महानगर की दीवार
संदीप कुमार
हजारीबाग से बी ए करने के बाद अपने कस्बे बगोदर (झारखण्ड) से नीम हकीम पत्रकारिता शुरू कर दी। लेकिन नुस्खे झोला छाप नही थे। फिर सोचा कि कहीँ से इसकी डिग्री ले ली जाय नही तो क्या पता कब कहॉ कोई छापा मार दे और लाइसेंस कैंसिल हो जाये। सो आ गए दिल्ली। और सीधे आई आई एम् सी । उसके बाद ठिकाना बना अपना मुम्बई जहाँ स्टार न्यूज़ में कुछ दिन कलम घिसाई की। इन दिनों नोयडा के स्टार न्यूज़ के दफ्तर मे पाए जाते हैं और बकौल संदीप " उसी से खिचड़ी-चोखा का जुगाड़ हो रहा है" । बजार के लिए इन्होने अपनी एक कविता भेजी है , जो किसी भी नॉर्मल आदमी की एब्नोर्मल बनाने की प्रक्रिया को काफी आसानी से व्यक्त करती है।
गाँव से जब आया था
"सॉरी थैंक्स" के आगे
कुछ नही जानता था
मेरी एक दोस्त कहती थी
तेरे पास तमीज नही
बात करने की
सलीका नही
उठने बैठने का
असर उसकी सोहबत की
या फिर हवा इस महानगर की
मालूम नही
पर अब गाहे बगाहे
मुँह से निकलता है-
शिट या फक
मेरी दोस्त हंसती है
उसके गाल में गढ्ढे पड़ते हैं
और कहती है
गंवार ! कुछ सीख रहा है
आज आलम यह है कि
जब अकेले में भी छिंकता हूँ
तो "सॉरी" कहता हूँ
क्योंकी सुना है कि
महानगरों की दीवारो की भी
आंखें होती हैं
वो पहचान लेती हैं
कि ये गाँव का गंवार है ।
5 comments:
सही है! यह संक्रमण का समय है। गांव वाले से शहर वाले में बदलने का!
टचिंग!
बहुत दिल को छू लेने वाली रचना है ...पढ़ के यूँ ही कुछ ख़्याल आया सो लिख दिया ....
निकाला था गावं से
ढूढ़ने को एक तलाश अपनी
यहाँ की चमक में
अपने ग़ुमे नाम की
पहचान ढूँदता हूँ
कहते हैं हैं लोग मुझको
गँवार किसी गावं का
इन बड़ी शहर की गलियो
में अपने पीपल की ठंडी
छाव ढूँदता हूँ
मैं इन बड़े दिल वालो में
अपनी दोस्तो की पहचान
ढूँदता हूँ
इन बड़ी बड़ी फैली
कंक्रीट की सड़को में
धूल भरी पगडंडी के
निशान ढूँदता हूँ
इन महानगर की दीवारो में
शीट ..फक.. कहने वालो में
अपने गावं की जै जै राम
ढूँदता हूँ . ..
ranju...
ऐसा ही होता है जब आदमी शहर में खो जाता है-
जब अकेले में भी छिंकता हूँ
तो "सॉरी" कहता हूँ
कविता के साथ-साथ टिप्पणी में पड़ी रंजु की कविता का यह अंश-
इन बड़ी बड़ी फैली
कंक्रीट की सड़को में
धूल भरी पगडंडी के
निशान ढूँदता हूँ
जिगर के छल्ले ... अब आप तो शब्दों के छल्ले फेंक रहे हैं.... मजा आ गया ... लगा कि शायद आप मुंबई और दिल्ली के बीच में कम से कम f...k तो सीख ही गये हैं बाकी का तो अल्लाह मालिक है ... वाकई बहुत अच्छा लिखा है ... जारी रखें ... मुझ जैसे भाषा अज्ञानी को इन रचनाओं को पढ़कर बहुत उर्जा मिलती है ... लिखते रहें ।
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