Thursday, February 22, 2018

जो है, वह था हो गया है

समझता हूं कि सब समझते हो नीला बाबू। देखता हूं कि सब देखते हो नीला बाबू। पाता हूं कि सबकुछ तो पा जाते हो नीला बाबू। फिर क्या है जो रुके हो? यूं ठिठकना ठीक नहीं नीला बाबू। रेल जा रही है। जाओ, बैठ जाओ। चलने की स्थिर हिलन में शायद चल सको। कुछ कदम। शायद तय कर सको वह फासले, जो बाकी रह गए हैं। जो हैं, जो नहीं हैं। फासले हैं नीला बाबू?

रंगरेज के रंग उबल रहे हैं। सुबह पत्थर के कोयले भरे थे। आंच तेज है और पत्थर लाल। लाल तो रंगरेज का चेहरा भी है, आंख भी। आग आंखों में है, आंच भी। उबलते रंगों की भाप महज कपड़ा नहीं रंगती नीला बाबू, मन भी रंगती है। मन के कपड़े पहनते हो? मन में कैसे दिखते हो नीला बाबू? मन का रंग कैसा है? रंग है। रंग है ना नीला बाबू?

जानता हूं बुंदे नहीं दोगे। सुख सिर्फ गांव के चौधरी का है। ताला भी चौधरी का है। चाबी भी उसी की है। तुम क्या हो नीला बाबू? ताला? चाबी? बुंदे? सुख? या महज एक गांठ?

ये अधूरा ही रहेगा नीला बाबू। ये गांठ नहीं खुलेगी। ये सुख नहीं मिलेगा। ये कपड़ा नहीं रंगेगा। ये रेल रुक गई है। फासले बढ़ गए हैं। गांठ कड़ी हो गई है। जो है, वह था हो गया है। जो था, वह कभी था ही नहीं। जाने दो नीला बाबू। तुमसे न हो पाएगा। तुमसे ये गांठ न खुलेगी नीला बाबू। बड़ी जुगत लगानी होती है खोलने के लिए।
चाचाजी की दोस्तियां















मिलेगा तो देखेंगे: 24

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