगरानी प्रक्रियाओं पर गहरा प्रभावित पड़ता है। क्योंकि जब रिपोर्ट ही पेश नहीं होगी तो आगे कोई एक्शन कैसे लिया जायेगा। इस वजह से संबंधित मामले पर विभागों द्वारा एक्शन टेकन रिपोर्ट यानी एटीआर जमा करने में भी देरी होती है। यह ऑडिट रिपोर्ट के असर को प्रभावित करता है। अब यह सवाल उठता है कि ऑडिट रिपोर्ट को पेश करने में हुई देरी के लिए कौन जिम्मेदार है?
क्या चुनी हुई सरकारों को दोषी ठहराया जाना चाहिए? या फिर कुछ हद तक या कुछ मामलो में कमियां राष्ट्रीय लेखा परीक्षक संस्थान में भी है? जो भी हो यह जिम्मेदारी तो सरकार की है ही की वह विभिन्न मामलों में जो भी विवाद है उसमे अपनी स्थिति साफ़ करे। और यह सफाई ओडिट रिपोर्ट के जरिये ही पेश की जा सकती है। तमाम वित्तीय अनियमितताओं को लेकर सरकार पहले ही तमाम सवालों के घेरे में खड़ी है सबसे बड़ा मामला नोटबंदी और रक्षा सौदे हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि सरकार की खुद ही कोई दिलचस्पी इन रिपोर्ट्स में नहीं बची है। इसलिए कोई न कोई वजह खोजकर जानबूझकर देरी की जा रही है।
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