Friday, December 20, 2019

एनआरसी करने के लिए सीएए लाए हैं: कन्नन गोपीनाथन

अनुच्छेद 370 हटाए जाने को लेकर आईएएस ऑफिसर कन्नन गोपीनाथन ने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद से वे देश भर में घूम-घूमकर अभिव्यक्ति की आजादी पर अपनी बात कहते रहे। इसी बीच नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आ गया। केंद्र के कई नेताओं ने इसे एनआरसी के साथ जोड़कर लागू करने की बात कही। अब कन्नन देश भर में घूम-घूमकर सीएए और एनआरसी पर जागरूकता सभाएं कर रहे हैं। मैंने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:

अपने बारे में बताइए।
मैं 12वीं तक केरल में पढ़ा। कोट्टयम का रहने वाला हूं। इसके बाद मैंने रांची के बिरला इंस्टीट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की। इसके बाद मैं नोएडा आ गया और नौकरी करने लगा। नोएडा में रहने के दौरान मैं सेक्टर 16 की झुग्गी में बच्चों को पढ़ाता था। कुछ दिन बाद में नोएडा के ही अट्टा मार्केट में भी बच्चों को पढ़ाने लगा। वहां का हाल देखकर समझ में आया कि सिस्टम के अंदर रहकर काम करना होगा- तब कुछ सही होगा, इसलिए मैंने आईएएस का एग्जाम पास किया। 2012 बैच में आईएएस बना, फिर मिजोरम में डीएम रहा, दादरा-नगर हवेली में भी कलेक्टर के साथ-साथ वहां के कई विभागों में कमिश्नर रहा। वहां डिस्कॉम कॉरपोरेशन था जो लगातार लॉस में जा रहा था, उसे एक-डेढ़ साल में प्रॉफिट में ले आया। जम्मू-कश्मीर से जब अनुच्छेद 370 हटाया गया तो वहां पर प्रशासन ने लोगों की आवाज दबाई। अब भी दबा ही रही है। समस्या 370 हटाने या लगाने से नहीं, बल्कि आवाज दबाने से उपजी। फिर मुझे लगा कि ये सही बात नहीं है और कम से कम मैं लोगों की आवाज दबाने के लिए तो आईएएस में नहीं आया। इसलिए मैंने रिजाइन कर दिया। हालांकि सरकार ने अभी तक मेरा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया है।

इस्तीफा देने के बाद आप क्या कर रहे हैं?
रिजाइन करने के बाद मैंने ठीक से तय नहीं किया था कि किस ओर जाना था। इसी बीच कुछ जगहों पर टॉक के लिए बुलाया। इसी सिलसिले में एक बार चेन्नई गया। वहां एक टॉक में मैं 'बोलने की आजादी' विषय पर बोल रहा था कि बीच में एक लड़की ने मुझे टोक दिया। नॉर्थ ईस्ट की उस 23 साल की लड़की का कहना था कि बोलने की आजादी उसकी समझ से बाहर है क्योंकि अभी तो उसे यही डर है कि वो इस देश में रह पाएगी या नहीं। उसका दादा आईएमए में था और वो कोई सन 1951 का डॉक्यूमेंट खोज रही थी जो उसे मिल नहीं रहा था। उस शो में खड़ी होकर वह रो रही थी और मैं निरुत्तर था। मैंने खुद से यही पूछा तो पता चला कि पेपर्स तो मेरे पास भी पूरे नहीं। बीस साल से ज्यादा पुराने कागज तो मेरे पास भी नहीं है। फिर मैं मुंबई आया और दोस्तों से इस पर चर्चा की, मामले को ठीक से समझा। तब से मैं लोगों को बता रहा हूं कि कैब और एनआरसी किस तरह से हम सभी लोगों के लिए नुकसानदेह हैं।

अब तक आप कहां कहां जा चुके हैं और आगे का क्या प्रोग्राम है?
आगे का तो मैंने नहीं सोचा, लेकिन बिहार के कई जिलों में जा चुका हूं। सीएए और एनआरसी का खौफ देखना हो तो बिहार का दौरा करिए। वहां इस वक्त आधार कार्ड सेंटरों में वही नोटबंदी वाली भीड़ दिख रही है। रात के दो-दो बजे तक आधार कार्ड सेंटरों में लाइन लगी है। लोग अपना आधार कार्ड दुरुस्त करा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भी कई जिलों में मैं लोगों को इसके नुकसान बता चुका हूं। महाराष्ट्र और साउथ में तो लगातार बोल ही रहा हूं। इसके बारे में अभी बहुत जागरुकता फैलानी होगी।

लोगों की क्या प्रतिक्रिया है?
लोग बहुत डरे हुए हैं। सबसे ज्यादा तो गरीब मुसलमान और दलित-आदिवासी डरे हुए हैं। वजह यह कि भारत में किसी के भी कागजात या तो पूरे नहीं हैं और अगर पूरे हैं भी तो उनमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ी छूटी हुई है। यही वजह है कि बिहार में आधी-आधी रात तक लाइनें लगी हैं। लोगों को लगता है कि आधार करेक्शन से काम हो जाएगा। इससे पता चलता है कि लोगों में कितना ज्यादा डर का माहौल है। वॉट्सएप के मुस्लिम ग्रुप में इस वक्त सिर्फ एक ही चर्चा ट्रेंड में है- डॉक्यमेंट्स कैसे पूरे करें? उनको पता है कि कागजात नहीं होंगे तो ये सीधे डिटेंशन सेंटर भेजेंगे। सबने देखा कि पिछले दिनों कैसे केंद्र सरकार ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को डिटेंशन सेंटर बनाने का लेटर भेजा है।

सीएए और एनआरसी को अलग-अलग देखें या एक साथ?
सीएए इसलिए आया क्योंकि एनआरसी करना चाहते हैं। वरना सीएए नहीं आता। असम में एनआरसी हुआ तो सबसे ज्यादा हिंदू ही डिटेंशन सेंटर पहुंच गए। कागज तो हिंदुओं के पास भी नहीं हैं। ये चीज राजनीतिक रूप से इनके खिलाफ जाती है। हालांकि सरकार उनको वापस लेने के लिए वहां नोटिफिकेशन जारी कर रही थी, लेकिन अब वह इसके लिए कैब ले आई है। एनआरसी और सीएए- दोनों आपस में जुड़े हुए हैं, सीएए का अकेले कोई खास मतलब नहीं है।

किसे किसे यह प्रभावित कर रहा है और कैसे?
अगर आपके पास करेक्ट डॉक्यूमेंट्स नहीं है तो यह आपको भी प्रभावित करेगा। मुझे लगता है कि सरकार नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के जरिए इसकी शुरुआत करेगी। सरकारी आदमी घर आएगा और हमारे कागजात चेक करेगा। वहां पर अगर कोई कमी हुई तो असम की ही तरह हमारे नाम के आगे संदिग्ध का निशान लग जाएगा और फिर हमें यह साबित करना होगा कि हम यहां के नागरिक हैं या नहीं हैं। पहले यह सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह साबित करे, लेकिन अब यह उल्टा हो गया है। अब हम सबको साबित करना होगा कि हम भारत के नागरिक हैं या नहीं। कागजात तो बहुत कम लोगों के पूरे हैं, ऐसे में सीन साफ है। जो सबसे गरीब हैं, वो इसे भुगतेंगे। जो बाहर काम कर रहे हैं, यानी जितने कामगार हैं, उन्हें इससे दिक्कत होगी। हर साल देश का बड़ा हिस्सा बाढ़ और सूखे से प्रभावित होता है, वहां विस्थापन नियमित चलता है, वो भुगतेंगे। आदिवासियों के पास तो कोई कागज ही नहीं होता।

डॉक्यूमेंट्स बनवाने में भ्रष्टाचार सबसे आम शिकायत है। क्या इससे भ्रष्टाचार भी बढ़ सकता है?
बिलकुल। अब जिसका शासन-सत्ता में कनेक्शन नहीं है, जिनका भ्रष्टाचार से कनेक्शन नहीं है, वो इससे बहुत प्रभावित हो रहे हैं। दिल्ली में ऐसे हजारों लोग आपको मिल जाएंगे जो सड़क पर रहते हैं, वो कहां जाएंगे। फिर जनता को तो कैसे भी सर्वाइव करना है, वह कैसे भी करके कोशिश करेगी।

आईएएस लॉबी में इसे लेकर क्या कुछ प्रतिक्रिया है?
मुझे आईएएस लॉबी इसे लेकर क्या कर रही है, ये नहीं पता। हम सब इंडीविजुअल्स हैं। ऐसे तो कई सारे हैं जिन्हें लगता है कि इस मुद्दे को अभी छोड़ देना चाहिए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके लिए कोई लॉबी है। अधिकतर तो यही सोचते हैं कि मनपसंद पोस्ट मिल जाए या मनपसंद जगह ट्रांसफर हो जाए। मुझे तो लगता है कि जिस संविधान पर हाथ रखकर इन्होंने शपथ ली है, आधे भी उसका अर्थ ठीक से नहीं जानते होंगे।

अब तो बिल पास हो गया तो अब क्या करें?
बिल तो शुरुआत है। जब संसद फेल होती है तो जनता शुरू होती है। हमें संविधान ने यह अधिकार दिया है कि हम शांतिपूर्वक सभा कर सकते हैं और प्रदर्शन कर सकते हैं। हम यह अधिकार भूल चुके हैं। इसे हमें इस्तेमाल करना होगा, अब नहीं करेंगे तो कब करेंगे? सरकार हमारी नागरिकता पर सवाल उठा रही है तो हम सरकार ने अब नहीं पूछेंगे तो कब पूछेंगे? नोटबंदी में हमारा पैसा तीन महीने बाद वापस किया, ऐसे ही हमारी नागरिकता ले ली जा रही है जो कब वापस होगी, नहीं पता। 

Saturday, September 28, 2019

मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम

व्हाटसएप्प पर एक बुजुर्ग इस लिखाई को सुनाते दिखे। पता किया तो सन 2017 में इनकी पहली रिकॉर्डिंग मिली, लेकिन नाम नहीं मिला। कुछ और पता किया तो पता चला कि शायद राहत इंदौरी साहब ने इसे लिखा हो सकता है, लेकिन कहीं भी इसकी स्क्रिप्ट नहीं मिली, इसलिए यह भी कन्फर्म नहीं कि इसे राहत इंदौरी ने ही लिखा है। बहरहाल, जिसने भी लिखा है, कमाल का लिखा है, कहीं गलती हो तो पहले से ही माफी दरकार है। आप भी मुलायजा फरमाएं, जब तक मोदी जी हैं, तब तक मौजूं है- 

हुकूमत के दिल से वफादार हैं हम,
इशारों पे चलने को तैयार हैं,
मुसीबत में फिर भी गिरफ्तार हैं हम,
मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम।

सजा मिल रही है अदावत से पहले,
समझते हैं बागी बगावत से पहले,
मुसलमां चीन और जापान में हैं,
यही कौम रूस और यूनान में है,
यही लोग यूरोप और सूडान में हैं,
जहां भी हैं ये अमन ओ अमान में हैं,
हर एक मुल्क में तो वफादार हैं हम,
मगर हिंद में सिर्फ गद्दार हैं हम।

हमें रोज धमकी भी दी जा रही है,
घरों में तलाशी भी ली जा रही है,
बिला वजह सख्ती भी की जा रही है,
अदालत यहां से उठी जा रही है।

जो मासूम थे वो तो मुजरिम बने हैं,
जो बदफितना थे आज हाकिम बने हैं,
कौन सिर में हमें ये रहने न देंगे,
हमें दर्द अपना ये कहने न देंगे,
गम ओ रंज सहिये तो सहने न देंगे,
सितम है कि आंसू भी बहने न देंगे।

जुंबा बंदियां हैं नजरबंदियां हैं,
हमारे लिए ही सारी पाबंदियां हैं,
अब उर्दू जुबां भी मिटानी पड़ेगी,
कि बच्चों को हिंदी पढ़ानी पड़ेगी,
यहां सबको चंदी रखानी पड़ेगी,
रहोगे तो शुद्धि करानी पड़ेगी।

वफादार होने का मेयार ये है,
यकीं फिर भी आ जाए दुश्वार ये है,
तकाजा है अपनी जमाअत को छोड़ो,
मुसलमानों की तुम कयादत को छोड़ो,
नहीं तो चले जाओ भारत को छोड़ो,
यही नजरिया है यही जेहनियत है,
इसी का यहां नाम जम्हूरियत है।

गिराते हो तुम मस्जिदों को गिराओ,
मिटाते हो तुम मकबरों को मिटाओ,
बहाते हो अगर खूं ये नाहक बहाओ,
मगर ये समझकर जरा जुल्म ढहाओ,
जालिम का लबरेज जब जाम होगा,
तो हिटलर और टीटो सा अंजाम होगा।

हमें मुल्क से है भगाने की ख्वाहिश,
हमें दहर से है मिटाने की ख्वाहिश,
तो सुन लें जिन्हें है मिटाने की ख्वाहिश,
तो हमको भी है सर कटाने की ख्वाहिश।

कटेगा सर तो ये मजमून होगा,
हिमालय से शिलांग तक खून होगा,
बिहार और यूपी में हम कुछ न बोले,
हुआ जुल्म देहली में हम कुछ न बोले,
किया कत्ल गाड़ी में हम कुछ न बोले,
घरों में घुसाए तो हम कुछ न बोले।

जालिम अगर यूं ही होते रहेंगे,
तो क्या अहले ईमां सोते रहेंगे?
अलग होके बरतानिया देखता है,
हरएक कौम का पेशवा देखता है,
जमाना हरेक माजरा देखता है,
कोई देखे न देखे खुदा देखता है,
करेगा जो जुल्म यूं आजाद होकर,
खुद ही मिट जाएगा वो बरबाद होकर।

Saturday, September 21, 2019

अमीनाबाद का ऐतिहासिक इंडियन बुक डिपो

हिमांशु वाजपेयी। माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पासआउट। जबान ऐसी कि पुरानी दिल्ली की भारी भरकम तमीजदार उर्दू बोलने वाली खवातीनें भी मुंह में तीन बीड़े पान दबा लें, एक दाहिने, एक बाएं तो एक बीच में- ताकि न अलिफ से लेकर जेड तक कुछ भी न निकल पाए। होता तो अलिफ से काफ तक है लेकिन यहां पर जेड पाकिस्तान वाले मरहूम उस्ताद मोइन अख्तर साहब की जबान से लिया गया है जिसे शब्द दिए थे मशहूर सहाफी अनवर मकसूद साहब ने। इनकी मिठास भरी जबान का मुलायजा फरमाएं...

लखनऊ शहर के सबसे सबसे ख़ास मक़ामात में से एक ये है। हज़ारों किताबों से रौशन एक सादा दयार । 1933 में शुरू हुआ अमीनाबाद का इंडियन बुक डिपो। पढ़ने लिखने में दिलचस्पी रखने वाले बेश्तर लोगों ने यहां की ज़ियारत ज़रूर की होगी। जिन्होंने नहीं की उन्हें ज़रूर करनी चाहिए। बग़ैर इसके उनकी तालीम-ओ-तरबियत अधूरी ही रहेगी। यहां आकर लगता है कि ये जगह आसमान की गर्दिश से आज़ाद है। वक़्त इस पर सितम नहीं ढाता। लगातार नए होते इस शहर में अभी कुछ जगहों पर पुरानेपन का हुस्न महफूज़ है। इन्डियन बुक डिपो उन्ही में से एक है। इसीलिए जब मुझसे कोई पूछता है कि लखनऊ में देखने लायक़ जगहें कौन सी हैं ? तो मैं इमामबाड़े, रेजीडेंसी, चौक, हजरतगंज के साथ इंडियन बुक डिपो का नाम भी ज़रूर लेता हूं।
लखनऊ में हिंदी किताबों के मामले में ये जगह अपना सानी नहीं रखती। यूनिवर्सल कपूरथला भी मेरी पसंदीदा जगह है, मगर इंडियन बुक डिपो अब शहर की धरोहर और शान बन चुका है। मैं हमेशा कहता हूं कि इसी शहर के राम आडवाणी साहब और उनकी किताबों की दुकान पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने ख़ूब ख़ूब लिखा है। आडवाणी साहब का ख़ुलूस, प्रतिष्ठा और लियाक़त का अपनी जगह पूरा एहतराम है, मगर उन पर मीडिया के मेहरबां होने की दो बड़ी वजह और रहीं। पहली- उनकी दुकान हजरतगंज में थी, अमीनाबाद चौक या नक्खास में नहीं। दूसरी- उनकी दुकान अंग्रेज़ी किताबों की दुकान थी। अगर सच्चाई और इंसाफ के साथ बात लिखी जाए तो शहर की एक भी किताब की दुकान इंडियन बुक डिपो के आस-पास नहीं होगी। मगर मुझे इस अद्भुत जगह पर लोग उस तरह नहीं लिखते।
1933 में भाषा एवम साहित्य के विलक्षण विद्वान ओंकार सहाय ने इसकी स्थापना की और इसे शुरू से ही एक वक़ार अता किया। हिंदी साहित्य जगत में लखनऊ को जितना अमृतलाल नागर, यशपाल और भगवती चरण वर्मा आदि से पहचाना गया उतना ही इंडियन बुक डिपो से भी। शुरू होने के दौर से बाद तक का शायद ही कोई बड़ा हिंदी लेखक हो जो लखनऊ से गुज़रा हो और यहां न आया हो। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तो इस जगह की स्थायी ज़ीनत थे। सरस्वती के यशस्वी संपादक पद्मभूषण श्रीनारायण चतुर्वेदी जी इंडियन बुक डिपो के सबसे बड़े मुरीदों में थे। नगर जी, यशपाल, भगवती बाबू, मुद्रा राक्षस, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल, जैनेन्द्र, धर्मवीर भारती, आदि तमाम नाम हैं जो यहां नियम से आते रहे।
ओंकार सहाय जी को जितना उबूर भाषा एवं साहित्य पर था, वैसा ही प्रिंटिंग, पब्लिशिंग और किताबों के बिज़नेस पर भी। उनके बाद इस दुकान को उनके सुपुत्र सुशील जी ने लंबे वक़्त तक कामयाबी के साथ संभाला। किताबों और इसके व्यवसाय से जुड़ी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियों के भंडार थे सुशील जी। लखनऊ में हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर उनकी अपनी मुस्तनद राय थी। पढ़ने लिखने में एक मेयार और तहज़ीब के क़ायल वो हमेशा रहे और उनके यहां आने वाले लोगों को भी उनके ज़रिए ये मेयार अता होता रहा।
सुशील जी के बाद अब काफ़ी सालों से ये जगह चित्रलेखा आंटी संभाल रही हैं। चित्रलेखा आंटी पर तो एक संस्मरण कभी मैं अलग से विस्तार में लिखूंगा। 70 साल की उम्र में भी इतनी ऐक्टिव, इतनी अनुशासित, इतनी मेहनती, इतनी रौबीली, इतनी गरिमामयी, इतनी सुंदर, इतनी ज़हीन, इतनी पढ़ी लिखी, इतनी आत्मीय, इतनी साफगो... उनके जैसी महिलाएं हमने ज़िन्दगी में बहुत कम देखी हैं। इतनी बड़ी जगह कई साल से चित्रलेखा आंटी अकेले दम पर पूरे जाहो जलाल के साथ संभाल रही हैं। बल्कि अब इस जगह की सारी ख़ूबसूरती, सारा नूर सारी ज़ीनत उन्ही से है।
हमारे यहां लखनऊ में अख़बार वालों को कला-संस्कृति की दुनिया मे फ़र्ज़ी हीरो गढ़ने का रोग है। दो दिन कोई शख़्स किसी 'इवेंट' में नज़र आया तो उसे संस्कृतिकर्मी और तीन इवेंट किसी ने करवा दिए तो वो लखनवी तहज़ीब का उद्धारक बना दिया जाता है। ऐसे में   असली लोगों तक पहुंच पाने की तौफ़ीक़ ही किसे है। इस पर स्टोरी कौन करेगा कि 7000 किताबों वाले इस विशाल प्रतिष्ठान को चित्रलेखा जी किस कमाल के साथ संभालती आयी हैं और संभाल रही हैं। ना जाने कितनी पीढ़ियों को उन्होंने पढ़ने लिखने का शऊर दिया है। मेरे जैसे कितने बच्चों को उन्होंने कितना ज्ञान अता किया है। दुकान में आने वाले हर इंसान से, भले भी वो एक भी किताब न ख़रीदे या 1000 किताब ख़रीद ले, चित्रलेखा आंटी बराबरी के साथ बात करती हैं। किताबों के बारे में ग्राहक से बात करना, उसके कंटेंट का विश्लेषण करना, उसकी रुचि समझना, उसे उसके मिज़ाज, ज़रूरत और बजट के हिसाब से किताब उपलब्ध करवाना ये चित्रलेखा आंटी की अपनी पहचान है।
ऐसा ही हर जगह होना चाहिये मगर ऐसा होता कहीं नहीं है। अब तो किताब की दुकानों में भी मॉल कल्चर आ गया है। किताब उठाओ, बिल कटाओ और चलते बनो। बात करने की ज़रूरत नहीं है। बात करोगे भी किससे क्योंकि किताब की दुकान का जो मालिक है या जो किताब उठाने निकालने वाला सहयोगी है या जो काउंटर पे बैठा है, वो ख़ुद ही नहीं पढ़ता। चित्रलेखा आंटी, यूनिवर्सल कपूरथला के सुरेश पाल जी और न्यू रॉयल बुक कंपनी के फुरकान बेग साहब ज़रूर अपवाद हैं। अख़बार में काला संस्कृति कवर करने वाले इसलिए भी इंडियन बुक डिपो पर नहीं लिखते क्योंकि उन्हें स्टोरी के लिए ऐसे लोग चाहिए होते हैं जो मीडिया वालों से मरऊब होते हों, उनके स्टोरी एंगिल में अपने आपको किसी भी तरह ग़लत सही बोल कर फिट कर लें और उन्हें इंस्टेंट कोट देने के लिए उप्लब्ध रहें।
चित्रलेखा आंटी में इनमें से एक भी खूबी नहीं है, उन्हें छपास और पीआर का रोग नहीं है, वो ग़लत-बयानी नहीं करेंगी आपका एंगिल गया तेल लेने, अगर आप रिसर्च करके नहीं आएंगे तो वो आपको फौरन आईना दिखा देंगी और सबसे बड़ी चीज़ कि इडियॉटिक बातों उन्हें बर्दाश्त नहीं होंगी। यही वजह है कि इडियट्स उनके पास जाते घबराते हैं। कुछ लोग को मैंने कहते सुना कि वो डांटती बहुत हैं। मैं इन लोग से कहता हूं कि उस डांट की गहराई में उतरो वहां आत्मीयता, स्नेह और अधिकार का एक अपार ख़ज़ाना छिपा है, जो सतह से नहीं दिखने वाला। घर के बुज़ुर्गों से समझो कभी इस डांट का मर्म। कितनी एनर्जी लगती है, इस तरह हर ग्राहक से विस्तार में बात करने से, जबकि तय नहीं है कि ग्राहक किताब लेगा या नहीं मगर फिर भी चित्रलेखा जी अपनी रविश नहीं छोड़तीं।
डिस्काउंट वाली बात भी बेकार की है।  रेस्टोरेंट में 500 का खाना खाओगे 700 देके आओगे डिस्काउंट नहीं मांगोगे, 150 की फ़िल्म 50 के पॉपकॉर्न के साथ 500 की हो जाती है, वहां डिस्काउंट नहीं मांगोगे मगर किताब की दुकान में डिस्काउंट मौलिक अधिकार है। जबकि अगर किसी किताब का सस्ता एडिशन अगर उपलब्ध है तो चित्रलेखा जी कभी महँगा वाला नहीं देतीं। कभी पुराने एडिशन के दाम चिप्पी लगाकर नहीं बढ़ातीं। जो किताब पूरे हिंदुस्तान में नहीं मिलेगी वो ढूंढकर ला देती हैं, जो प्रकाशन अब बंद हो चुके या बंद होने की कगार पर हैं, उनकी भी किताबें यहां मिल जाएंगी।
आप अपनी जहानत या अध्ययन से उन्हें प्रभावित कीजिये वो बड़े स्नेह से आपको एक किताब गिफ्ट कर देंगी। फिर भी डिस्काउंट तो इज़्ज़त का सवाल है ना। पोस्ट ज़ियादा लंबी हो रही है। पर मौज़ू ही ऐसा है कि तूल लाज़िम है। कहना सिर्फ ये था कि लखनऊ वालों, इंडियन बुक डिपो की ताज़ीम करो, इस धरोहर का एहतराम करो। अगली बार जब अमीनाबाद जाइए तो यहां ज़रूर जाइए, और पत्रकार भाइयों और उनकी बहनों, यहां बहुत सी स्टोरीज़ दफ़न हैं उनको निकाल लाइए।
शुक्रिया।
- हिमांशु वाजपेयी

Wednesday, May 1, 2019

खड़ाऊं चुराकर भागे थे राम, किस मुंह से लड़ेंगे मोदी से चुनाव?

प्रेम प्रकाश जी पेशे से पत्रकार हैं। गाजीपुर के हैं, लेकिन इन दिनों बनारस में हैं और रंग में हैं। बीजेपी से बनारस की सांसदी के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के मुकाबले में बीएसएफ के तेज बहादुर यादव थे। तब तक तो कुछ नहीं हुआ, जब तक कि तेज बहादुर अकेले थे, लेकिन जैसे समाजवादी पार्टी ने उन्हें अपनी ओर से उम्मीदवार बनाया, चुनाव आयोग ने उनके सामने कठिन शर्त रख दी और उनकी उम्मीदवारी कैंसिल कर दी। हालांकि इस बीच सेना सेना मोदी मोदी भजने वाले भक्तों का सेना के प्रति आलाप प्रलाप में बदल चुका था। सो प्रेम जी के दिमाग में अचानक प्रकाश हुआ और उसने हम सबको अंधेरे से उस उजाले में खड़ा कर दिया, जहां प्रभु राम हैं। फर्क यही है कि प्रभु राम आज के वक्त में हैं। प्रेम जी ने बेहद शानदार लिखा है। आगे पढ़िए उनकी लिखाई- 

मान लीजिए, अगर पता चले कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम स्वयं महीयसी सीता माता के साथ अकस्मात काशी पधारे और सीधे कलेक्ट्रेट जाकर महामना मोदी जी के खिलाफ पर्चा भर आये, तो क्या सोचते हैं, फेसबुकिया भक्तों की दीवारें कैसे फटेंगी!!

भक्त1- जय श्री राम की ऐसी तैसी, बताइये हम इनका भव्य मंदिर बनवाने में लगे हैं और इनको चुनाव लड़ने की पड़ी है। अरे देशभक्त होते तो टाट में पड़े रहते, लेकिन इनको तो अब संसद की एसी चाहिए। चुनाव लड़ने वाली कौमें क्रांति नही करती। तब क्यो नही लड़े, जब बाप ने देशनिकाला दे दिया था? कौन बाप निकालता है अपने लड़के को ऐसे भरी जवानी में? नाकारा रहे होंगे तभी तो।

भक्त2-पूरे रविवंश में ऐसा कपूत नही हुआ कोई। प्राण जाय पर वचन न जाई वाली परम्परा का तेल निकाल कर रख दिया। माँ बाप ने इनको अकेले वनवास दिया था तो बीवी को भी साथ ले गए। वनवास था कि वनविहार? याद रखियेगा, भाई को भी भाई नही, नौकर बनाकर ले गए थे।

भक्त3- अरे बीवी छोड़नी ही थी तो मोदी जी की तरह छोड़ते, बेचारे धोबी के कंधे पर रखकर बन्दूक चला दी। नाहक बदनाम किया बेचारे गरीब को। यही है, यही है सामंती मानसिकता, साफ पता चलता है कि दलित और पिछड़ा विरोधी आदमी थे। जिस बीवी को छोड़ने के लिए बेचारे धोबी को बदनाम कर दिया, उसी बीवी के लिए ब्राह्मण रावण को मारा बताइये। ये जाति द्रोही आदमी है, इनका तो पर्चा खारिज कर देना चाहिए।

भक्त4- रोज 30 बाण मारते थे। दस सिर और बीस भुजाएं काटते थे। वो सब फिर से उग आता था। देश का धन बरबाद करते रहे, वो तो मोदी जी ने कान में असली राज बताया कि इसकी नाभि में अमृत है। तब जा के 31वाँ बाण नाभि में मारा। तब जा के अमृत सूखा था, लेकिन बिकाऊ मीडिया ये सब नही बताएगा आपको।

भक्त5- मियां बीवी ने मिलकर बेचारे लक्ष्मण को तो मरवा ही डाला था। सोने के मृग वाला इतिहास वामी इतिहासकारों का लिखा इतिहास है। असली इतिहास पढ़िए तो पता चलेगा, मारीच से मिल के लक्ष्मण को मारने का पूरा प्लान था। लक्ष्मण तो समझ भी गए थे पर त्रिया चरित्र भी तो कोई चीज़ होती है।

बीजेपी आईटी सेल- बेकार का, बाप के पैसे पर राज करने का सपना देखने वाला जानकर जब बाप ने देशनिकाला दिया तो हजरत राजसिंहासन का रत्नजड़ित खड़ाऊं चुरा ले गए।भागते भूत की लँगोटी भली। वो तो भरत की पारखी नज़र ने ताड़ लिया और पूरे लाव लश्कर के साथ वो कीमती और ऐतिहासिक खड़ाऊं ले आने वन आये। आप असली इतिहास पढ़ के देखिए, भरत इनको मनाने नही आये थे। वही रत्नजड़ित खड़ाऊं लेने आये थे और पूरे समय वही मांगते रहे, अंत मे लेकर ही माने।

ये है इतिहास इन तथाकथित सूर्यवंशियों का। चुपचाप वही टाट में पड़े रहते तो भव्य क्या, मोदी जी दिव्य मंदिर बनवा देते। लेकिन ये तो देशद्रोही निकले। अब रहिये वहीं।

Tuesday, April 16, 2019

पतझड़ से पहले और बाद की एक बकवास



सबसे पहले शहतूत छोड़ता है अपनी पत्तियां 
और लगभग एक साथ ही हो जाता है नंगा 
डालें, टहनियां सब की सब नंगी 
हवा चलती है तो सर्र से गुजर जाती है 
एक भी टहनी नहीं हिलती शहतूत की 
फिर आती है बारी नीम की 
शहतूत के बाद नीम को नंगा होते देखना 
इतना आसान नहीं है 
वो एक साथ नंगा भी नहीं होता 
धीमे-धीमे मरता है नीम 
और रोज हमें पता चलता है कि 
नीम कितनी तकलीफ में है 
जैसे कि ट्रॉमा सेंटर में बेहोश पड़ा कोई मरीज 
जिसकी रुक-रुक कर सांस चलती है 
जैसे सड़क पर हुआ कोई एक्सीडेंट 
जिसमें भीड़ तो होती है, बस जान नहीं होती 
एक हिस्सा छोड़ने के बाद 
दूसरा हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं होता नीम
लेकिन मौसम उसे नंगा करके ही छोड़ता है। 
जब शहतूत पकने लगती है 
और नीम में आते हैं नए फूल 
तो चलाचली की बेला में होता है बेल 
चार छह बच गए सूखे बेल लटकाए यह पेड़ 
हर हरे के बीच ठूंठ सा खड़ा रहता है 
जैसे कोई बूढ़ा जर्जर खेलता हो बच्चों के साथ 
जैसे समुद्र मे कोई तालाब सा हो 
या फिर बहती नदी के बगल ठहरा हुआ हरा पानी
फिर एक दिन बूंदे बरसती हैं
और बढ़ता है नदी में पानी 
और ले जाता है अपने साथ 
नीम, शहतूत और बेल को भी। 

Tuesday, February 19, 2019

इंसानियत का तकाजा

शंभु रैगर याद है? वही, जिसने एक मासूम मजूदर को कुल्हाड़ी से सिर्फ इसलिए काट डाला, क्योंकि वह मुसलमान था। उस वक्त उसके जैसे कुछ एक लोगों ने दम भरने की कोशिश की, लेकिन वे चुप इसलिए हो गए, क्योंकि हममें से किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया। हम ऐसे लोगों का साथ दे भी नहीं सकते। कैसे दे सकते हैं? क्या हमारे संस्कार ऐसे हैं? क्या हमारे मां-बाप ने हमें हत्या करना या हत्यारों का साथ देना सिखाया है या फिर क्या हममें से किसी का भी धर्म ये करना सिखाता है? फिर कोई शंभु रैगर न बने, इसलिए उस वारदात के बाद बहुत सारे मां-बाप ने अपने बच्चों को लेकर अतिरिक्त सावधानी भी बरतनी शुरू कर दी। एक हत्या ने समूचा देश हिला दिया था, लेकिन हममें से किसी ने उसके परिवार के बारे में गलत नहीं सोचा।
अखलाक याद है? वही, जिसे दादरी में गोरक्षक होने का झूठा दावा करने वाले लोगों ने घर में घुसकर जान से मार डाला था। गुंसाई इंसान नहीं मारते। हम उन हत्यारों का नाम और गांव जानते हैं। हममें से किसी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा कि उनका गांव खत्म कर देंगे। सभी सुरक्षित हैं, पूरा गांव वहीं है और सभी उतने ही भारतीय हैं, जितने कि हम-आप हैं। बुलंदशहर वाले शहीद इंस्पेक्टर सुबोध कुमार याद हैं? हमें पता है कि हत्यारे कौन हैं और यह भी कि हत्याएं करते जाने की यह अक्ल कौन दे रहा है। लेकिन क्या हमने सबको खत्म करना शुरू कर दिया? नहीं। हम ऐसा कभी भी नहीं कर सकते। संविधान तो है ही, लेकिन संविधान के पहले तो हम सब इंसान हैं। हम सभी इंसानियत के रास्ते ही आगे बढ़ते आए हैं। हैवानियत तो हमारी तरक्की तोड़ देती है।
अभी पुलवामा में आतंकी हमला हुआ और हमारे बच्चे बेमौत मारे गए। हम सब बेहद दुखी हैं। हमें प्रतिकार चाहिए। कुछ भटके लोग मासूम कश्मीरी बच्चों पर हमला कर रहे हैं। चीखते हैं कि सारे कश्मीरी आतंकवादी हैं। फिर अगर कोई पूछे कि शंभू रैगर या दादरी का वह पूरा गांव आतंकवादी है? या बुलंदशहर में जिसने इंस्पेक्टर सुबोध को मारा, वह तो पूरा गांव लेकर आया था- सारे आंतकवादी हैं? नहीं। एक की वजह से गांव बदनाम तो होता है, पर खराब नहीं होता। उत्तर प्रदेश और राजस्थान की ही तरह भटके लोग कश्मीर में भी हैं। इसका मतलब यह नहीं कि सबको खत्म कर देंगे। दुख की इस बेला में वैसे तो अक्ल की बात करना बेमानी है, लेकिन इंसानियत की बात हर हाल में कही जाएगी। कश्मीरियों पर हमले बंद करिए। तुरंत। वे हमारे अपने हैं। और कोई भी कश्मीरी अगर दुख में पागल हो चुके किसी दूसरे भारतीय से डर रहा है, मेरे घर आए। मैं नोएडा में रहता हूं। 

Wednesday, January 30, 2019

खजुराहो की इस तस्वीर को कैसे देखें


(चेतावनी- अगर आप प्रेम में नहीं हैं, या फिर जीवन में आप कभी प्रेम में नहीं रहे हैं तो इस तस्वीर को न देखें। इसलिए नहीं कि तस्वीर समझ में नहीं आएगी, इसलिए क्योंकि इसके भावों में उतर पाना उसी के लिए मुमकिन है, जो ऐन उसी भाव में रहा है, जिसकी कि यह एक भंगिमा है।) 

संदर्भ : खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर के एक दर्जन से अधिक कोने है और हरएक कोने में स्त्री-पुरुष के प्रगाढ़तम प्रेम की भंगिमाएं बनी हुई हैं। यह तस्वीर प्रेम का उद्दीपक है, बोले तो प्रेम की शुरुआत। खजुराहो में कामकला की प्रत्यक्ष मूर्तियां कामसूत्र से कॉपी की गई हैं, लेकिन इन दर्जन भर कोनों में जो मूर्तियां हैं, वे कामसूत्र को बहुत ज्यादा फॉलो नहीं करतीं। कोने की अधिकतर मूर्तियों में ठीक उसी तरह का झटपट प्रेम दिखता है, जैसा कि हम सभी कोने में घुसकर करते हैं।

प्रसंग : स्त्री सजी हुई है, पुरुष भी। दोनों ने यथासंभव श्रृंगार कर रखा है और एक दूसरे को आकर्षित करने के लिए गले में रत्नजड़ित माला, हाथ में मोटे बाजूबंद पहन रखे हैं। पुरुष ने कमर में रत्नजड़ित कमरबंद बांध रखा है जो शायद हथियार बांधने के भी काम में आता होगा। पुरुष के बाल बड़े हैं जिन्हें उसने सिर के ठीक ऊपर जूड़ा बनाकर बांधा हुआ है। हो सकता है कि उसी जूड़े पर उसने एक मुकुट भी पहना हो। स्त्री ने भी लगभग उसी अंदाज में जूड़ा बांध रखा है। जिस तरह से दोनों तैयार हो रखे हैं, हो सकता है कि दोनों मैटिनी शो देखने जा रहे हों और ये भी हो सकता है कि मैटिनी शो उन्हें दिखने के लिए खुद उनके पास आ रहा हो। स्त्री के जेवर ही उसके वस्त्र हैं, तो पुरुष ने अपनी पीठ पर कपड़े का लंबा लबादा टांग रखा है, जो कुछ-कुछ रोमन साम्राज्य के राजाओं के लबादे से मिलता है। समय के साथ साथ पुरुष का पुरुषत्व टूट चुका है, लेकिन स्त्री का स्त्रीत्व अभी तक कायम है।

भावार्थ : दोनों बहुत खुश हैं। लगभग हजार साल बाद भी दोनों के चेहरे पर प्रेम की वही गर्मी अभी तक बनी हुई है, जो हजार साल पहले उठी थी। प्रेम की इसी गर्मी से स्त्री का चेहरा भर आया है और गाल थोड़े से और गोल हो गए हैं। यही गर्मी पुरुष के भी चेहरे पर है, लेकिन उसमें काम तत्व अधिक दिख रहा है, इसलिए वह प्रेम में स्त्री जितना नहीं  बह रहा, उसका चेहरा गर्म तो है, लेकिन नियंत्रित है और गंभीर भी। दाहिने हाथ की तर्जनी से वह स्त्री की ठोड़ी थोड़ा ऊपर उठा रहा है कि उसके अंदर वह थोड़ा सा और उतर सके और उसे अपने अंदर थोड़ा सा और उतार सके। देखना महज देखना नहीं होता, वह पीना भी होता है, उतरना भी होता है, उतारना भी होता है और जज्ब करना भी होता है। देखा कैसे जाता है, यह हम इस तस्वीर में देखकर आसानी से सीख सकते हैं। पुरुष स्त्री को खुद में जज्ब कर रहा है, जबकि दैहिक रूप से यह काम स्त्री का माना जाता है। लेकिन यही तो प्रेम होता है जो स्त्री पुरुष की सभी मान्य अवधारणाएं तोड़कर छिन्न भिन्न कर देता है। इस तस्वीर में पुरुष भले ही पुरुष दिख रहा है, लेकिन वह पूरी तरह से स्त्री बन चुका है और जो कुछ भी है, सब अपने अंदर भर लेना चाह रहा है। वहीं स्त्री जानती है कि वह इसी रास्ते से पुरुष के अंदर जा रही है, घर बना रही है, विजय पा रही है। विजय के इस आनंद में स्त्री की आंखें बंद हो चुकी हैं, नाक फूल चुकी है और होंठ एक प्रगाढ़ चुंबन के लिए आधे खुलकर ऊपर की ओर उठ चुके हैं। स्त्री जानती है कि चुंबन शुरुआत नहीं, बल्कि देखने का और पुरुष पर विजय पाने का अंत ही होगा क्योंकि फिर देखना खत्म होकर महसूसना शुरू हो जाएगा। लेकिन स्त्री महसूसने तक जाना चाहती है, इसीलिए वह अपनी कमर का दाहिना हिस्सा पुरुष की बाईं टांग से रगड़ रही है। स्त्री के स्तन गोल हैं, कामोत्तेजक हैं, फिर भी पुरुष उसके चेहरे में ही फंसा हुआ है तो इसका एक अर्थ ये भी हो सकता है कि तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, नजारे हम क्या देखें? ये तस्वीर हमें बताती है कि अंत पंत में हमारी पर्सनालिटी का सबसे बड़ा हिस्सा हमारे गुप्तांग नहीं होते, बल्कि हमारा चेहरा होता है, प्रेम होता है और स्त्री पुरुष के बीच हमेशा बनी रहने वाली गर्मी होती है।