अमीनाबाद का ऐतिहासिक इंडियन बुक डिपो
हिमांशु वाजपेयी। माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पासआउट। जबान ऐसी कि पुरानी दिल्ली की भारी भरकम तमीजदार उर्दू बोलने वाली खवातीनें भी मुंह में तीन बीड़े पान दबा लें, एक दाहिने, एक बाएं तो एक बीच में- ताकि न अलिफ से लेकर जेड तक कुछ भी न निकल पाए। होता तो अलिफ से काफ तक है लेकिन यहां पर जेड पाकिस्तान वाले मरहूम उस्ताद मोइन अख्तर साहब की जबान से लिया गया है जिसे शब्द दिए थे मशहूर सहाफी अनवर मकसूद साहब ने। इनकी मिठास भरी जबान का मुलायजा फरमाएं...
लखनऊ शहर के सबसे सबसे ख़ास मक़ामात में से एक ये है। हज़ारों किताबों से रौशन एक सादा दयार । 1933 में शुरू हुआ अमीनाबाद का इंडियन बुक डिपो। पढ़ने लिखने में दिलचस्पी रखने वाले बेश्तर लोगों ने यहां की ज़ियारत ज़रूर की होगी। जिन्होंने नहीं की उन्हें ज़रूर करनी चाहिए। बग़ैर इसके उनकी तालीम-ओ-तरबियत अधूरी ही रहेगी। यहां आकर लगता है कि ये जगह आसमान की गर्दिश से आज़ाद है। वक़्त इस पर सितम नहीं ढाता। लगातार नए होते इस शहर में अभी कुछ जगहों पर पुरानेपन का हुस्न महफूज़ है। इन्डियन बुक डिपो उन्ही में से एक है। इसीलिए जब मुझसे कोई पूछता है कि लखनऊ में देखने लायक़ जगहें कौन सी हैं ? तो मैं इमामबाड़े, रेजीडेंसी, चौक, हजरतगंज के साथ इंडियन बुक डिपो का नाम भी ज़रूर लेता हूं।
लखनऊ में हिंदी किताबों के मामले में ये जगह अपना सानी नहीं रखती। यूनिवर्सल कपूरथला भी मेरी पसंदीदा जगह है, मगर इंडियन बुक डिपो अब शहर की धरोहर और शान बन चुका है। मैं हमेशा कहता हूं कि इसी शहर के राम आडवाणी साहब और उनकी किताबों की दुकान पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने ख़ूब ख़ूब लिखा है। आडवाणी साहब का ख़ुलूस, प्रतिष्ठा और लियाक़त का अपनी जगह पूरा एहतराम है, मगर उन पर मीडिया के मेहरबां होने की दो बड़ी वजह और रहीं। पहली- उनकी दुकान हजरतगंज में थी, अमीनाबाद चौक या नक्खास में नहीं। दूसरी- उनकी दुकान अंग्रेज़ी किताबों की दुकान थी। अगर सच्चाई और इंसाफ के साथ बात लिखी जाए तो शहर की एक भी किताब की दुकान इंडियन बुक डिपो के आस-पास नहीं होगी। मगर मुझे इस अद्भुत जगह पर लोग उस तरह नहीं लिखते।
1933 में भाषा एवम साहित्य के विलक्षण विद्वान ओंकार सहाय ने इसकी स्थापना की और इसे शुरू से ही एक वक़ार अता किया। हिंदी साहित्य जगत में लखनऊ को जितना अमृतलाल नागर, यशपाल और भगवती चरण वर्मा आदि से पहचाना गया उतना ही इंडियन बुक डिपो से भी। शुरू होने के दौर से बाद तक का शायद ही कोई बड़ा हिंदी लेखक हो जो लखनऊ से गुज़रा हो और यहां न आया हो। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तो इस जगह की स्थायी ज़ीनत थे। सरस्वती के यशस्वी संपादक पद्मभूषण श्रीनारायण चतुर्वेदी जी इंडियन बुक डिपो के सबसे बड़े मुरीदों में थे। नगर जी, यशपाल, भगवती बाबू, मुद्रा राक्षस, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल, जैनेन्द्र, धर्मवीर भारती, आदि तमाम नाम हैं जो यहां नियम से आते रहे।
ओंकार सहाय जी को जितना उबूर भाषा एवं साहित्य पर था, वैसा ही प्रिंटिंग, पब्लिशिंग और किताबों के बिज़नेस पर भी। उनके बाद इस दुकान को उनके सुपुत्र सुशील जी ने लंबे वक़्त तक कामयाबी के साथ संभाला। किताबों और इसके व्यवसाय से जुड़ी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियों के भंडार थे सुशील जी। लखनऊ में हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर उनकी अपनी मुस्तनद राय थी। पढ़ने लिखने में एक मेयार और तहज़ीब के क़ायल वो हमेशा रहे और उनके यहां आने वाले लोगों को भी उनके ज़रिए ये मेयार अता होता रहा।
सुशील जी के बाद अब काफ़ी सालों से ये जगह चित्रलेखा आंटी संभाल रही हैं। चित्रलेखा आंटी पर तो एक संस्मरण कभी मैं अलग से विस्तार में लिखूंगा। 70 साल की उम्र में भी इतनी ऐक्टिव, इतनी अनुशासित, इतनी मेहनती, इतनी रौबीली, इतनी गरिमामयी, इतनी सुंदर, इतनी ज़हीन, इतनी पढ़ी लिखी, इतनी आत्मीय, इतनी साफगो... उनके जैसी महिलाएं हमने ज़िन्दगी में बहुत कम देखी हैं। इतनी बड़ी जगह कई साल से चित्रलेखा आंटी अकेले दम पर पूरे जाहो जलाल के साथ संभाल रही हैं। बल्कि अब इस जगह की सारी ख़ूबसूरती, सारा नूर सारी ज़ीनत उन्ही से है।
हमारे यहां लखनऊ में अख़बार वालों को कला-संस्कृति की दुनिया मे फ़र्ज़ी हीरो गढ़ने का रोग है। दो दिन कोई शख़्स किसी 'इवेंट' में नज़र आया तो उसे संस्कृतिकर्मी और तीन इवेंट किसी ने करवा दिए तो वो लखनवी तहज़ीब का उद्धारक बना दिया जाता है। ऐसे में असली लोगों तक पहुंच पाने की तौफ़ीक़ ही किसे है। इस पर स्टोरी कौन करेगा कि 7000 किताबों वाले इस विशाल प्रतिष्ठान को चित्रलेखा जी किस कमाल के साथ संभालती आयी हैं और संभाल रही हैं। ना जाने कितनी पीढ़ियों को उन्होंने पढ़ने लिखने का शऊर दिया है। मेरे जैसे कितने बच्चों को उन्होंने कितना ज्ञान अता किया है। दुकान में आने वाले हर इंसान से, भले भी वो एक भी किताब न ख़रीदे या 1000 किताब ख़रीद ले, चित्रलेखा आंटी बराबरी के साथ बात करती हैं। किताबों के बारे में ग्राहक से बात करना, उसके कंटेंट का विश्लेषण करना, उसकी रुचि समझना, उसे उसके मिज़ाज, ज़रूरत और बजट के हिसाब से किताब उपलब्ध करवाना ये चित्रलेखा आंटी की अपनी पहचान है।
ऐसा ही हर जगह होना चाहिये मगर ऐसा होता कहीं नहीं है। अब तो किताब की दुकानों में भी मॉल कल्चर आ गया है। किताब उठाओ, बिल कटाओ और चलते बनो। बात करने की ज़रूरत नहीं है। बात करोगे भी किससे क्योंकि किताब की दुकान का जो मालिक है या जो किताब उठाने निकालने वाला सहयोगी है या जो काउंटर पे बैठा है, वो ख़ुद ही नहीं पढ़ता। चित्रलेखा आंटी, यूनिवर्सल कपूरथला के सुरेश पाल जी और न्यू रॉयल बुक कंपनी के फुरकान बेग साहब ज़रूर अपवाद हैं। अख़बार में काला संस्कृति कवर करने वाले इसलिए भी इंडियन बुक डिपो पर नहीं लिखते क्योंकि उन्हें स्टोरी के लिए ऐसे लोग चाहिए होते हैं जो मीडिया वालों से मरऊब होते हों, उनके स्टोरी एंगिल में अपने आपको किसी भी तरह ग़लत सही बोल कर फिट कर लें और उन्हें इंस्टेंट कोट देने के लिए उप्लब्ध रहें।
चित्रलेखा आंटी में इनमें से एक भी खूबी नहीं है, उन्हें छपास और पीआर का रोग नहीं है, वो ग़लत-बयानी नहीं करेंगी आपका एंगिल गया तेल लेने, अगर आप रिसर्च करके नहीं आएंगे तो वो आपको फौरन आईना दिखा देंगी और सबसे बड़ी चीज़ कि इडियॉटिक बातों उन्हें बर्दाश्त नहीं होंगी। यही वजह है कि इडियट्स उनके पास जाते घबराते हैं। कुछ लोग को मैंने कहते सुना कि वो डांटती बहुत हैं। मैं इन लोग से कहता हूं कि उस डांट की गहराई में उतरो वहां आत्मीयता, स्नेह और अधिकार का एक अपार ख़ज़ाना छिपा है, जो सतह से नहीं दिखने वाला। घर के बुज़ुर्गों से समझो कभी इस डांट का मर्म। कितनी एनर्जी लगती है, इस तरह हर ग्राहक से विस्तार में बात करने से, जबकि तय नहीं है कि ग्राहक किताब लेगा या नहीं मगर फिर भी चित्रलेखा जी अपनी रविश नहीं छोड़तीं।
डिस्काउंट वाली बात भी बेकार की है। रेस्टोरेंट में 500 का खाना खाओगे 700 देके आओगे डिस्काउंट नहीं मांगोगे, 150 की फ़िल्म 50 के पॉपकॉर्न के साथ 500 की हो जाती है, वहां डिस्काउंट नहीं मांगोगे मगर किताब की दुकान में डिस्काउंट मौलिक अधिकार है। जबकि अगर किसी किताब का सस्ता एडिशन अगर उपलब्ध है तो चित्रलेखा जी कभी महँगा वाला नहीं देतीं। कभी पुराने एडिशन के दाम चिप्पी लगाकर नहीं बढ़ातीं। जो किताब पूरे हिंदुस्तान में नहीं मिलेगी वो ढूंढकर ला देती हैं, जो प्रकाशन अब बंद हो चुके या बंद होने की कगार पर हैं, उनकी भी किताबें यहां मिल जाएंगी।
आप अपनी जहानत या अध्ययन से उन्हें प्रभावित कीजिये वो बड़े स्नेह से आपको एक किताब गिफ्ट कर देंगी। फिर भी डिस्काउंट तो इज़्ज़त का सवाल है ना। पोस्ट ज़ियादा लंबी हो रही है। पर मौज़ू ही ऐसा है कि तूल लाज़िम है। कहना सिर्फ ये था कि लखनऊ वालों, इंडियन बुक डिपो की ताज़ीम करो, इस धरोहर का एहतराम करो। अगली बार जब अमीनाबाद जाइए तो यहां ज़रूर जाइए, और पत्रकार भाइयों और उनकी बहनों, यहां बहुत सी स्टोरीज़ दफ़न हैं उनको निकाल लाइए।
शुक्रिया।
- हिमांशु वाजपेयी
लखनऊ शहर के सबसे सबसे ख़ास मक़ामात में से एक ये है। हज़ारों किताबों से रौशन एक सादा दयार । 1933 में शुरू हुआ अमीनाबाद का इंडियन बुक डिपो। पढ़ने लिखने में दिलचस्पी रखने वाले बेश्तर लोगों ने यहां की ज़ियारत ज़रूर की होगी। जिन्होंने नहीं की उन्हें ज़रूर करनी चाहिए। बग़ैर इसके उनकी तालीम-ओ-तरबियत अधूरी ही रहेगी। यहां आकर लगता है कि ये जगह आसमान की गर्दिश से आज़ाद है। वक़्त इस पर सितम नहीं ढाता। लगातार नए होते इस शहर में अभी कुछ जगहों पर पुरानेपन का हुस्न महफूज़ है। इन्डियन बुक डिपो उन्ही में से एक है। इसीलिए जब मुझसे कोई पूछता है कि लखनऊ में देखने लायक़ जगहें कौन सी हैं ? तो मैं इमामबाड़े, रेजीडेंसी, चौक, हजरतगंज के साथ इंडियन बुक डिपो का नाम भी ज़रूर लेता हूं।
1933 में भाषा एवम साहित्य के विलक्षण विद्वान ओंकार सहाय ने इसकी स्थापना की और इसे शुरू से ही एक वक़ार अता किया। हिंदी साहित्य जगत में लखनऊ को जितना अमृतलाल नागर, यशपाल और भगवती चरण वर्मा आदि से पहचाना गया उतना ही इंडियन बुक डिपो से भी। शुरू होने के दौर से बाद तक का शायद ही कोई बड़ा हिंदी लेखक हो जो लखनऊ से गुज़रा हो और यहां न आया हो। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तो इस जगह की स्थायी ज़ीनत थे। सरस्वती के यशस्वी संपादक पद्मभूषण श्रीनारायण चतुर्वेदी जी इंडियन बुक डिपो के सबसे बड़े मुरीदों में थे। नगर जी, यशपाल, भगवती बाबू, मुद्रा राक्षस, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल, जैनेन्द्र, धर्मवीर भारती, आदि तमाम नाम हैं जो यहां नियम से आते रहे।
ओंकार सहाय जी को जितना उबूर भाषा एवं साहित्य पर था, वैसा ही प्रिंटिंग, पब्लिशिंग और किताबों के बिज़नेस पर भी। उनके बाद इस दुकान को उनके सुपुत्र सुशील जी ने लंबे वक़्त तक कामयाबी के साथ संभाला। किताबों और इसके व्यवसाय से जुड़ी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियों के भंडार थे सुशील जी। लखनऊ में हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर उनकी अपनी मुस्तनद राय थी। पढ़ने लिखने में एक मेयार और तहज़ीब के क़ायल वो हमेशा रहे और उनके यहां आने वाले लोगों को भी उनके ज़रिए ये मेयार अता होता रहा।
सुशील जी के बाद अब काफ़ी सालों से ये जगह चित्रलेखा आंटी संभाल रही हैं। चित्रलेखा आंटी पर तो एक संस्मरण कभी मैं अलग से विस्तार में लिखूंगा। 70 साल की उम्र में भी इतनी ऐक्टिव, इतनी अनुशासित, इतनी मेहनती, इतनी रौबीली, इतनी गरिमामयी, इतनी सुंदर, इतनी ज़हीन, इतनी पढ़ी लिखी, इतनी आत्मीय, इतनी साफगो... उनके जैसी महिलाएं हमने ज़िन्दगी में बहुत कम देखी हैं। इतनी बड़ी जगह कई साल से चित्रलेखा आंटी अकेले दम पर पूरे जाहो जलाल के साथ संभाल रही हैं। बल्कि अब इस जगह की सारी ख़ूबसूरती, सारा नूर सारी ज़ीनत उन्ही से है।
हमारे यहां लखनऊ में अख़बार वालों को कला-संस्कृति की दुनिया मे फ़र्ज़ी हीरो गढ़ने का रोग है। दो दिन कोई शख़्स किसी 'इवेंट' में नज़र आया तो उसे संस्कृतिकर्मी और तीन इवेंट किसी ने करवा दिए तो वो लखनवी तहज़ीब का उद्धारक बना दिया जाता है। ऐसे में असली लोगों तक पहुंच पाने की तौफ़ीक़ ही किसे है। इस पर स्टोरी कौन करेगा कि 7000 किताबों वाले इस विशाल प्रतिष्ठान को चित्रलेखा जी किस कमाल के साथ संभालती आयी हैं और संभाल रही हैं। ना जाने कितनी पीढ़ियों को उन्होंने पढ़ने लिखने का शऊर दिया है। मेरे जैसे कितने बच्चों को उन्होंने कितना ज्ञान अता किया है। दुकान में आने वाले हर इंसान से, भले भी वो एक भी किताब न ख़रीदे या 1000 किताब ख़रीद ले, चित्रलेखा आंटी बराबरी के साथ बात करती हैं। किताबों के बारे में ग्राहक से बात करना, उसके कंटेंट का विश्लेषण करना, उसकी रुचि समझना, उसे उसके मिज़ाज, ज़रूरत और बजट के हिसाब से किताब उपलब्ध करवाना ये चित्रलेखा आंटी की अपनी पहचान है।
ऐसा ही हर जगह होना चाहिये मगर ऐसा होता कहीं नहीं है। अब तो किताब की दुकानों में भी मॉल कल्चर आ गया है। किताब उठाओ, बिल कटाओ और चलते बनो। बात करने की ज़रूरत नहीं है। बात करोगे भी किससे क्योंकि किताब की दुकान का जो मालिक है या जो किताब उठाने निकालने वाला सहयोगी है या जो काउंटर पे बैठा है, वो ख़ुद ही नहीं पढ़ता। चित्रलेखा आंटी, यूनिवर्सल कपूरथला के सुरेश पाल जी और न्यू रॉयल बुक कंपनी के फुरकान बेग साहब ज़रूर अपवाद हैं। अख़बार में काला संस्कृति कवर करने वाले इसलिए भी इंडियन बुक डिपो पर नहीं लिखते क्योंकि उन्हें स्टोरी के लिए ऐसे लोग चाहिए होते हैं जो मीडिया वालों से मरऊब होते हों, उनके स्टोरी एंगिल में अपने आपको किसी भी तरह ग़लत सही बोल कर फिट कर लें और उन्हें इंस्टेंट कोट देने के लिए उप्लब्ध रहें।
चित्रलेखा आंटी में इनमें से एक भी खूबी नहीं है, उन्हें छपास और पीआर का रोग नहीं है, वो ग़लत-बयानी नहीं करेंगी आपका एंगिल गया तेल लेने, अगर आप रिसर्च करके नहीं आएंगे तो वो आपको फौरन आईना दिखा देंगी और सबसे बड़ी चीज़ कि इडियॉटिक बातों उन्हें बर्दाश्त नहीं होंगी। यही वजह है कि इडियट्स उनके पास जाते घबराते हैं। कुछ लोग को मैंने कहते सुना कि वो डांटती बहुत हैं। मैं इन लोग से कहता हूं कि उस डांट की गहराई में उतरो वहां आत्मीयता, स्नेह और अधिकार का एक अपार ख़ज़ाना छिपा है, जो सतह से नहीं दिखने वाला। घर के बुज़ुर्गों से समझो कभी इस डांट का मर्म। कितनी एनर्जी लगती है, इस तरह हर ग्राहक से विस्तार में बात करने से, जबकि तय नहीं है कि ग्राहक किताब लेगा या नहीं मगर फिर भी चित्रलेखा जी अपनी रविश नहीं छोड़तीं।
डिस्काउंट वाली बात भी बेकार की है। रेस्टोरेंट में 500 का खाना खाओगे 700 देके आओगे डिस्काउंट नहीं मांगोगे, 150 की फ़िल्म 50 के पॉपकॉर्न के साथ 500 की हो जाती है, वहां डिस्काउंट नहीं मांगोगे मगर किताब की दुकान में डिस्काउंट मौलिक अधिकार है। जबकि अगर किसी किताब का सस्ता एडिशन अगर उपलब्ध है तो चित्रलेखा जी कभी महँगा वाला नहीं देतीं। कभी पुराने एडिशन के दाम चिप्पी लगाकर नहीं बढ़ातीं। जो किताब पूरे हिंदुस्तान में नहीं मिलेगी वो ढूंढकर ला देती हैं, जो प्रकाशन अब बंद हो चुके या बंद होने की कगार पर हैं, उनकी भी किताबें यहां मिल जाएंगी।
आप अपनी जहानत या अध्ययन से उन्हें प्रभावित कीजिये वो बड़े स्नेह से आपको एक किताब गिफ्ट कर देंगी। फिर भी डिस्काउंट तो इज़्ज़त का सवाल है ना। पोस्ट ज़ियादा लंबी हो रही है। पर मौज़ू ही ऐसा है कि तूल लाज़िम है। कहना सिर्फ ये था कि लखनऊ वालों, इंडियन बुक डिपो की ताज़ीम करो, इस धरोहर का एहतराम करो। अगली बार जब अमीनाबाद जाइए तो यहां ज़रूर जाइए, और पत्रकार भाइयों और उनकी बहनों, यहां बहुत सी स्टोरीज़ दफ़न हैं उनको निकाल लाइए।
शुक्रिया।
- हिमांशु वाजपेयी
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