शाहनवाज़ आलम
इलाहाबाद का बघाड़ा और यूनिवर्सिटी का अखाड़ा ,अपने शाहनवाज़ भाई ने दोनो जगह पर ठोकी ताल और कई जगह कामयाबी के झंडे भी गाड़े ,पटरी पर आई ज़िंदगी को पटरी से उतारने का जोश अक्सर मिस काल करने पर मजबूर करता है , बोलने और बोलते रहने का काफ़ी ज़्यादा शौक़ लेकिन सुखद ये है कि अच्छा ही बोलते हैं और जब बोलते हैं तो अच्छे अच्छो की धोती ढीली कर देते हैं .. बजार के लिए उन्होने पहला विषय आतंकवाद चुना ,आइए देखते हैं की इनकी बंदूको से कौन सा रंग निकल रहा है ...
न्यायालय द्वारा किसी जघन्य अपराधी को सज़ा सुनाए जाने के बाद उसकी कही गयी बातों को अमूमन नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है . आमतौर पर एसे मे अपराधी भी ख़ुद को बेक़सूर ही कहता है लेकिन 1993 के मुंब्ई बम धमाकों के एक प्रमुख आरोपी अब्दुल ग़नी तुर्क ने अपना जुर्म और सज़ा दोनो क़बूल करते हुए विशेष टाडा न्यायालय के सामने जो बाते कही उसे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता मे आस्था रखने वाला कोई भी आदमी नज़रअंदाज़ नही कर सकता . तुर्क , जिसके द्वारा रखे गाये बमों से उन धमाको मे मारे गाये कुल 273 लोगों मे से 113 लोग हताहत हुए थे , ने सज़ा सुनने के बाद कहा कि वो क़ानून व्यवस्था मे आस्था रखने वाला व्यक्ति था और गुज़र बसर के लिए टैक्सी चलाता था . लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस और उसके बाद हुए दंगो मे मारे गाये उसके समुदाय के लोगो तथा सांप्रदायिक पुलिस द्वारा क़ी गयी ज़्यादतियों के कारण वह बहुत हताश और क्रोधित था . उसने अपना जुर्म स्वीकार करते हुए कहा क़ी अगर क़ानून उसे सज़ा देता है तो श्री कृष्ण आयोग द्वारा दंगो मे दोषी पाए गाये लोगों को भी सज़ा मिलनी चाहिए . तुर्क क़ी इन बातों को नज़रअंदाज़ करना इसलिए ख़तरनाक है क्योकि ये हमारे पूरे तंत्र और उसकी खोखली धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान खड़ा करती है तो वही इसकी पृष्टभूमि मे एक बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड वाले साधारण नागरिक के एक ख़तरनाक आतंकवादी बनने क़ी पूरी प्रक्रिया को भी दर्शाति है . जिसके केंद्र मे अपने देश मे किसी इस्लामी सत्ता क़ी स्थापना या शरिया क़ानून लागू करवाने जैसी जेहादी मंशा नई बल्कि न्याय न मिल पाने के कारण उपजी मायूसी है. बहरहाल , बात करते हैं उस श्री कृष्ण आयोग की जिसे दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के मुंब्ई दंगो तथा बम विस्फोटों की जाँच के लिए नियुक्त किया गया था . जिससे इन हादसों मे मारे गये लोगों के परिजन ने न्याय मिलने की उम्मीद की थी और जिसके पूरे न होने के कारण तुर्क जैसे कई और आतंकवाद के रास्ते पर भटकने के लिए मजबूर हुए. 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंब्ई में भड़के सांप्रदायिक दंगो में, जिनमे सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 900 लोग मारे गये थे, जिनमे 575 मुस्लिम ,275 हिंदू और 45 अग्यात धर्म (ये वो लोग थे जिनकी लाशों के कमर के निचले हिस्से ग़ायब थे या सड़ चुके थे जिसके कारण हमारी धर्मनिरपेक्ष पुलिस उनके धर्मों का पता नही लगा पाई) व 5 अन्य धर्मों के लोग थे . इसकी जाँच के लिए तत्कालीन नरसिंहा राव सरकार ने 25 जनवरी 1993 को एक आयोग नियुक्त किया, जिसके कार्य क्षेत्र मे मुंब्ई बम धमाकों को भी बाद मे जोड़ दिया गया . आयोग ने 16 फ़रवरी 1998 को महाराष्ट्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी . श्री कृष्ण आयोग की ये रिपोर्ट आज तक दंगो पर नियुक्त किए गये तमाम आयोगों की अपेक्षा ज़्यादा गंभीर और तटस्थ थी , विश्लेसन मे भी और सुझावों मे भी . उसकी गंभीरता का अंदाज़ सिर्फ़ इससे लग जाता है की विभिन्न राजनैतिक व धार्मिक संगठनों की बातें तो सुनी ही गयीं , मुंब्ई के टाटा इण्स्टिट्युट ओफ़ सोशल साइंसेज़ के विशेषग्यों की एक समिति भी दंगो के पीछे के सामाजिक व आर्थिक कारणो की जाँच के लिए नियुक्त की . तो वंही पुलिस व्यवस्था का, जिसका सांप्रदायिक रुझान इन दंगो मे खुलकर दिखा पर अध्ययन करने की ज़िम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महासंचालक के.एफ़.रुसतमज़ी व महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डी.रामचनद्रन को सौंपी . ज़ाहिर था कि ऐसी गंभीर जाँच से मुख्यधारा कि तमाम पार्टियों का चरित्र खुलकर जनता के सामने आ जाता . इसलिए इस आयोग के गठन के समय से ही इसे कई तरह से बाधित करने कि कोशिश सरकारें करने लगी नरसिंहा राव कि कांग्रेस सरकार,जिस पर न्यायमूर्ति श्री कृष्ण आयोग ने रिपोर्ट मे कई जगह तल्ख़ टिप्पड़ी की है , ने 23 जनवरी 1996 को इस जाँच मे अधिक समय लग जाने का बहाना बनाकर आयोग को समेट दिया . सरकार कि ओर से यह तर्क दिया गया कि आयोग की रिपोर्ट के कारण दंगो के पुराने ज़ख़्म हरे हो जाएँगे . आम जनता मे इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया हुई . कई संगठन इस निर्णय के विरुढ़ अदालत मे भी गाये . अंत मे जन दबाव के कारण इन दंगो मे प्रमुख भूमिका निभाने वाली भाजपा की 13 दिनो वाली सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 28 मई 1996 को आयोग कि पुनर्स्थापना करनी पड़ी . लेकिन जैसे जैसे आयोग अपने निष्कर्षों कि ओर बड़ रहा था , वैसे वैसे इसे लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों मे खलबली मचने लगी . हद तो तब हो गयी , जब बिना रिपोर्ट पढ़े ही शिवसेना - भाजपा गठबंधन सरकार ने इसे हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक घोषित करते हुए मानने से इनकार कर दिया . विपक्षी कॉंग्रेस भी रस्म अदायगी मे थोड़ा ही हो हल्ला मचाकर शांत हो गयी . आख़िर क्या था इस रिपोर्ट मे कि पक्ष-विपक्ष ने अपने तमाम दलगत विभेदों को मिटाकार इस रिपोर्ट को दबा जाने कि साझा कोशिशें की और अंततः इसमे वे सफल भी हुए . 700 पृष्ठों तथा दो हिस्सों मे विभाजित श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट ने 1992-93 के दंगो के लिए मुख्य रूप से शिवसेना-भाजपा को ज़िम्मेदार माना है . रिपोर्ट के पहले खंड के पृष्ठ 21 पर ठाकरे का उल्लेख किया है कि "8 जनवरी,1993 से शिवसेना और शिव सैनिकों ने मुसलमानों के जान माल पर संगठित हमले किए . एक शक्तिशाली सेनापति की तरह इन हमलों का नेतृत्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने किया. उनके मार्गदर्शन मे शाखा प्रमुखों से लेकर शिवसेना नेताओं तक , सभी ने दंगो मे भाग लिया." इसी तरह इस दंगो के समय शासन कर रही सुधाकर राव नाइक की कॉंग्रेस सरकार की दंगो को रोकने मे अक्षमता तथा पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर नेताओं द्वारा एक दूसरे से पुराना हिसाब चुकाने की अवसरवादिता को भी रिपोर्ट ने बेनक़ाब किया है . श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट के दूसरे खंड के पेज 161 पर सुधाकर राव नाइक का बयान दर्ज है तो पेज 164 व 167 पर शरद पवार की गवाही है . ये दोनो बयान काफ़ी मुखर हैं . नाइक ने अपनी गवाही मे, शरद पवार जो उस समय केंद्र मे रक्षा मंत्री थे , पर दंगो को नियंत्रित करने मे सहयोग नही करने का आरोप लगाया है तो वंही शरद पवार ने अपने बयान मे नाइक के आरोपों का खंडन का उनके उपर ही अक्षमता का आरोप लगाया है . इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कॉंग्रेसियों ने अपनी दलगत प्रतिस्पर्धा के लिए इस महत्वपूर्ण जाँच आयोग का उपयोग किस तरह किया . आयोग के समक्ष " दंगों को नियंत्रित करने के लिए सेना क्यू नही बुलाई गयी ? " के जवाब मे सुधाकर राव द्वारा दिया गया बयान हमारे तंत्र के संचालन कि ज़िम्मेदारी संभालने वाले लोगो कि योग्यता व क्षमता का भंडाफोड़ करता है न्यायमूर्ति ने पेज 164 पर दर्ज किया है कि " सेना की टुकड़ी को आदेश कौन देगा , इस बारे मे मुख्यमंत्री अनभिग्य थे ." दंगो के समय सुधाकर राव नाइक से वरिष्ठ नागरिकों के एक शिष्ट मंडल ने मुलाक़ात की और पुलिस पर मुसलमानों के विरुढ़ पक्षपातपूर्ण रवैये की शिकायत की तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को गिरफ़्तार करने की माँग की . लेकिन सरकार ने न तो पुलिस को फटकारा और ना ही ठाकरे या शिवसैनिकों पर कोई कार्यवाही करने का निर्णय लिया . जिसका कारण उन्होने आयोग के समक्ष " राजनीतिक" बताया . इन दंगों मे पुलिस की संदिग्ध भूमिका की जाँच पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा ख़र्च किया और पाया की पुलिस की सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कारण ही दंगो को नियंत्रित नही किया जा सका . तत्कालीन अपर पुलिस आयुक्त वी एन देशमुख की इस बात को आयोग ने स्वीकार किया है की " मुसलमानों के विरुद्द पुलिस वालों के मान मे एक गाँठ थी जो उनके व्यवहार मे दिखी " (पेज 12) पुलिस ने इन दंगो में कैसी भूमिका निभाई इसकी कुछ बानगी रिपोर्ट मे देखी जा सकती है " 9 जन वरी को माहिम मे रात 9 बजे शिवसेना नगर सेवक मिलिंद वैद्य के नेतृत्व मे हिंदुओं ने मुस्लिम बस्ती पर हमला किया . पुलिस हवलदार संजय गावदे भी हाथ मे तलवार लेकर इस हमले मे शामिल हो गाये " (पेज 14) तुर्क द्वारा न्यायलय में कही गयी बातों पर तो आयोग जैसे मुहर लगाता है . दंगो और बम विस्फोटों के परस्पर संबंधों को स्वीकार करते हुए आयोग कहता है की " बाबरी मस्जिद के ढहने और दिसंबर 1992 , जन वरी 1993 मे हुए दंगो का कारण मुंबई मे सांप्रदायिक फूट पड़ गयी , जिसके कारण मुसलमानों के मान मे असुरक्षा और क्रोध की भावना उपजी . राज्य सरकार और पुलिस उनकी निगाह मे दोषी थी . इन दोनो ने उनके हितों की रक्षा करने के बदले सांप्रदायिक दंगों का नेतृत्व करने वाले लोगों से हाथ मिलाया , ऐसा मुस्लिमों को पक्का विश्वास था . इन मुस्लिमों का उपयोग राष्ट्र विरोधी शक्तियों द्वारा किया गया . पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई एस आई की मदद से उन लोगों ने क्रोधित मुस्लिमों को भड़का कर प्रतिशोध के लिए प्रेरित किया . दुबई के कुख्यात तस्कर दाउद इब्राहिम की मदद से एक बड़ा षडयंत्र रचा गया , जिसके अनुसार हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों मे बम विस्फोट किए गये . जिनके लिए दंगों मे सताए गये मुस्लिम युवकों का इस्तेमाल किया गया . (प्रथम खंड , पेज 43 ) श्री कृष्ण आयोग के इन तथ्यों के आलोक मे देखा जाए तो स्पष्ट है की कुछ लोगों को कठोर से कठोर सज़ा देने पर भी आतंकवाद की समस्या हल नही होनी है . उल्टे अपने समुदाय मे तुर्क जैसे लोगों की छवि एक " शहीद " की ही बनेगी , जिसने न्याय न मिलने के कारण आतंक का रास्ता अपनाया . दरअसल हमारे देश के "मुस्लिम आतंकवाद" का किसी वैश्विक जेहादी मिशन से उतना संबंध नही है जितना कि हमारी अंदरूनी राजनीति से . जिसके केंद्र मे अपने ही देश मे न्याय न मिलने के कारण उपजी उपेक्षा बोध और आक्रोश है . लेकिन "सांप्रदायिक इंजीनियरिंग " पर ही पल बढ़ रही राजनीतिक पार्टियाँ इन उपेक्षितों के न्याय के दायरे मे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी , इसकी उम्मीद भी किसे है ?