रोज की तरह रात आ तो गई
लेकिन रोज की तरह गई नहीं
रात जमकर बवाल काटा
सालों पुरानी प्रेमिका से भिड़ा
दाहिने गई तो दाहिने जाने पर चिल्लाया
बाएं गई तो बाएं जाने पर भी
चुप रही तो चुप्पी पर भड़का
बोली तो बोलने पर तड़का
दो सेकेंड में ब्रेकप करके दो घंटे बकवास की
फिर ठंड लगी
कंबल ओढ़ा, टोपी पहनी
और चला आया
उससे भी पुरानी प्रेमिका के पास
हर बार की तरह फिर से उसे
मीठा सा एक प्रपोज मारा
प्रेमिका मुदित हुई
उसकी आंखों से गरमी निकली
मैं तर हुआ
और तुरंत हस्तमैथुन करके
खुद को शांत किया
पुरानी प्रेमिका की तस्वीर बगल रखी
और तकिये से सटकर सो गया।
सुबह उठा
पैताने पर पहुंची तकिया सिराहने रखी
पहले पुरानी प्रेमिका की तस्वीर देखी
फिर लैपी पर एक्सवीडियोज लगाया
खुरचकर कमरे की दीवार पर एक निशान बनाया
और फ्रेश होकर हाथ धुलकर
फिर एक बार हस्तमैथुन किया
फिर भी ट्रैफिक की लाल बत्ती पर
सिर पर सवार थी पुरानी लाश
और पीछे सीना सटाकर बैठी रही
उससे भी पुरानी तकिया
कार वाले बूढ़े को गालियां दीं
भीख मांगने वाली बच्ची को भी
रिक्शे वाले को डांटा
फ्लाईओवर पर चलती ठंडी हवा को कोसा
तीन बार स्कूटी से गिरते गिरते बचा
कई बार पैदल चलते हुए लड़खड़ाया
भूख नहीं लगी, फिर भी जबरदस्ती
दो समोसे दो बाटी कोक के साथ गटके
दो डिब्बी सिगरेट फूंक गया
और धुंए में उड़ा दिया ब्रेकप के बाद याद आता रेशम
पी गया अपना सारा पानी
एक व्यंग लिखा, सामने बैठने वाली स्त्री की बुराई की
चिल्लाने वाले कर्मचारी पर पहली बार चिल्लाया
और पूरी कर दी नौकरी
रास्ते की सारी लाल बत्तियां तोड़ीं
और घर वापस आया
रात फिर से शुरू थी
और एक्सवीडियोज भी
तीन बजे रात तक चैट की हरी बत्ती जलाए रखी
मगर वो सोती रही
फिर फोन में सबको ब्लॉक मारा, उसे भी
नट्टी तक भरकर पी शराब
फेफड़ों में भरा ढेर सारा धुंआ
और तय किया कि
अब बाल कलर करा ही लूंगा,
बस बहुत हुआ।
संस्थाओं की तोड़फोड़ करके किनारे लगा देने की आदत नरेंद्र मोदी एंड पार्टी की आज की नहीं है, बल्कि काफी से भी काफी पुरानी है। सीबीआई में फिलहाल उनके खास रहे आईपीएस तो अब भुगत रहे हैं, गुजरात में तो दर्जनों आईएएस इस पार्टी का शिकार बन चुके हैं और इस्तीफा तक दे चुके हैं। कितने ही आईएएस और आईपीएस का कैरियर और पूरा जीवन ही इस पार्टी ने खराब कर दिया है। जिसने हर काले गोरे में साथ दिया, उसे पीके मिश्रा और वाईसी मोदी बना दिया, और जब खुद पर आंच आई तो साथ देने वाले को ही डीजी वंजारा बनाकर मक्खन में से बाल की तरह निकाल फेंका। आइए देखते हैं नरेंद्र मोदी एंड पार्टी ने कितने आईएएस आईपीएस का जीवन चौपट किया है। हालांकि लिस्ट बहुत बहुत और वाकई बहुत लंबी है, इसलिए हमने चुने हुए दर्जन भी ऐसे अधिकारी लिए हैं, जो वाकई इस गुजराती पार्टी के सताए हुए हैं।
नंबर एक पर आते हैं आईएएस प्रदीप शर्मा। प्रदीप शर्मा ने गुजरात दंगों में एसआईटी को लिखा था कि उन्हें मुख्यमंत्री के दफ्तर से फोन आया था और कहा गया था कि वो अपने भाई कुलदीप शर्मा को जो कि उस वक्त अहमदाबाद रेंज के आईजी थे, उन्हें समझाएं कि वो अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए सक्रिय कदम ना उठाए। शर्मा का नाम स्नूपगेट यानि की जिस महिला की जासूसी के आरोप नरेंद्र मोदी एंड पार्टी पर लगे थे, उसमें भी आया। इनपर उस मामले में एफआईआर कराने के लिए शर्मा जी हाईकोर्ट तक लड़े, लेकिन तब तक मोदी जी प्रधानमंत्री बन चुके थे और शर्मा जी यह सब कुछ सस्पेंशन में रहकर कर रहे थे। सन 2014 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी एंड पार्टी पर एफआईआर दर्ज करने से हाई कोर्ट ने इन्कार किया और उसी साल के अंत में यानी कि 30 सितंबर को एसीबी ने प्रदीप शर्मा को गिरफ्तार कर लिया। अब जाकर वे अगस्त में जमानत से जेल पर बाहर आए हैं।
नंबर दो पर आते हैं आईपीएस संजीव भट्ट। 1988 बैच के आईपीएस अधिकारी संजीव को सेवा से ‘अनधिकृत रूप से अनुपस्थित’ रहने के आधार पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अगस्त 2015 में बर्खास्त कर दिया था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया था कि वह गांधीनगर स्थित मोदी के आवास पर 27 फरवरी 2002 को आयोजित बैठक में शामिल थे। उन्होंने दावा किया था कि बैठक में मुख्यमंत्री ने सभी शीर्ष पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगाने की घटना के बाद आक्रोशित हिंदुओं को अपना बदला पूरा करने दें। इसका बदला उन्हें खूब चुकाना पड़ा है। फर्जी मामलों में गिरफ्तारी से लेकर उनका घर पर अहमदाबाद नगर निगम बुलडोजर तक चढ़ा चुका है।
नंबर तीन पर आते हैं आईपीएस राहुल शर्मा। गुजरात दंगों के दौरान भावनगर के एसपी रहे राहुल उन चुनिंदा वरिष्ठ अधिकारियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने दंगे रोकने का भरसक प्रयास किया। शर्मा ने कथित तौर पर चार्जशीट में दर्ज 'आधिकारिक' बयान पर असहमति जताई थी। उस दौरान शर्मा का प्रमोशन भी रोक दिया गया था और उनका तबादला कर दिया गया। 2004 में शर्मा ने नानावती कमिशन को एक सीडी सौंपी थी, जिसमें नेताओं, पुलिसकर्मियों और दंगे के आरोपियों की 5 लाख कॉल रिकॉर्ड थीं। 2011 में दुराचार के केस की चार्जशीट में राहुल का भी नाम था। इन्होंने भी इस्तीफा दे दिया है और पिछले साल यानी कि 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले बताया था कि वे अपनी राजनीतिक पार्टी लाने जा रहे हैं. हालांकि वो आ नहीं पाई। फिलहाल वे गुजरात हाईकोर्ट में बतौर वकील प्रेक्टिस कर रहे हैं.
नंबर चार पर आते हैं आईपीएस समीउल्लाह अंसारी। कहते हैं कि जनाब यूपी के फैजाबाद से हैं, लेकिन इस बारे में हम कन्फर्म नहीं हैं। गोधरा कांड व गुजरात दंगों के दौरान वे अहमदाबाद यातायात पुलिस में उपायुक्त के पद पर तैनात थे, इसी दौरान सेंट्रल आइबी की ओरसे रिकार्ड किए गए थे। इसमें प्रदेश के कई मुस्लिम धार्मिक, सामाजिक नेताओं की ओर से समीउल्लाह को फोन करने का खुलासा हुआ था। इसकी सीडी बाद में गुजरात सरकार को भी उपलब्ध कराई गई थी। आइपीएस समीउल्लाह अंसारी ने अमेरिका से अपना इस्तीफा सरकार को भेजा था। अंसारी अक्टूबर 2010 से स्वास्थ्य कारणों से अवकाश पर थे। इन्होंने अपना इस्तीफा दंगों व फर्जी मुठभेड मामलों के चलते नाराज होकर भेजा। मीउल्लाह अंसारी वर्ष 1992 बैच के अधिकारी हैं तथा एमए व आइआइएम बैंगलोर से एमबीए किया है।
नंबर पांच पर डीजी वंजारा को रखा जा सकता है। सितंबर 2014 में मुंबई की एक अदालत ने वंज़ारा को सोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति के फर्जी मुठभेड़ मामले में ज़मानत दे दी थी. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने जब सोहराबुद्दीन केस को ट्रायल के लिए गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित किया, तब से वंज़ारा मुंबई जेल में थे. माना जाता है कि मुंबई जेल में रहने के कारण वंज़ारा काफ़ी निराश हो गए थे और इसी कारण उन्होंने सितंबर 2013 में इस्तीफ़ा दे दिया. हालाँकि सरकार ने तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए कहा है कि जब तक वंजारा पर केस चल रहा है, तब तक वह इस्तीफा नहीं दे सकते.
नंबर छह पर आते हैं आईपीएस ऑफिसर जी एल सिंघल। इशरत एनकाउंटर मामले में शामिल जीएल सिंघल ने भी पत्र लिखकर इस्तीफ़ा दे दिया था. अपने पत्र में जीएल सिंघल ने भी यही कहा था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही है और उन्होंने जो भी काम क्राइम ब्रांच में अपनी नौकरी के दौरान किए, वे सब सरकार के दिशा-निर्देशन पर किए. हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार बनने ही आसपास उन्हें बहाल कर दिया गया और उन्हें गांधीनगर में स्टेट रिजर्व पुलिस में ग्रुप कमांडेंट बना दिया गया। एक निजी वेबसाइट ने अमित शाह और सिंघल के बीच की निजी बातचीत को सार्वजनिक किया था. यह बातचीत अन्य कई दस्तावेज़ों के साथ सीबीआई के छापे में सिंघल के घर से बरामद हुई थी. स्नूपगेट' में मिस्टर मोदी एंड पार्टी पर जिस महिला की जासूसी का आरोप लगा था, उस मामले के केंद्र में भी सिंघल ही थे. इस मामले को लेकर मोदी सरकार पर काफ़ी तीखे हमले हुए थे सातवें नंबर पर आते हैं गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी रजनीश राय। इसी साल यानी कि 2018 में तंग आकर आखिरकार इन्होंने भी इस्तीफा दे ही दिया। इन्होंने सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर मामले में डीजी वंजारा और दूसरे पुलिसकर्मियों को ऑन ड्यूटी गिरफ्तार किया था। गुजरात में रजनीश राय, राहुल शर्मा और सतीश वर्मा ये तीन ऐसे आईपीएस अधिकारी हैं जिन्होंने 2001 में मोदी सरकार के आने के बाद सरकार के काम का खुलकर विरोध किया था. 2014 में मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद रजनीश राय का ट्रांसफर आंध्र प्रदेश में सीआरपीएफ में कर दिया गया था. मोदी सरकार के आने के बाद रजनीश पिछले साल उस समय चर्चा में आए जब उन्होंने सीआरपीएफ के शीर्ष अधिकारियों को अपनी एक रिपोर्ट दी जिसमें बताया था कि कैसे सेना, अर्द्धसैनिक बल और असम पुलिस ने 29-30 मार्च चिरांग जिले के सिमालगुड़ी इलाके में फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दिया और दो व्यक्तियों को एनडीएफबी (एस) का सदस्य बताकर मार डाला था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, डिफें मिनिस्ट्री, असम सरकार और सीआरपीएफ से जवाब-तलब किया था. जिसके बाद बिना किसी वजह इस साल जून में रजनीश राय का ट्रांसफर आंध्र प्रदेश कर दिया गया.
आईपीएस पीपीपाण्डेय को पहले ही आ जाना था, लेकिन वह आए हैं आठवें नंबर पर। आजकल पाण्डेय जी आईएएस मेंस क्लियर करने वालों को इंटरव्यू की तैयारी कराते हैं। यह भी इशरत जहां सहित तीन दूसरे लोगों के फर्जी एनकाउंटर में फंसे थे, लेकिन सीबीआई की विशेष अदालत ने इन्हें बरी कर दिया।
नवें नंबर पर आते हैं आरबी श्री कुमार जो गुजरात में एडीजी (इंटेलिजेंस) थे। श्री कुमार का तबादला गुजरात दंगों के दौरान संजीव भट्ट के साथ ही किया गया था। कुमार का तबादला इसलिए किया गया, क्योंकि उन्होंने अल्पसंख्यक आयोग को मोदी के उस भाषण की क्लिप सौंप दी थी, जिसमें कथित तौर पर मोदी ने मुस्लिम समुदाय के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की थी।कुमार ने मोदी और बीजेपी के कई नेताओं के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण अभियान शुरू करने का आरोप लगाते हुए मानहानि और साजिश रचने का केस भी दर्ज कराया था।
10वें नंबर पर आते हैं गुजरात के पूर्व आईएएस कुलदीप शर्मा। कुलदीप शर्मा के खिलाफ पुलिस ने गुजरात भेड़ और ऊन विकास निगम (जीएसडब्ल्यूडीस) का महाप्रबंधक रहते हुए बिना उपयोग किया अनुदान वापस नहीं करने के आरोप में सन 2015 में चार्जशीट फाइल की थी। मामला 2010 11 का है। आईएएस रहते शर्मा और राज्य सरकार के बीच रिश्ता काफी खराब था। शर्मा ने वर्ष 2005 में सीआईडी (अपराध) के प्रमुख के तौर पर गुजरात के तत्कालीन मुख्य सचिव सुधीर मांकड को लिखे पत्र में गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह पर माधवपुरा मर्केंटाइल कोऑपरेटिव बैंक धोखाधड़ी मामले के अभियुक्त केतन पारिख से रिश्वत लेने का आरोप लगाया था. पदोन्नति न दिए जाने के खिलाफ शर्मा ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसके चलते राज्य सरकार के साथ उनके रिश्ते और खराब हुए थे। पिछले विधानसभा चुनावों में कुलदीप शर्मा ने कांग्रेस के बूथ मैनेजमेंट की कमान संभाली थी।
11वें नंबर पर आते हैं राजकुमार पांडियान। राजकुमार पांडियान भी सोहराबुद्दीन शेख और तुलसीराम प्रजापति की कथित फर्जी मुठभेड़ में मौत के मामले में फंसे थे जिन्हें सीबीआई की विशेष अदालत ने बरी कर दिया है। इंटेलिजेंस ब्यूरो में तैनात आईपीएस अधिकारी राजकुमार पांडियन को सोहराबुद्दीन केस में अप्रैल, 2007 में गिरफ्तार किया गया था. सात साल जेल में रहने वाले पांडियन को मई, 2014 में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी लेकिन उन्हें मुंबई छोड़ने की इजाजत नहीं मिली. इसके बाद गुजरात सरकार ने मुंबई स्थित गुजरात औद्योगिक विकास निगम पांडियन को संपर्क अधिकारी बनाया है. विशेष सीबीआई न्यायाधीश एमबी गोसावी ने इस आधार पर पांडियन को आरोपमुक्त किया कि उनके खिलाफ (अभियोजन के लिए) मंजूरी नहीं है. इसलिए उनके खिलाफ अभियोजन नहीं चलाया जा सकता. सीबीआई के अनुसार, पांडियान गुजरात एटीएस की उस टीम का हिस्सा थे, जिसने सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी को पकड़ा था. सीबीआई ने कहा कि उसने शुरुआती चरण से ही साजिश में सक्रिय भूमिका निभाई थी.
12वें नंबर पर आती हैं आईपीएस नीरजा गोत्रू। अहमदाबाद में एसपी (प्रोहिबिशन) नीरजा गोत्रू ने दाहोद और पंचमहल में हुए दंगों के केस की दोबारा जांच के लिए खुलवाया था। सितंबर, 2004 में उन्हें अपनी जांच बंद करने का आदेश देकर सीबीआई (डेप्युटेशन) में भेज दिया गया था। नीरजा से सितंबर 2004 में जांच खत्म करने को कहा गया था। जब नीरजा ने अंबिका सोसायटी नरसंहार मामले में 13 लोगों की बॉडी जलाने के आरोपी सब इंस्पेक्टर की गिरफ्तारी का ऑर्डर दिया तो सूबूत मिटाने के लिए उन्हें ही सीबीआई डेप्युटेशन पर भेज दिया गया।
13वें हैं आईपीएस सतीश चंद्र वर्मा। बीजेपी विधायक शंकर चौधरी की गिरफ्तारी का आदेश देने के बाद भुज के पूर्व डीआईजी वर्मा का तबादला हो गया था। चौधरी पर दंगों के दौरान दो मुस्लिम लड़कों की हत्या में शामिल होने का आरोप था। वर्मा ने गुजरात हाई कोर्ट में 80 पन्नो का एक ऐफिडेविट भी दिया था, जिसमें इशरत जहां एनकाउंटर केस को फर्जी बताया गया। सतीश ने भी प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाते हुए कैट का दरवाजा खटखटाया था।
14वें हैं आईपीएस एमडी अंतानी। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान भरूच के एसपी रहते हुए अंतानी वीएचपी और बीजेपी ऐक्टिविस्टों से काफी मुश्किल से निपटे थे। उनका जल्द ही नर्मदा जिले में तबादला कर दिया गया। इसके बाद गोधरा और आखिर में उनकी नियुक्ति स्थानीय पासपोर्ट ऑफिसर के तौर पर कर दी गई, जहां उन्होंने कई साल काम किया।
15वें नंबर पर आते हैं आईपीएस विवेक श्रीवास्तव। दंगों के दौरान विवेक कच्छ के एसपी थे और मुख्यमंत्री कार्यालय से मिले निर्देशों को नजरअंदाज करते हुए वीएचपी नेता को गिरफ्तार करना उनके लिए परेशानी का सबब बन गया। उन्हें रातों-रात जिले से बाहर शिफ्ट कर दिया गया था और फिर उन्हें डेप्युटेशन पर दिल्ली जाने के लिए बाध्य होना पड़ा।
16वें नंबर पर हैं अनुपम गहलोत। रिपोर्ट्स के मुताबिक मेहसाना के एसपी रहते हुए अनुपम ने दंगों के दौरान लगभग एक हजार लोगों की जान बचाई, जिसके बाद मेहसाना से उनका ट्रांसफर कर दिया गया था। इसके बाद लगातार गहलोत को दरकिनार किया जाता रहा और मुश्किल जगहों पर पोस्टिंग दी गई।
17वें नंबर पर हैं सीबीआई वाले आईपीएस एके शर्मा। कभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी के खास रहे एके शर्मा अब उनकी आंख की किरकिरी बन चुके हैं। हाल ही में मोदी सरकार ने आलोक श्रीवास्तव के साथ ही एके शर्मा पर भी अपना अवैध हथौड़ा चलाया है। एके शर्मा पर विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी को देश से भगाने के आरोप हैं। सूत्रों के मुताबिक जब राकेश अस्थाना को एके शर्मा का वरिष्ठ बनाकर बैठा दिया गया, तभी से वह अस्थाना की अपोजिट लॉबी में चले गए। पिछले दिनों जो रातों रात पीएमओ के जरिए तुगलकी फरमान निकला, उसके तहत सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर अरुण शर्मा को जेडी पॉलिसी और जेडी एंटी करप्शन हेडक्वार्टर से हटा दिया गया है।
18वें हैं अजय बस्सी। अजय बस्सी दिल्ली हेडक्वार्टर में डिप्टी एसपी के पद पर तैनात थे और राकेश अस्थाना घूसकांड की जांच कर रही टीम का नेतृत्व कर रहे थे. बस्सी का ट्रांसफर पोर्ट ब्लेयर किया गया है.
19वें हैं एसएस ग्रूम- सीबीआई के एडिशनल एसपी एसएस ग्रूम का ट्रांसफर जबलपुर किया गया है. इन पर डिप्टी एसपी देवेंद्र कुमार की गिरफ्तारी और उनसे जबरदस्ती कोरे कागज पर दस्तखत कराने का आरोप है.
20वें हैं ए साई मनोहर- सीबीआई में तैनात आईपीएस मनोहर को राकेश अस्थाना का करीबी कहा जाता है और इन्हें चंडीगढ़ में पोस्ट किया गया है.
21वें नंबर पर हैं वी मुरुगेसन। सीबीआई में तैनात आईपीएस वी मुरुगेसन को चंडीगढ़ में नियुक्त किया गया है.
22वें हैं अमित कुमार- अमित कुमार सीबीआई में डीआईजी की जिम्मेदारी संभाल रहे थे जिन्हें मोदी सरकार के बैठाए सीबीआई के कार्यवाहक निदेशक ने JD, AC-1 में ट्रांसफर कर दिया है।
23वें नंबर पर हैं मनीष सिन्हा- मनीष सिन्हा सीबीआई में डीआईजी का पद संभाल रहे थे और इनका ट्रांसफर नागपुर किया गया है.
24वें हैं जसबीर सिंह- ये सीबीआई में डीआईजी हैं और इन्हें बैंक धोखाधड़ी विंग का अतिरिक्त प्रभार दिया गया है.
25वें हैं सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा। आलोक वर्मा भी कभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी के खास माने जाते हैं, लेकिन अब हालात यह हैं कि नरेंद्र मोदी अजित डोवाल की मदद से उनके घर आईबी के लोगों को भेजकर जासूसी करा रहे हैं तो आलोक वर्मा के लोग भी कम नहीं हैं। वे नरेंद्र मोदी और अजीत डोवाल के भेजे जासूसों को सड़क पर घसीट घसीटकर पीट रहे हैं। अभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी और सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा के बीच रस्साकसी जारी है, जिसमें आलोक वर्मा का पलड़ा भारी पड़ता दिख रहा है। अगर आईपीएस लॉबी ठीक से काम करने लगे तो पिछले 17-18 सालों से जो नरेंद्र मोदी ने आईपीएस लॉबी का जीना दुश्वार कर रखा है, इसी एक मामले से उसे कुछ राहत मिल सकती है। आखिरकार आलोक वर्मा के पास जो फाइलें हैं, तोते की जान तो उसी में है।
जबसे कैंब्रिज एनालिटका और फेसबुक का चुनावी घोटाला खुला है, फेसबुक के मार्क जकरबर्ग बार बार कह रहे हैं कि उनकी कंपनी फेक न्यूज और अफवाहों से लड़ने के लिए अपनी तकनीक विकसित कर रही है। जब अमेरिकी कांग्रेस ने यह पूछा कि इस तकनीक को विकसित करने की अंतिम तारीख बताइए तो मार्क जकरबर्ग ने उन्हें जवाब दिया कि इसमें महीनों लगेंगे। मामला खुले अब एक साल होने को आए हैं, लेकिन मार्क जकरबर्ग ने फेसबुक पर सिवाय थर्ड पार्टी चेक लगाने के ऐसा और कोई भी मैकेनिज्म तैयार नहीं किया है, जिससे फेक न्यूज पर रोक लग सके। अपने यहां भारत में तो फेसबुक ने न तो फेक न्यूज पर किसी तरह की कोई रोक लगाई है और न ही फेक न्यूज फैलाने वालों पर ही कोई रोक लगाई है। भारत के चुनाव आयोग से फेसबुक ने ये तो कह दिया है कि वह मतदान के दो दिन पहले अपने प्लेटफॉर्म पर चुनावी चकल्लस रोक देगा, लेकिन फेसबुक ऐसा कैसे करेगा, उसे खुद ही नहीं पता है।
इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेज अभी भी फेसबुक पर धड़ल्ले से फेक न्यूज और अफवाह फैलाने का काम कर रहे हैं, लेकिन फेसबुक इनपर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगा रहा है। उल्टे हो यह रहा है कि सही खबरें देने वाली वेबसाइटों को फेसबुक पर से ब्लॉक किया जा रहा है। इन्हीं बातों को लेकर सीएनएन के रिपोर्टर ऑलिवर डैरसी ने फेसबुक के न्यूज फीड हेड जॉन हेगमैन से बड़ा सही सवाल पूछा। उन्होंने पूछा कि अगर फेसबुक सच में अफवाहों और फेक न्यूज से लड़ने के लिए सीरियस है तो इस तरह के फेक न्यूज फैलाने वाले अकाउंट्स अभी तक फेसबुक पर क्या कर रहे हैं? आप चेक करेंगे तो पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेजों को फॉलो करने वालों की संख्या हजारों लाखों में है। जवाब में जॉन हेगमैन ने जो कहा, उससे आपकी चिंता और बढ़ने वाली है। उन्होंने कहा कि फेसबुक फेक न्यूज को नहीं हटाता।
लेकिन इसके आगे हेगमैन ने जो कहा, वह तो दुनिया को, सच को और लोकतंत्र को पूरी तरह से गड्ढे में धकेलने वाली बात है। उन्होंने कहा कि फेक न्यूज कम्यूनिटी स्टैंडर्ड को वॉयलेट नहीं करतीं और न ही फेक न्यूज फैलाने वाले ऐसे पेज हमारे समाज का ऐसा कोई नियम तोड़ते हैं, जिसके लिए कि उन्हें ब्लॉक किया जाए। एक बार फेसबुक पर चेक करिए तो आप पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेज रोजाना ढेर सारी फेक न्यूज पोस्ट कर रहे हैं, लेकिन उनपर कोई रोक नहीं लगी है।
यह बात बिलकुल नहा धोकर साफ है कि फेसबुक भारत में किसी तरह की फेक न्यूज पर रोक लगाने नहीं जा रहा है। उसने जो थर्ड पार्टी चेकर लगाया भी है, वह उन्हीं खबरों को छूट देता है जो सब जगह होती हैं। लेकिन ऐसी खबरें, जो एक्सक्लूसिव होती हैं, उन्हें यह थर्ड पार्टी चेकर फेक न्यूज साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मसलन जज लोया की मौत की जो खबरें चलीं, हम जानते हैं कि मेन स्ट्रीम मीडिया ने उन्हें हम लोगों को न दिखाने के लिए पूरी कमर कसी और नहीं दिखाईं। आज की तारीख में जज लोया की मौत से जुड़ी न्यूज फाइलें जब फेसबुक पर डाली जाती हैं तो बीजेपी की ट्रॉल आर्मी उन्हें रिपोर्ट करती है। चूंकि वह खबरें मेनस्ट्रीम मीडिया में सभी जगहों पर नहीं मिलतीं, इसलिए उन्हें फेसबुक डाउन कर देता है। इस वजह से देश के इतने बड़े मामले से जुड़ी खबरें अधिकतर लोग न तो देख पाए और न ही जान पाए। इसी तरह से आदिवासियों के साथ जो घटनाएं होती हैं, मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें कवर नहीं करता। लेकिन जो लोग उन्हें कवर करते हैं, फेसबुक उन्हें फेक न्यूज कैटेगरी में डाल देता है।
देश के कई पत्रकारों को भी फेसबुक ने टारगेट कर रखा है। मसलन एनडीटीवी के रवीश कुमार और खुद मैंने भी जब फेसबुक के फ्री बेसिक्स के गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों को समझाना शुरू किया कि फ्री बेसिक्स के तहत कैसे फेसबुक और अंबानी मिलकर ठगी का नया धंधा लाने जा रहे हैं तो हमारी फेसबुक रीच 80 प्रतिशत तक कम कर दी गई। उस वक्त मैंने इस मामले को लेकर इंग्लैंड में गैरी मैक्किननन से बात की थी। गैर मैक्कनिन स्कॉटिश हैं और हैकिंग के इतिहास में पहले सबसे बड़े हैकर माने जाते हैं जिन्होंने सन 2002 में दुनिया की सबसे बड़ी मिलिट्री हैकिंग की थी और अमेरिकी सेना के कई कंप्यूटर्स हैक किए थे। गैरी ने बताया कि वह खुद फेसबुक पर ब्लॉक हैं और फेसबुक पर उनके हजार से ज्यादा दोस्त नहीं हैं। लेकिन उसके बावजूद कोई भी उन्हें फ्रेंड रीक्वेस्ट नहीं भेज सकता है। अभी वह जेल से बाहर हैं, लेकिन बेहद डरे हुए हैं, इसलिए उन्होंने इस बारे में सीधे-सीधे कुछ भी बात करने से मना कर दिया, अलबत्ता इतना जरूर कहा कि वह कतई नहीं मानते कि यह प्लेटफॉर्म सुरक्षित है। खैर, मैंने फेसबुक की इसी अघोषित बदमाशी के चलते फेसबुक हमेशा के लिए छोड़ दिया और उस वक्त रवीश कुमार को भी यही राय दी थी। अभी का हाल जानने के लिए रवीश कुमार को फोन मिलाया गया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया। शायद अब वह भी फेसबुक के कीड़े हो चुके हैं कि जो जब तक फेसबुक को अच्छे से चाट न ले, उसे चैन नहीं मिलेगा। मेरा मानना है कि जिसे भी सही खबर जानने की ख्वाहिश होगी, वह मेहनत करेगा, सर्च करेगा, चार जगहों पर जाकर चीजों को पढ़ेगा या देखेगा। और जिसे सही खबर जानने की इच्छा नहीं होगी, वह इसी तरह से इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेजों पर जा जाकर लाइक कमेंट और शेयर करता रहेगा। वह सच जानने के लिए मेहनत बिलकुल नहीं करेगा।
फेक न्यूज का किला बन चुके फेसबुक को छोड़ने के लिए मैं कई बार लोगों को समझा चुका हूं, लेकिन देखता हूं कि भारत में लोगों पर झूठ खाने और पचाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसकी सीधी वजह यही है कि अभी अपने यहां लोकतंत्र को आए सिर्फ 70 साल हुए हैं और भारत के लोगों की सोच न तो लोकतंत्र को लेकर साफ हो पाई है और न ही सच को लेकर और न ही अपनी खुद की सुरक्षा को लेकर। लेकिन अमेरिका में लोकतंत्र हमसे कहीं ज्यादा पुराना है और गनीमत है कि वहां पर काफी लोगों की सोच लोकतंत्र को लेकर साफ है। इसी महीने, यानी कि सितंबर 2018 में वहां पर प्यू रिसर्च सेंटर वालों ने एक सर्वे कराया है, जिससे वहां पर साफ लोकतांत्रिक सोच बिलकुल साफ दिखाई पड़ती है। आपको बता दें कि प्यू रिसर्च सेंटर वही है, जिसने अपने यहां नोटबंदी के बाद सर्वे कराया था, जिसमें काफी लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार में आस्था व्यक्त की थी। इसके बाद पिछले साल भी इसके सर्वे में देश के आर्थिक हालात में लोगों की बड़ी आस्था दिखाई गई थी और इसी महीने फिर से इसकी नई रिसर्च सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि लोगों का देश के आर्थिक हालात में अब भरोसा नहीं रह गया है।
तो फेसबुक के बारे में प्यू की ताजी रिसर्च कहती है कि अमेरिका की तकरीबन आधी आबादी अब फेसबुक पर बिलकुल भरोसा नहीं करती है। सन 2017 से लेकर अभी तक यानी कि सितंबर 2018 तक वहां के 42 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक से किनारा कर लिया है। प्यू के सर्वे में शामिल 26 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्होंने अपने मोबाइल फोन से फेसबुक डिलीट कर दिया है। 54 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक पर अपनी प्राइवेसी सेटिंग बदल डाली है और इन सबमें से 74 प्रतिशत लोग ऐसे रहे, जिन्होंने माना कि उन्होंने इन तीनों एक्शन में से कोई एक एक्शन लिया है। इस सर्वे की जो सबसे खास बात है, वह ये कि युवाओं ने सबसे ज्यादा फेसबुक के खिलाफ मोर्चा खोला है। 18 से 49 साल के लोगों ने सबसे ज्यादा फेसबुक डिलीट किया है या फिर उसकी प्राइवेसी सेटिंग बदली है या फिर फेसबुक का इस्तेमाल कंप्यूटर या मोबाइल या लैपटॉप पर करना बंद कर दिया है। लेकिन बात बुजुर्गों की करें, जिनके कंधे पर हम युवाओं को रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी है तो वह फेक न्यूज, अफवाह और प्राइवेसी को लेकर सबसे ज्यादा लापरवाह निकले हैं। 50 से 65 साल के लोगों में महज 33 प्रतिशत लोगों ने ही फेसबुक से किसी भी रूप में किनारा किया है, बाकी के 67 प्रतिशत लोग पहले की ही तरह फेसबुक पर बने हुए हैं और पहले की ही तरह फेक न्यूज और अफवाहों के साथ खड़े हुए हैं।
हम सभी ने देखा कि कैसे फेसबुक ने कैंब्रिज एनालिटिका के साथ शातिर गठजोड़ करके हम सभी का डाटा रूसियों को बेचा। इस मामले में जब सवाल उठा तो पहले पहल मार्क जकरबर्ग यही कहते नजर आए कि उन्हें तो कुछ पता ही नहीं था। सन 2014 से लेकर 2016 तक रूसियों ने फेसबुक पर एक के बाद एक 80 हजार फेक न्यूज पोस्ट अपडेट की, लेकिन मार्क जकरबर्ग चैन की बंसी बजाते रहे। जब मामला खुला और अमेरिकी कांग्रेस ने उनका कान पकड़कर कांग्रेस के सामने बैठा दिया, तब कहीं जाकर मार्क जकरबर्ग के मुंह से बड़ी मुश्किल से सॉरी निकला, वह भी सूखते गले के साथ। कांग्रेस की उस पूछताछ के इसी चैनल पर ढेर सारे वीडियो मौजूद हैं, उनमें आप देख सकते हैं कि कैसे वह बार बार पानी पीकर अपना गला तर करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के लोग उनके हलक में हाथ डालकर कैसे सच बाहर निकलवा रहे हैं। फेसबुक ने माना है कि उसने हम सभी भारतीयों का डाटा भी स्टोर किया है। सवाल उठता है कि क्या हमारी संसद में इतना भी दम नहीं है कि वह एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनाकर मामले की जांच करे और मार्क जकरबर्ग को बिलकुल उसी तरह से कान पकड़कर हमारी संसद के सामने बैठा दे, जैसा कि अमेरिकी संसद ने किया और बिलकुल उसी तरह से उनके हलक में हाथ डालकर सच उगलवाए?
लेकिन यह बात फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका के उस गठजोड़ की नहीं है, जिसके तहत दोनों ने मिलकर हम सबके डाटा के साथ खिलवाड़ किया था। बात यह है कि क्या फेसबुक खुद हमारा डाटा बेचता है? क्या फेसबुक खुद हमारा डाटा स्टोर करता है और हमारी क्लोनिंग करके हमें डॉली नाम की भेड़ बनाने पर तुला है? क्या हो अगर डेनमार्क से कोई आपके ही नाम से बिलकुल ओरिजनल आईडी बनाए? क्या हो कि अगर कोई आपके ही नाम से बिलकुल आपकी ही भाषा में फेक न्यूज या अफवाह फैलाए? क्या हो कि कोई आपके नाम से आपकी वह तस्वीरें पोस्ट करे, जो आपने कभी फेसबुक पर डाली ही नहीं और जो आपके मोबाइल के गैलरी सेक्शन में रखी हुई हैं? क्या हो कि कोई आपकी ही आवाज में आपके नाते रिश्तेदारों को फोन करे और किसी खास पार्टी को वोट देने की पैरवी करे? इन सवालों के जवाब इसी वीडियो में मिलेंगे, लेकिन पहले यह जान लें कि क्या फेसबुक हमारा डाटा खुले बाजार में बेच देता है? वह खुला बाजार, जो बेहद खतरनाक है और अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है और किसी भी हद तक जा सकता है। और हर हद तक जाने के बावजूद हमारी सरकारें, फिर चाहे वह किसी भी पार्टी की क्यों न हों, कुछ नहीं करेंगी क्योंकि वह भी सिर्फ वोटबैंक की राजनीति ही करती आई हैं और उन्होंने इसके अलावा और कुछ भी न तो सीखा है और न ही किया है। वह हम भारतीयों की औकात एक भेड़ से अधिक और कुछ नहीं समझते।
जब अमेरिकी कांग्रेस यानी कि अमेरिकी संसद ने मार्क जकरबर्ग के हलक में हाथ डाला, तब कहीं जाकर यह राज खुला कि फेसबुक ने अकेले कैंब्रिज एनालिटिका को ही हम सबका डाटा नहीं बेचा। ऐसी 81 कंपनियां हैं, जिनके नाम फेसबुक ने अमेरिकी संसद को दिए गए एफीडेविट में बताए हैं कि वह उन्हें डाटा बेचता आ रहा है। अपने सात सौ पेज के मेनीफेस्टो में फेसबुक ने अमेरिकी संसद की एनर्जी और कॉमर्स कमेटी को इन कंपनियों के नाम बताए हैं। कैंब्रिज एनालिटिका के साथ किए गए शातिर और आपराधिक गठजोड़ में नाम सामने आने के बावजूद इसी साल फेसबुक ने एप्पल, अमेजॉन, सैमसंग और अलीबाबा जैसी कंपनियों के साथ हमारा आपका डाटा बेचने का कॉन्ट्रैक्ट किया है। क्या आपने कभी देखा कि फेसबुक ने आपसे आपका डाटा किसी को भी बेचने के लिए अनुमति मांगी है? नहीं देखेंगे क्योंकि फेसबुक ने ऐसी कोई अनुमति कभी मांगी ही नहीं है।
हुवाई और अलीबाबा जैसी कंपनियां, जो भारत में भारतीय डाटा की स्मगलिंग के लिए पकड़ी गई हैं और जिनपर जांच भी चल रही है, फेसबुक ने हमारा सारा डाटा इन कंपनियों को बेच दिया है। फेसबुक का दावा है कि जिन 81 कंपनियों को वह हमारा डाटा बेच रहा है, उनमें से 38 कंपनियों से उसने अपनी पार्टनरशिप तोड़ दी है। लेकिन अभी भी 43 कंपनियां हैं, जिन्हें वह हमारा सारा डाटा बेच रहा है। हालांकि फेसबुक का दावा है कि वह सिर्फ 14 कंपनियों को हमारा डाटा बेच रहा है। सारा डाटा का मतलब सिर्फ हमारे फेसबुक का ही डाटा नहीं है। जो लोग मोबाइल से फेसबुक या फेसबुक का कोई भी प्रोडक्ट मसलन व्हाट्सएप्प और इंस्टाग्राम यूज करते हैं, इन एप्स को इंस्टाल करने से पहले और इंस्टाल करते ही फेसबुक हमारे मोबाइल में मौजूद सारा अपने पास फेच कर लेता है, यानी कि खींच लेता है। इसका वह बाकायदा फॉर्म भरवाता है और जिसे न भरने पर आप उसका कोई भी प्रोडक्ट यूज नहीं कर सकते। इस फॉर्म में हमारे मोबाइल का कैमरा, गैलरी, कॉन्टैक्ट लिस्ट, एसएमएस, दूसरे एप्स और मोबाइल में तकरीबन जो कुछ भी है, वहां तक पहुंचने के लिए फेसबुक को इजाजत देनी पड़ती है। इजाजत न देने की हालत में फेसबुक का कोई भी एप इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
इस बात के अप्रत्यक्ष सबूत मिल चुके हैं कि भारत में जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं, बीजेपी और उसके सहयोगी दल फेसबुक के इस डाटा के सबसे बड़े खरीदार हैं। नरेंद्र मोदी के लिए तो फेसबुक ने अपनी पूरी टीम ही भारत में तैनात कर रखी है, जिसकी ग्लोबल हेड कैथी हरबाथ लगभग हर तीसरे महीने ही भारत भागी चली आती हैं। कैथी हरबाथ के बीजेपी के सभी बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों से संबंध हैं और वे भारत में तरह तरह के ट्रेनिंग प्रोग्राम भी चलाती हैं। इसी तरह से दुनिया भर में जितने भी तानाशाह हैं, चाहे वह म्यांमार हो या अजरबैजान या फिर अमेरिका के ट्रंप, यह सभी फेसबुक से डाटा खरीदते हैं, लेकिन इस खरीद का जो चेहरा दुनिया को दिखाया जाता है, वह बिलकुल दूसरा होता है।
जैसा कि पहले बताया कि फेसबुक हमारा डाटा प्राइवेट कंपनियों को बेच रहा है। पहले जान लें कि इस डाटा में क्या क्या है। मोटे तौर पर हम अपना फेसबुक डाटा दो कैटेगरी में बांट सकते हैं। पहली कैटेगरी है आम लोग जो फेसबुक का इस्तेमाल अपने लोगों से जुड़ने और सूचनाओं को पाने के लिए करते हैं। दूसरी कैटेगरी है उन लोगों की, जो फेसबुक पर विज्ञापन देते हैं और कई तरह के बिजनेस या राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हुए हैं। कैंब्रिज एनालिटिका के घोटाले में जब फेसबुक पकड़ा गया तो उसने हमें अपना डाटा डाउनलोड करने की सुविधा दी। अब कोई भी अपनी फेसबुक की सेटिंग में जाकर अपना डाटा डाउनलोड कर सकता है। डाटा डाउनलोड करने के बाद अब हर कोई देख सकता है कि फेसबुक ने उसकी क्या क्या चीजें अपने पास स्टोर कर रखी हैं। आम लोगों की कैटेगरी में फेसबुक का स्टोरेज दिखाता है कि वह अबाउट यू, एप्स एंड वेबसाइट, कॉल्स एंड मैसेजेस, कमेंट्स, ईवेंट्स, फ्रेंड एंड फालोइंग, ग्रुप्स, लाइक्स एंड रियेक्शन, लोकेशन हिस्ट्री, इनबॉक्स की सारी बातचीत, दूसरी एक्टीविटी, फोटो और वीडियो, पोस्ट, प्रोफाइल फॉरमेट, सर्च हिस्ट्री, सीक्योरिटी और लॉगिन करने की जगहें और मशीन वगैरह रिकॉर्ड करता है। विज्ञापन देने वाले लोगों में मार्केटप्लेस, फेसबुक के पेज, पेमेंट हिस्ट्री वगैरह बढ़ जाती है। यह तो वह डाटा है जो फेसबुक हमें बताता है कि उसने स्टोर किया है। अब एक छोटा सा प्रयोग करें। अमेजन या फ्लिपकार्ट पर जाकर पेन ड्राइव के बारे में सर्च करें और बगैर कुछ खरीदे वापस आकर अपना फेसबुक रीफ्रेश करें। आप पाएंगे कि जो चीज आप उन वेबसाइटों पर सर्च कर रहे थे, उन्हीं चीजों का विज्ञापन फेसबुक आपको दिखा रहा है। यानि कि जो चीजें आपने फेसबुक पर की ही नहीं, वह भी फेसबुक रिकॉर्ड कर रहा है। इसी तरह से हम मोबाइल पर किससे क्या बातचीत करते हैं या किसे क्या एसएमएस करते हैं कि किसी कौन सी फोटो खींचते हैं, यह सबकुछ फेसबुक रिकॉर्ड कर रहा है, और उन सभी कंपनियों को बेच रहा है, जिनके प्रोडक्ट हम सर्च कर रहे हैं। अब जरा इसी सर्च को राजनीतिक पार्टियों के रूप में सर्च करके देखें। इसी तरह से हमारा सारा डाटा उन्हें भी बेचा जा रहा है।
फेसबुक बार बार यह कहता है कि वह किसी को भी हमारा डाटा नहीं बेचता है। लेकिन फिर वह अमेरिकी कांग्रेस को उन कंपनियों की लिस्ट भी पकड़ाता है, जिन्हें वह हमारा डाटा बेचता है या जिन्हें उसने पहले कभी हमारा डाटा बेचा। फेसबुक का कहना है कि वह कंपनियों को डाटा नहीं बेचता, लेकिन जिस तरह के डाटा पर कंपनियां अपना विज्ञापन दिखाना चाहती हैं, उस जगह पर वह उन कंपनियों का विज्ञापन ले जाकर रख देता है। जाहिर है कि बीजेपी अपना विज्ञापन वहीं या उन्हीं लोगों को सबसे पहले दिखाना चाहेगी, जो बीजेपी के बारे में जानना चाहते हैं या जिनके दिमाग में बीजेपी को लेकर कुछ चल रहा है। लोगों के दिमाग में क्या चल रहा है, फेसबुक से ज्यादा इस बारे में कौन जानेगा? आखिर फेसबुक खुलते ही जो सबसे पहला सवाल हमारे सामने आता है, वह होता है- व्हाट्स इन योर माइंड? इसमे जो सबसे ज्यादा चिंता की बात है, और जिसपर अमेरिकी कांग्रेस ने सवाल भी उठाया था और जिसका जवाब मार्क जकरबर्ग नहीं दे पाए थे, वह ये कि क्या वह हमारा डाटा किसी को भी बेचने से पहले, फिर चाहे वह उन्हीं की वेबसाइट पर विज्ञापन देने वाले ही क्यों न हों, उससे पहले क्या कभी उन्होंने हमसे पूछा या हमें बताया कि वह हमारा डाटा किसे बेच रहे हैं?
28 सितंबर को फेसबुक ने एक प्रेस नोट जारी करके बताया कि उसके सरवर से पांच करोड़ लोगों की प्रोफाइल हैक हो चुकी हैं। हैक बोले तो चोरी। उन प्रोफाइल्स में जो कुछ भी था, वह सब चोरी हो गया। यह चोरी किसने की, फेसबुक का कहना है कि उसे इस बारे में कुछ भी नहीं पता। पांच करोड़ लोगों की प्रोफाइलों से क्या क्या चोरी गया, यह भी फेसबुक को नहीं पता। अलबत्ता फेसबुक को यह जरूर पता है कि इस बार जिन पांच करोड़ लोगों की फेसबुक प्रोफाइल्स चोरी हुई हैं, उसका असर फेसबुक पर मौजूद चार करोड़ दूसरे लोगों पर पड़ा है। इसके चलते फेसबुक ने कुल मिलाकर नौ करोड़ लोगों को उनके मोबाइल या कंप्यूटरों से लॉगआउट करा दिया है। सन 2016 में जब अमेरिका में चुनाव हो रहे थे, तब कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक पर मौजूद 8.7 करोड़ लोगों की प्रोफाइल का डाटा चुराया था। सन 2016 में हुई फेसबुक की पहली सबसे बड़ी डाटा चोरी के बाद दुनिया ने देखा कि कैसे अमेरिकी चुनाव में खेल हुआ और कैसे किसी के भी न चाहते हुए डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बन बैठे। अब अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं और भारत में राजस्थान मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव तो होने ही वाले हैं, कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनावों के लिए वोटिंग होने वाली है। ऐसे वक्त में फेसबुक ने ऐलान किया है कि उसपर मौजूद नौ करोड़ लोगों का डाटा या तो चोरी हो चुका है, या फिर हैकर उनके डाटा तक पहुंच चुके हैं। हालांकि फेसबुक ने बताया है कि जिस रास्ते चोरी हुई है, उसने वह रास्ता बंद कर दिया है, लेकिन इंटरनेट की तकनीकी दुनिया में सभी जानते हैं कि यह रास्ता बंद नहीं हुआ है और अब इसे बंद कर पाना सिर्फ एक ही सूरत में संभव है। और वह है कि फेसबुक को ही बंद कर दिया जाए। दुनिया को अगर बचाना है, दुनिया को अगर साफ सुथरा रखना है, जैसी दुनिया बनाने का सपना हमारे बुजुर्गों ने देखा और हमारी उंगली थामकर हमें देखना सिखाया है, फेसबुक को बंद करने के अलावा और कोई भी दूसरा रास्ता नहीं है।
फेसबुक ने बताया है कि इस चोरी के लिए हैकरों ने फेसबुक प्रोफाइल पर मौजूद व्यू एज बटन का इस्तेमाल किया। इस बटन के जरिए फेसबुक यूजर अपने आपको बिलकुल वैसे देख सकते हैं, जैसा कि दूसरे उनकी प्रोफाइल पर उनको देखते हैं। पिछले साल यानी कि जुलाई 2017 में फेसबुक ने अपने वीडियो फीचर में कुछ बदलाव किए थे, जिसकी वजह से उसकी साइट में तीन तरह के कीड़े यानी कि बग लग गए। इन्हीं कीड़ों ने फेसबुक की सीक्योरिटी को कुतरकर हैकरों के लिए वह रास्ता तैयार किया, जिसके जरिए फेसबुक की नौ करोड़ प्रोफाइलों का डाटा चोरी हो गया।
अपने यहां अक्सर लोग यह पूछते हैं कि डाटा चोरी हुआ तो उनपर क्या फर्क पड़ेगा। इसका बड़ा ही सीधा जवाब है कि पहले यह जान लिया जाए कि फेसबुक के पास हमारा ऐसा कौन सा डाटा है जिसे पाने के लिए दुनिया भर के हैकर, तानाशाह और चुनाव में जीतने के लिए साम दाम दंड भेद अपनाने वाले नेता मरे जा रहे हैं। इसका बड़ा आसान तरीका है। अपने फेसबुक प्रोफाइल की सेटिंग्स में जाइए। वहां आपको डाउनलोड योर इन्फॉरमेशन नाम से एक बटन दिखेगा। यहां पर क्लिक करके आप अपना सारा फेसबुक डाटा डाउनलोड कर सकते हैं। इसे डाउनलोड करने के बाद जब आप इस फाइल को खोलेंगे तो पाएंगे कि यहां पर आपके बारे में अबाउट अस है, आप कब कहां गए, उसकी अलग फाइल है। आपने कब और कहां कौन सी तस्वीर फेसबुक पर अपलोड की, उसकी अलग फाइल है। आपने कब कौन सी वीडियो अपलोड की, उसकी अलग फाइल है। आपने कब कहां और क्या कमेंट किया, उसकी अलग फाइल मिलेगी। आपके दोस्तों की अलग फाइल मिलेगी तो आपके फॉलोवस और आप जिसे फॉलो करते हैं, उसकी अलग फाइल मिलेगी। लेकिन जो सबसे संवेदनशील फाइलें मिलेंगी, वह हैं आपकी चैटिंग का पूरा डाटा और आपने फेसबुक पर जो सर्च किया है, उसका पूरा डाटा। चैटिंग और सर्च की भी आपको फाइलें वहां मिल जाएंगी। चैटिंग में हम सभी अक्सर बेहद संवेदनशील जानकारियां बांटते हैं और इस विश्वास के साथ कि कम से कम इसे कोई और नहीं देख रहा है। सिर्फ वही देख रहा है, जिससे बात की जा रही है। इस चैटिंग में हम सभी ने अक्सर अपने बैंक अकाउंट, पासवर्ड, पैन कार्ड, आधार कार्ड और अपने बारे में लगभग सारी संवेदनशील जानकारियां अपने किसी ऐसे जाननेवाले को दे रखी हैं, जिसपर कि हमें पूरा भरोसा है। यह ऐसी जानकारियां होती हैं, जो किसी क्रिमिनल टाइप के आदमी के हाथ लग जाए तो वह हमें कंगाल बना देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगा। हमारी दूसरी सबसे संवेदनशील जानकारी है कि हमने सर्च क्या किया? हमारे दिमाग में जो सवालात आते हैं, वह हम सर्च करते हैं। हम जो कुछ भी जानना चाहते हैं, हम वह सर्च करते हैं। हमारे दिमाग में जो कुछ भी चल रहा है, वह इन्हीं सर्च से सामने आता है।
अब हमारे दिमाग में क्या चल रहा है, इसका सीधा फायदा दो लोग उठाते हैं। पहला बिजनेसमैन यानी कि धंधा पानी करने वाले। अगर हमारे दिमाग में चलती चीजें उनके प्रोडक्ट से मेल खाती हैं तो वह अपना प्रोडक्ट हमें बेचने पहुंच जाते हैं। दूसरे हैं हमारी राजनीतिक पार्टियां। हमारे दिमाग की थाह लेकर ही वह हमारी भावनाओं से खेलती आई हैं। फेसबुक ने इस खेल को और भी ज्यादा आसान बना दिया है। यही वजह है कि फेसबुक के आने के बाद से दुनिया भर की राजनीति में गंदगी और भी बढ़ गई है। इस गंदगी के चलते दुनिया भर के उन देशों में, जहां जनता का राज है, यानी कि जहां लोकतंत्र है, वहां के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर बहुत ही बड़ा खतरा मंडरा रहा है। वक्त वक्त पर फेसबुक के जरिए इसे भारी चोट भी पहुंचाई गई है। अमेरिका से लेकर म्यांमार और यूरोपियन यूनियन से लेकर मिडल ईस्ट तक हमने इसी फेसबुक के जरिए लोकतंत्र को घायल होकर कराहते देखा है।
इस साल यानी कि 2018 के सितंबर में फेसबुक ने जिन पांच करोड़ प्रोफाइलों का डाटा चोरी होने की बात बताई है और जिन दूसरी चार करोड़ प्रोफाइलों पर उसका असर होने की बात बताई है, अगर फेसबुक का पिछला रिकॉर्ड देखें तो पूरी संभावना है कि यह चोरी खुद फेसबुक ने कराई है। कैंब्रिज एनालिटिका में जब फेसबुक पकड़ा गया तो उसका मालिक मार्क जकरबर्ग पहले तो यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था कि ऐसी कोई चोरी हुई है। अमेरिकी संसद ने जब उसे हाजिर होने का समन भेजा, तब भी वह हाजिरी से बचने के लिए बहाने बनाता रहा। जब अमेरिकी संसद ने अपने तेवर कड़े किए, जब कहीं जाकर वह अमेरिकी संसद के सामने हाजिर हुआ। अमेरिकी संसद की पूरी कार्यवाही मैंने इसी चैनल पर अपलोड कर रखी है। उसे देखें तो आपकी आंख खुल जाएगी कि फेसबुक ने दुनिया को जोड़ने के नाम पर कैसे दुनिया को तोड़ताड़कर अलग थलग कर दिया है। भाई भाई में दुश्मनी पैदा करा दी है, पति पत्नी में फेसबुक के नाम पर अलगाव पैदा करा दिया है। लोग हत्याओं का सीधा प्रसारण फेसबुक पर कर रहे हैं और फेसबुक के अंदर बैठे लोग अपनी टीम को ट्रेनिंग देते पकड़े गए हैं कि इन हत्याओं का उल्टा सीधा या कैसा भी प्रसारण हो, उसे फेसबुक से नहीं हटाना है। यही हाल फेसबुक का यूरोपियन यूनियन में चले मुकदमे में हुआ है, जहां वह आईएसआईएस के लोगों को आगे बढ़ाता पकड़ा गया है। इंग्लैंड ने तो मार्क जकरबर्ग के ईंग्लैंड में घुसने पर तब तक के लिए पाबंदी लगा दी है, जब तक कि वह वहां की संसद के सामने हाजिर नहीं होता। आज की तारीख में मार्क जकरबर्ग इंग्लैंड से बिलकुल वैसे ही तड़ीपार कर दिया गया है, जैसे अपने यहां कभी अमित शाह को गुजरात से तड़ीपार किया गया था
फेसबुक ने इस बार की यह चोरी तो घोषित कर दी, लेकिन जो चोरी वह चौबीसों घंटे कर रहा है, उसे वह छुपाने की पूरी कोशिश करता रहा है। जिस चोरी को वह छुपाने की कोशिश करता रहा है, वह कैंब्रिज एनालिटिका और अब की हुई चोरी से भी कहीं बड़ी चोरी है। मैंने पहले ही बताया कि फेसबुक हमारा दिमाग पढ़ता है। हम पर्सनली क्या बातें करते हैं, हर एक चीज वह पढ़ता है। ऐसा वह सिर्फ फेसबुक पर ही नहीं करता, बल्कि व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर भी करता है। यह सारी जानकारियां वह इन तीनों माध्यमों यानी कि व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर विज्ञापन देने वालों को बेचता है। अमेरिकी संसद में यह सवाल उठा तो मार्क जकरबर्ग ने जवाब दिया कि वह यह जानकारियां सीधे सीधे नहीं बेचता। बल्कि लोग अपनी पसंद उसे बताते हैं, जिसके हिसाब से वह इन जानकारियों में उनकी पसंद की चीजें खंगालता है और सीधे वहीं पर उनका विज्ञापन दिखाता है, जहां लोग उसे देखना चाहते हैं। लेकिन जो लोग फेसबुक पर विज्ञापन का काम करते हैं, वह जानते हैं कि मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। विज्ञापन देने वालों को फेसबुक इसके अलावा भी ऐसा बहुत कुछ बताता है जो कि पूरी तरह से गैरकानूनी है। अमेरिकी संसद ने फेसबुक की इस हरकत पर कड़ी नाराजगी भी जताई है, इसके बावजूद उसका खुला खेल फर्रुखाबादी चालू है।
गिज्मोडो डॉट कॉम ने खुलासा किया है कि फेसबुक विज्ञापनों पर रिसर्च करने वालों ने पाया है कि फेसबुक हमारा बेहद संवेदनशील डाटा ही नहीं बेच रहा है, बल्कि वह हमारे मोबाइल नंबरों के साथ+साथ हमारे जानने वालों के भी मोबाइल नंबर विज्ञापन देने वालों को बेच रहा है। इसके अलावा नंबरों से ही जुड़ा एक और खुलासा किया है। अक्सर लोग अपना मोबाइल नंबर बदलते रहते हैं। अपने यहां जिस तरह से कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम है, लोगों की मजबूरी बन जाती है कि वह किसी और कंपनी का नंबर लेकर अपना काम चलाएं। दुनिया के दूसरे देशों में भी कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम खूब है। ऐसे देशों में भारत, पाकिस्तान, कंबोडिया, श्रीलंका, पोलैंड, इजरायल, लेबनान सहित थोड़ा बहुत अमेरिका भी शामिल है। इन सभी देशों में इस प्रॉब्लम के चलते लोगों को अपना मोबाइल नंबर बदलना पड़ता है, वरना वह बात ही नहीं कर पाते हैं। अब सवाल उठता है कि जब हम नंबर बदलते हैं तो हमारे पुराने नंबर का क्या होता है? जाहिर सी बात है कि कंपनियां वह नंबर किसी दूसरे को बेच देती हैं। अब जैसे मैंने अपना मोबाइल नंबर बदला और फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया कि अब मेरा ये वाला पुराना नंबर नहीं है बल्कि ये मेरा नया नंबर है। वहीं से फेसबुक पुराना वाला नंबर ट्रेस कर लेता है और विज्ञापन देने वाले चुनिंदा लोगों को बता देता है कि मेरा पुराना नंबर किसी नए आदमी के पास है। नया आदमी अपना नया नंबर अपनी फेसबुक प्रोफाइल से कनेक्ट करता है और फेसबुक उसकी सारी रुचियां जानकर विज्ञापन देने वाली उन्हीं चुनिंदा कंपिनयों को बता देता है। इस तरह से जो कोई भी नया नंबर लेता है, उसके नंबर पर तरह तरह की स्पैमिंग शुरू हो जाती है।
कुल मिलाकर बात इतनी है कि फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर आप चाहे जो करें, भले ही वह सबके सामने हो या इनबॉक्स की चैटिंग हो, फेसबुक वह सबकुछ रिकॉर्ड कर रहा है। यह सारी रिकॉर्डिंग वह विज्ञापन देने वालों को बेच रहा है। काफी कड़ाई से हुई पूछताछ में फेसबुक ने अमेरिकी संसद के सामने यह बात मानी है, लेकिन साजिशन यह बात उसने दुनिया के सामने नहीं आने दी है।
वैसे कई बार फेसबुक से पूछा गया कि वह अपनी ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट में काम करने वालों की संख्या बता दे, लेकिन उसने कभी नहीं बताया। लेकिन फेसबुक के ऑफिस में खुद उसके कर्मचारी कंपनी की नीतियों से परेशान हैं तो वह गाहे बगाहे मुंह खोल देते हैं। ऐसे ही फेसबुक के एक एग्जीक्यूटिव ने नाम सामने न आने देने की शर्त पर बताया चुनावों के वक्त जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट काम करना शुरू करती है तो इसमें कंपनी के लीगल, सूचना सीक्योरिटी और पॉलिसी टीम से सैकड़ों लोगों का ट्रांसफर कर दिया जाता है। चुनाव भर ये सब इस यूनिट में काम करते हैं और चुनाव के बाद वापस इन्हें इनके विभागों में ट्रांसफर कर दिया जाता है। चुनावों में जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए इकट्ठा होती है तो केटी हरबाथ की टीम फेसबुक के विज्ञापन और सेल्स विभाग के साथ ही बैठने लगती है। विज्ञापन और सेल्स विभाग के लोग फेसबुक समर्थित उम्मीदवार के लिए अधिक से अधिक रिजल्ट लाने में पूरी मदद करते हैं। ये सब लोग मिलकर नेताओं को इस बात की ट्रेनिंग देते हैं कि वह किस तरह से अपना विज्ञापन तैयार करें कि जिससे अधिक से अधिक लोग उल्लू बनें। या फिर कैसे फेसबुक का वह नीला निशान चुटकी बजाते ही हासिल करें, जिसे कोई भी आसानी से नहीं पा सकता। या फिर वे किस तरह के वीडियो बनाएं कि जिसे देखते ही हमारे आपके जैसे वोटर्स उल्लू बन जाएं। और फिर जैसे ही फेसबुक समर्थित उम्मीदवार जीतता है, केटी हरबाथ अपनी टीम लेकर उसकी चौखट पर पहुंच जाती हैं और तुरंत सरकारी अधिकारियों के बीच अपनी पैठ बनाने लगती हैं ताकि आने वाले दिनों में वे और उनकी टीम मार्क जकरबर्ग के लिए और भी अधिक कानून तोड़ सके और किसी भी देश के नियम कायदों को ठेंगा दिखा सके।
इसी तरह से फेसबुक की इस यूनिट ने सन 2015 में स्कॉटिश नेशनल पार्टी को जीतने में न सिर्फ मदद की, बल्कि अपनी कॉरपोरेट वेबसाइट पर बेशर्म अदाबाजी के साथ इसकी सक्सेस स्टोरी भी पब्लिश कर रखी है। और तो और, जो लोग इंग्लैंड छोड़कर स्कॉटलैंड नहीं जाना चाहते थे, उन्होंने भी फेसबुक की यह बदमाशी खुलेआम देखी।
पिछले साल यानी कि 2017 के अप्रैल में वियतनाम के अधिकारियों ने सीना ठोंककर कहा कि फेसबुक ने उनके लिए बाकायदा अलग से ऐसा चैनल तैयार किया है, जिससे कि वे सरकार की आलोचना करने वालों का मुंह बंद कर सकते हैं। कुछ दिन पहले स्क्रॉल डॉट इन ने खबर छापी थी कि भारत सरकार के दर्जनों विभाग हम लोगों के सोशल मीडिया पर गहरी निगाह रख रहे हैं। वैसे एक बात और है। फेसबुक पर अगर कोई भारत का कानून तोड़ने वाली पोस्ट अपडेट करता है तो भले वह भारत से हट जाती है, लेकिन बाकी दुनिया में वह दिखाई देती है। ऐसा फेसबुक दुनिया के हर देश में करता है और कानून की खुलेआम खिल्ली उड़ाता है। यह समस्या और भी गहरी हो जाती है, जब हमें पता चलता है कि दुनिया भर में फैले फेसबुक के दफ्तरों में पहले कभी जो लोकतांत्रिक माहौल था, अब वह पूरी तरह से तानाशाही में बदल चुका है। अमेरिका के राजनीतिक और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था फ्रीडम हाउस ने 2017 के नवंबर में रिपोर्ट जारी करके बताया था कि कैसे दुनिया भर में ऐसे देशों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो सोशल मीडिया का प्रयोग लोकतंत्र को गड्ढे में धकेलने के लिए करते हैं। फ्रीडम हाउस ने इसमें सबसे बड़ा उदाहरण पैट्रियॉटिक ट्रॉलिंग का दिया था। पैट्रियॉटिक ट्रॉलिंग यानि कि देशभक्तों की ट्रॉलिंग। राष्ट्रवादियों की ट्रॉलिंग। ऐसे लोग जो देश या राष्ट्र के नाम पर किसी को भी मा बहन की गालियां देने लगते हैं, किसी को भी बलात्कार की धमकी देने लगते हैं या किसी को सरेआम कुल्हाड़ी से काट डालते हैं या गाय के नाम पर इंसान का बीफ बना देते हैं, ये सभी पैट्रियॉटिक ट्रॉलर्स होते हैं। इनका काम असहमतियों को कुचलना होता है और जो असहमत हैं, उन्हें किसी भी तरह से देशद्रोही साबित करना होता है।
फेसबुक के अंदर उसके एग्जीक्यूटिव्स हमेशा इस तरह के लोगों को बचाने में लगे रहते हैं, ताकि वे धड़ल्ले से नफरत फैलाने वाली बातें फैला सकें। वैसे दुनिया को दिखाने के लिए फेसबुक कभी कभार, बोले तो सौ में से प्वाइंट पांच पर्सेंट बार नफरत फैलाने वालों पर रोक भी लगता है। मसलन वह ग्रीस की अल्ट्रा नेशनलिस्ट पार्टी गोल्डेन डॉन की एकाध पोस्ट कभी बैन कर देता है तो कभी अमेरिका में सफेद चमड़ी वाले नफरती चिंटुओं की पोस्ट बैन करता है तो कभी मिडल ईस्ट में आईसिस यानी कि आईएसआईएस की पोस्ट बैन करता है। लेकिन सौ में से मुश्किल से प्वाइंट पांच पर्सेंट या फिर उससे भी कम। आईएसआईएस के साथ गांठ जोड़कर काम करने के चलते यूरोपियन यूनियन में भी फेसबुक पर मुकदमा चल रहा है और कड़ी जांच हो रही है। फेसबुक के डाटा का गलत प्रयोग और अवैध राजनीतिक गठजोड़ कंक्रीट की तरह मजबूत हो चुका है। सन 2007 में हमने बराक ओबामा को अमेरिका का पहला फेसबुकिया राष्ट्रपति बनते देखा था। इसी साल फेसबुक ने वॉशिंटन में अपना पहला ऑफिस खोला था। ओबामा ने तब अपने वोटरों को रिझाने और भरमाने के लिए फेसबुक की मदद ली थी। सन 2010 से लेकर 2011 के बीच में मिडल ईस्ट में फेसबुक यूजर्स कई गुना बढ़ गए और हमने पाया कि ये वही वक्त था जब मिडल ईस्ट में इस्लामिक स्टेट यानी कि आईएसआईएस और उसके भाई बंधु तेजी से अपना कद बढ़ा रहे थे।
सन 2014 के पहले तक अपने यहां जो चुनाव होते थे, वह लगभग पहले की तरह सामान्य रूप से हुआ करते थे। लेकिन सन 2014 में जबसे मार्क जकरबर्ग ने ट्रंप के दाहिने हाथ कहे जाने वाले रूडी जुलियानी की खासमखास केटी हरबाथ तो नौकरी पर रखा और उसे इस यूनिट की जिम्मेदारी दी, तबसे चुनाव सोशल मीडिया पर लड़े जाने लगे हैं। दुनिया में होने वाले बड़े से बड़े आयोजनों से कहीं ज्यादा और कई गुना कमाई फेसबुक इन चुनावों से कर रहा है। जैसे कि अर्जेंटीना में सन 2015 के चुनाव में मॉरिसियो मैक्री ने अपनी रैलियां फेसबुक पर लाइव दिखाईं और जब वे वहां के राष्ट्रपति बने तो अपना पूरा मंत्रिमंडल ही हंसती-गाती, आंख मारती इमोजीज के साथ फेसबुक पर उतार दिया। 2015 में ही पोलैंड के राष्ट्रवादी राष्ट्रपति आंद्रेज डूडा दुनिया के पहले ऐसे नेता बने जिन्होंने अपना शपथ ग्रहण समारोह ही पूरी दुनिया को फेसबुक पर लाइव दिखाया। आंद्रेज डूडा साहब ने पोलैंड में प्रेस की आजादी की जमकर वाट लगाई है। पूरी बेशर्मी से फेसबुक अपनी कॉरपोरेट वेबसाइट पर यह कहता भी है कि वह चुनावों में होने वाली जीतों का स्थाई और ठोस हिस्सा है।
अमेरिका के बाद फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार भारत है। यहां इसके यूजर्स अमेरिका की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। इसमें फेसबुक के दूसरे प्रोडक्ट व्हाट्सएप्प के दो सौ मिलियन से भी अधिक यूजर्स शामिल नहीं हैं। व्हाट्सएप्प पर जितने यूजर्स अपने यहां हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं। प्रतिष्ठित मीडिया हाउस ब्लूमबर्ग ने खुलासा किया है कि सन 2014 के चुनावामें में फेसबुक नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के साथ महीनों सिर जोड़कर काम करता रहा था। इन तीनों ने मिलकर फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर काम करने के लिए आईटी सेल बनाई जिसका काम सोशल मीडिया पर तरह तरह की अफवाहें फैलाना है। आपको याद होगा कि इसका बड़ी जोर शोर से प्रचार भी किया गया था कि इस आईटी सेल में इंडियन इंस्टीट्यूट और टेक्नोलॉजी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से काफी लोगों की भर्ती की गई थी। यानि कि हमारे देश में जो कुछ भी सड़ा गला लोकतंत्र बाकी थी, इन्हीं आईआईटी और आईआईएम वालों ने उसे खत्म करने में काफी बड़ी भूमिका निभाई है। पता नहीं हम लोग किस मन से इन इंस्टीट्यूट में पढ़ने वालों पर गर्व करते हैं, जबकि दुनिया भर के शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग में ये नाखून बराबर भी औकात नहीं रखते। सन 2014 में जब नरेंद्र मोदी चुनाव जीते थे, तब फेसबुक पर फॉलोअर्स की संख्या 14 मिलियन के आसपास थी। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यह संख्या अब 43 मिलियन फॉलोअर्स तक पहुंच गई है। यानी कि ट्रंप से भी दोगुनी। यह सब यूं ही नहीं हो गया। आपको याद होगा कि नरेंद्र मोदी सन 2014 में जब फेसबुक के इसी फर्जीपने के चलते चुनाव जीते थे तो जकरबर्ग अपनी चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर शेरिल सैंडबर्ग को लेकर महज कुछ ही हफ्ते में उनसे मिलने पहुंच गया था। यह दोनों तो तब अपना फ्री बेसिक्स का ठगी का ठेला लेकर पहुंचे थे। फ्री बेसिक्स के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी को वक्त रहते हम लोग पहचान गए और नरेंद्र मोदी को न चाहते हुए भी अंबानी और मार्क जकरबर्ग के उस मनचाहे गठजोड़ से हाथ जोड़ना पड़ा था, लेकिन उसी वक्त मार्क जकरबर्ग के साथ पहुंची कैटी हरबाथ ने तब सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए एक के बाद एक लगातार कई सारे ट्रेनिंग कैंप लगाए थे। इसमें उन्होंने छह हजार सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को इस बात की ट्रेनिंग दी थी कि कैसे नरेंद्र मोदी के झूठ को सच बनाकर या उनके मन की बात बनाकर हम लोगों के सामने परोसा जाए।
सन 2014 के बाद जबसे नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया रीच बड़ी है, उनकी ट्रॉल आर्मी फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लगातार हैरेस करने वाली कैंपेन चला रही है। सन 2014 के बाद से ही भारत पूरी दुनिया में फेक न्यूज और अफवाहों का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है। इन अफवाहों और फेक न्यूज के चलते कहीं पर लोग गाय के नाम पर पीट पीटकर जान से मार दिए जा रहे हैं तो कहीं बच्चा चोरी के नाम पर तो कहीं डायन होने के नाम पर तो कहीं सिर्फ मुसलमान होने के नाम पर मार दिए जा रहे हैं। रॉयटर्स की रिपोर्ट है कि सन 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के महज छह महीने के अंदर गाय के नाम पर होने वाली हत्यायों में सीधे सीधे 75 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बॉबी घोष ने जब मॉब लिंचिंग मीटर तैयार किया तो नरेंद्र मोदी ने उन्हें नौकरी से बाहर करा दिया। हिंदुस्तान टाइम्स की मालिका शोभना भरतिया ने अमित शाह और नरेंद्र मोदी के कहने पर बॉबी घोष को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया और बॉबी को इस्तीफा देना पड़ा। महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक इन अफवाहों और फेक न्यूज का जाल ऐसा फैला कि एक दो नहीं, सात-सात लोग एक साथ पीट-पीटकर जान से मारे जाने लगे। कई पत्रकारों की हत्या कर दी गई। और यह सब सोशल मीडिया पर बाकायदा धमकी देकर किया गया और नरेंद्र मोदी के उन्हीं समर्थकों ने किया, जिन्हें फिलहाल एनआईए से लेकर सीबीआई तक से हर तरह का अपराध करके छूट जाने की छूट मिली हुई है। मसलन पिछले साल यानी 2017 के सितंबर की पांचवीं तारीख को बेंगलुरु में रहने वाली पत्रकार गौरी लंकेश जब अपने घर का दरवाजा बंद कर रही थीं, नरेंद्र मोदी के समर्थकों ने खुलेआम उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। गौरी लंकेश काफी समय से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की फेसबुक समर्थित ट्रॉल आर्मी का निशाना बनी हुई थीं। यह ट्रॉल आर्मी एक महिला को भद्दी से भद्दी गालियां दे रही थी, बलात्कार की धमकियां दे रही थी, जान से मारने की और लाश घसीटने की धमकियां दे रही थी और फेसबुक की केटी हरबाथ इन धमकियों से आनंदित हो रही थीं। मरने से पहले गौरी लंकेश ने अपने अखबार के लिए जो आखिरी संपादकीय लिखा था, उसकी हेडिंग थी- झूठी खबरों के इस युग में। इस संपादकीय में उन्होंने बताया था कि किस तरह से सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा अफवाह और झूठ का प्रोपेगेंडा हमारे राजनीतिक वातावरण को जहरीला कर रहा है।
कई बार आपने देखा होगा कि जो लोग फेसबुक पर गाली गलौज करते हैं, अश्लील हरकतें करते हैं, कितनी बार भी आप उनकी रिपोर्ट कर दें, फिर भी वो यह सब करते रहते हैं। कई बार तो कई कई बार उनकी रिपोर्ट करने के बावजूद वो दुगनी बेशर्मी से यह सब करने में लग जाते हैं और हम सब यूं ही गालियां खाते रह जाते हैं। लेकिन अगर हमने बगैर गाली दिए, या बगैर कोई गलत शब्द कहे उन्हें कुछ कह दिया तो उल्टे हमीं लोग फेसबुक पर ब्लॉक हो जाते हैं। फेसबुक हमसे कई तरह की आईडी जमा कराता है, कई तरह के पासवर्ड और कई तरह के फॉर्म। तब कहीं जाकर हमारी आईडी खुलती है और हमें उस काम की सजा मिलती है, जो हमने किया ही नहीं। यही चीजें अपने चेहरे का रंग नीले से हरा करते हुए व्हाट्सएप्प पर हमारे सामने होती हैं और अपना चेहरा सफेद करके इंस्टाग्राम पर भी होती हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर एक ट्रॉल आर्मी है जो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन तक के लिए काम करती है। यह ट्रॉल आर्मी हर उस यूजर को, यानी जो कोई भी सोशल मीडिया यूज कर रहा है, अगर वह सत्ता समर्थक नहीं है और विरोध में कानून के दायरे में रहकर कुछ भी कह रहा है या कर रहा है, उसे टारगेट बना लेती है। टारगेट बनाने के बाद यह बेहद बुरी बुरी गालियों के साथ उसपर अटैक करती है और कुल मिलाकर उसकी इज्जत से खिलवाड़ करने में जुट जाती है। जिसे यह गालियां देती है, इसी ट्रॉल आर्मी का एक हिस्सा उसपर फेक यानी कि नकली खबरें तैयार करता है और सोशल मीडिया पर वायरल करता है।
मगर एक मिनट। माफ करिए लेकिन सोशल मीडिया पर चीजों को वायरल करना ट्रॉल आर्मी का काम नहीं है। यह काम है खुद फेसबुक का, खुद मार्क जकरबर्ग का, जिसने इसके लिए अलग से पूरा एक ऑफिस बना रखा है। फेसबुक का यह ऑफिस इस ट्रॉल आर्मी को हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देता है। इसी तकनीकी मदद के बल पर ट्रॉल आर्मी बेखौफ होकर लोगों के साथ गाली गलौज करती है, फेक न्यूज फैलाती है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी यानी कि भारतीय जनता पार्टी की जो ट्रॉल आर्मी है, उसे हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देने के लिए मार्क जकरबर्ग ने अमेरिका के वॉशिंगटन में भरा पूरा ऑफिस खोल रखा है। इस ऑफिस की इंचार्ज हैं केटी हरबाथ।
कैंब्रिज एनालिटिका, व्लादीमीर पुतिन और डॉनल्ड ट्रंप के साथ गैंग बनाकर अमेरिकी चुनाव में वोटर्स के साथ खेल करते हुए फेसबुक के मार्क जकरबर्ग जब रंगे हाथों पकड़े गए तो कहने लगे कि फेसबुक का किसी के भी साथ भी किसी तरह का कोई राजनीतिक गठजोड़ नहीं हैं। फेसबुक अपने सभी यूजर्स को राजनीति का बराबर मौका देता है। लेकिन मार्क जकरबर्ग बड़ी चालाकी से यह छुपा गए कि उनकी कंपनी दुनिया भर की राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती है। और जिनके साथ वह काम करती है, हम सभी जानते हैं कि उनके पास मौजूद ट्रॉल आर्मी किस तरह की फेक न्यूज फैलाती है और किस तरह का जहर लोगों के दिमाग में भर रही है। इतना ही नहीं, कंपनी बाकायदा अपने बिजनेस पेज पर इसका प्रचार प्रसार भी करती है कि वह कैसे लोगों को लांच कराती है या प्रोडक्ट लांच कराती है। या फिर कैसे फटाफट वह ब्लू मार्क दिलाती है। आप फेसबुक पर सालों टिक टुक करते रह जाएंगे, आपको यह कभी नहीं मिलेगा, लेकिन अगर आपके मोहल्ले का सभासद बीजेपी से होगा तो वह दो चार दिन में ये ब्लू मार्क लेकर के मोहल्ले के ही ग्रुपों में रौब गांठता फिरेगा।
तो फेसबुक के जिस नंगेपन के बारे में मार्क जकरबर्ग ने पूरी बेशर्मी से पर्दा डाला, वह है फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट। फेसबुक के बिजनेस पेज पर दावा है कि यह पूरी तरह से न्यूट्रल है और उन सभी के साथ मिलकर काम करती है जो पॉवर यानी कि शक्ति यानी कि बेइंतिहा ताकत के तलबगार हैं। मगर सिर्फ तलबगार होने से काम कैसे चलेगा? पीछे अंबानी जी और अडानी जी भी तो चाहिए होते हैं। अमेरिका हुआ तो पीछे टॉमी हिलफिगर जी चाहिए होते हैं, या पाकिस्तान हुआ तो? इमरान खान ने किसके बल पर छक्का मारा है, आप बताइए, ये आपके सामान्य ज्ञान का बड़ा ही सामान्य सा टेस्ट है। बहरहाल, इस फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम की हेड हैं केटी हरबाथ। केटी हरबाथ पहले अमेरिकी रिपब्लिक पार्टी की डिजिटल रणनीति बनाती थीं। कभी न्यूयॉर्क के मेयर रहे और अब ट्रंप के खासमखास बने रूडी जुलियानी के लिए इन्होंने सन 2008 में प्रेसीडेंसियल कैंपेन चलाई थी। सन 2014 में मार्क जकरबर्ग ने इन्हें अपने यहां नौकरी पर रख लिया और फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम का चीफ बना दिया। तब से केटी हरबाथ अपनी टीम के चुनिंदा लोगों के साथ दुनिया भर के नेताओं से मिलकर शातिर गठजोड़ बनाने में लगी हैं। ऊपरी तौर पर उनका दावा है कि वह अपने पॉलिटिकल क्लाइंट्स को कंपनी के पॉवरफुल डिजिटल टूल्स का इस्तेमाल करना सिखाती हैं।
केटी हरबाथ के कनेक्शन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, न्याय और सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद से तो हैं ही, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के चीफ सहित वहां के और दूसरे मंत्रालयों के छह हजार दूसरे अधिकारियों से भी हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में, चाहे वह भारत हो या ब्राजील, जर्मनी हो या ब्रिटेन, केटी हरबाथ जैसे ही किसी नेता के साथ चुनावी कॉन्ट्रैक्ट साइन करती हैं, उनकी टीम के लोग उस नेता के साथ उसके कैंपेन वर्कर्स की तरह जुड़ जाते हैं। वे उस नेता के लिए हर तरह का कानूनी और गैरकानूनी काम करते हैं। ज्यादातर तो वे गैरकानूनी काम ही करते हैं जिसपर पर्दा नेता के चुनाव जीतने के बाद उसके देश के सरकारी अधिकारी ही डाल देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जैसे ही फेसबुक समर्थित नेता चुनाव जीतता है, केटी हरबाथ की टीम तुरंत उसके पास पहुंचकर उसके सरकारी कर्मचारियों को हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देना शुरू कर देती है। जैसे कि जब नेता जी मन की बात करें तो कर्मचारियों को क्या करना है। जैसे कि जब नेता जी मन की बात कहें तो कर्मचारियों या अधिकारियों को क्या कहना है। और जैसे कि जब नेता जी के मन की बात का झूठ पकड़ा जाए तो अधिकारियों को फटाफट लीपापोती कैसे करनी है।
अमेरिका के चुनाव में रूसी राष्ट्रपति पुतिन और कैंब्रिज एनालिटिका के साथ गैंग बनाकर साजिश करने के आरोप में जब फेसबुक पकड़ा गया तो अमेरिकी संसद ने मार्क से पूछा कि बताओ भैया, जब अमेरिका में चुनाव हो रहा था तो तुम्हारे खाते में रूस से इतना ढेर सारा पैसा कहां से आया? आपको बता दें कि अमेरिकी चुनाव के वक्त रूसी विज्ञापनों से फेसबुक की इनकम में दो चार दस या बीस नहीं, सीधे सेवेंटी नाइन पर्सेंट का इजाफा हुआ था और इस इजाफे की एकमात्र वजह रूस से मिलने वाले विज्ञापन थे। यह विज्ञापन अमेरिकी नामों से चलाए जा रहे थे। न्यूयॉर्क टाइम्स ने ऐसे दर्जनों फर्जी विज्ञापन पकड़े हैं जो ट्रंप को जिताने से लेकर जनता को भरमाने का काम पूरे धड़ल्ले से कर रहे थे। मार्क जकरबर्ग ने अभी इन विज्ञापनों से मिलने वाले पैसे का न तो हिसाब दिया है और न ही अमेरिकी संसद के इस सवाल का जवाब दिया है कि इतना ढेर सारा पैसा उनकी जेब में आखिर आया कहां से? उल्टे वह तो इस कोशिश में ही लगे रहे कि कैसे भी करके इस मामले पर पर्दा डाल दिया जाए। हमारे न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद फेसबुक को बड़ी मीठी मीठी धमकियां देते हैं, पर क्या कभी किसी ने सुना कि सन 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने फेसबुक को कितना पैसा दिया? कभी मार्क जकरबर्ग का कान पकड़कर कोर्ट के कटघरे में खड़ा करके किसी ने उस तरह से पूछने की हिम्मत की जैसे अमेरिकी संसद ने इस धोखेबाज को इन दिनों घुटने पर बैठा रखा है? वैसे अपने लालाजी ऐसी हिम्मत करेंगे ही क्यों जब केटी हरबाथ जब चाहें, उनके बगल आ बैठती हैं
और उन्हें 2019 के चुनावों में जीतने का सब्जबाग दिखाने लगती हैं। इसी साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के हर सांसद से कहा है कि हर एक सांसद के फेसबुक पेज को कम से कम तीन लाख जेनुइन लाइक्स करने वाले होने चाहिए वरना टिकट मिलना मुश्किल है। यह बयान भले ही हमारे मोदी जी के मुखारबिंद से निकला है, लेकिन सप्लाई फेसबुक की ओर से ही हुआ है। फेसबुक का पेज लाइक रेट पर लाइक अस्सी पैसे से ढाई रुपये के बीच बैठता है। सन 2014 के इलेक्शन में बीजेपी के 355 उम्मीदवार सांसद बने थे। मोदी का यह आदेश चुनाव के चार साल बाद का है। चुनाव के बाद रकम कम लगती है, और चार साल बाद तो और भी कम रकम लगती है, इसलिए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि चुनाव के वक्त बीजेपी ने फेसबुक को कितने पैसे दिए होंगे। अंदाजा ही लगाना पड़ेगा क्योंकि आप चाहे जितने घोड़े दौड़ा लें, बीजेपी आपको चुनावी खर्च का असल ब्योरा नहीं देगी। और फिर ये अमेरिका भी नहीं कि वहां की तरह यहां भी जो चाहे, सबूतों के साथ राष्ट्रपति हो या प्रधानमंत्री, उसे कटघरे में लाकर खड़ा कर दे। जस्टिस बृज गोपाल लोया की हत्या के मामले में हम सबने देखा कि कैसे सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक गुजराती तड़ीपार को बचाने के लिए खड़ा हो गया था। अपने देश में हमारी औकात इतनी भी नहीं है कि हम अपने एक जज की हत्या की सिर्फ जांच करा सकें, उसके हत्यारों को सजा दिलाना तो बहुत दूर की बात है।
कभी फेसबुक की इसी फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम में काम करने वाली एलिजाबेथ लिंडर बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक कैंपेन से जुड़ना कम से कम फेसबुक का काम तो नहीं ही है। एलिजाबेथ ने सन 2016 में फेसबुक की इसी यूनिट के साथ यूरोप, मिडल ईस्ट और अफ्रीका में काम किया है। पहले पहल तो एलिजाबेथ अपने काम को लेकर बहुत एक्साइटेड थीं, लेकिन जब उन्होंने इस टीम की गैरकानूनी और लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंचाने वाली हरकतों को अपनी आंख के सामने होते देखा तो उन्होंने वहां से नौकरी छोड़ दी। अमेरिका में तो अब सब जान गए हैं कि फेसबुक की इस अवैध टीम ने किस तरह से डॉनल्ड ट्रंप को चुनाव जीतने में मदद की। वैसे इस टीम ने हिलेरी क्लिंटन को भी ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेस में से एक ब्लूमबर्ग बताता है कि इसी टीम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फेसबुक पर स्टैब्लिश किया। इसी यूनिट ने नरेंद्र मोदी के फेसबुक पेज में इतने फॉलोवर्स जोड़ दिए, जितने कि दुनिया के किसी भी नेता के पास नहीं हैं। यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के पास भी नहीं हैं। यह इस यूनिट का ही काम है कि जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पेज को लाइक नहीं भी किया, उसकी आईडी से चुपके से इस पेज को लाइक करा दिया गया। ऐसे ही फिलीपींस के हत्यारे तानाशाह रोड्रिगो दुत्रेते के लिए भी इसी यूनिट ने काम किया। जर्मनी में इस यूनिट ने अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी पार्टी की भरपूर मदद की और इसे वहां से पहला चुनाव बंडेस्टाग से जितवाया। यह वही पार्टी है जो जर्मनी में शरणार्थियों के खिलाफ क्रिमिनल कैंपेनिंग करती रही है।
वैसे फेसबुक का कहना है कि वह हर तरह से सभी लोगों के लिए खुला प्लेटफॉर्म है और जो चाहे इसका यूज कर सकता है। फेसबुक तो बस उसे पैसे देने वालों को इतना बताता है कि उसकी तकनीक का प्रयोग कैसे करना है, न कि वह ये बताता है कि फेसबुक पर आकर कहना क्या है। इस मामले में हमने जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट की हेड केटी हरबाथ को ईमेल लिखकर पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें गर्व है कि वह दुनिया के ऐसे हजारों नेताओं के साथ काम करती हैं जो चुनाव जीत चुके हैं और उनके सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को ट्रेनिंग देती हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि कंपनी अब इस काम में आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस का प्रयोग कर रही है। बहाना बनाया कि कंपनी हेट स्पीच और धमकियों को रोक रही है। बीजेपी का पैसा खाकर केटी की कंपनी यानी कि फेसबुक की सारी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस डकार लेकर सो जाती है और हमारे यहां कोई शंभू रैगर हिंदुत्व के नाम पर कुल्हाड़ी से बेगुनाह इंसान को काटते हुए बेरोकटोक फेसबुक लाइव करता है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं न कहीं से उसे भी इसी फेसबुक की ऑफिशियल ट्रॉल आर्मी का समर्थन मिला हुआ है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की आईटी सेल उस वीडियो को हाथोंहाथ शेयर करती है और उसपर भी कहीं कोई रोक नहीं लगती तो सिर्फ और सिर्फ केटी की टीम की वजह से। आप अभी चेक करें तो अभी भी फेसबुक पर शंभु रैगर की यह हैवानियत आपको देखने को मिल जाएगी। केटी ने ईमेल के जवाब में यह भी कहा कि उनकी कंपनी अभी इस गठजोड़ को और मजबूत करने में लगी हुई है। यानी आइंदा दिनों में हमें हिंदुत्व के नाम पर होने वाली कई और हत्याओं के फेसबुक लाइव देखने के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए।
कुछ भी नहीं कर पाया मैं
दिन गुजरते रहे
कुछ करने के ख्यालों की तरह
रातें कटती रहीं
कुछ करने के सपनों की तरह
हर सुबह मैंने यही पाया
कि कुछ भी नहीं कर पाया मैं।
न ठीक से प्रेम कर पाया
और न ही ठीक से नफरत
न ठीक से नौकरी की
और न ही ठीक से पैसे कमाए
न ठीक से कभी घर चला पाया
न ही ठीक से कभी गाड़ी चलाई
जब जब चोट लगी, यही याद आया
कुछ भी नहीं कर पाया मैं।
ऐसी कोई रात नहीं गुजरी
कि मैं ठीक से सोया
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा
कि मैं पूरा पूरा जागा
जागती आंखों से देखता रहा सपना
और बंद आंखों में भरता रहा रेत
न ठीक से घर का हो पाया
और न ठीक से बाहर का ही
जब भी कुछ करने का ख्याल आया
कुछ भी नहीं कर पाया मैं।
जैसी चलती है ये दुनिया
जैसी चलती है ये हवा
जैसे फूटती है धूप
जैसे घेरते हैं बादल
कितना तो चाहा
मैं भी चलूं, फूटूं और घेरूं
लेकिन ठीक से नहीं चाह पाया
जब भी बैठना चाहा
बेचैन होकर चलने लगा
जब भी चलना चाहा
हारकर बैठ गया।
दिन गुजरते रहे
रात कटती रही
शाम होती रही
सूरज चांद सब उगे
फूल खिलते रहे
और सबने अपना काम ठीक से किया
मगर मैं रहा कि
कुछ भी ठीक से नहीं किया
न ठीक से सांस ली
न ठीक से एक खबर लिखी
न ठीक से एक फोटो खींची
न ठीक से कोई कहानी बनाई
और तो और
ठीक से कुछ नहीं कर पाया
ये भी ठीक से नहीं बता पाया मैं।
हममें से शायद ही ऐसा कोई होगा, जो बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा के चीख चिल्लाकर लगातार झूठ बोलने की आदत न जानता हो। संबित एक ही झूठ को बार-बार और कुछ एक न्यूज चैनलों को छोड़ तों तो तकरीबन सभी चैनलों पर बैठकर बोलते हैं। उनका झूठ लगभग हर बार पकड़ा जाता है, लेकिन बजाय उससे सीख लेने के, संबित और भी ज्यादा बेशर्मी और दुगने वॉल्यूम से दूसरा झूठ दोहराने लगते हैं।
वहीं अगर बात करें पत्रकार बिरादरी के संबित पात्राओं की तो पांच नाम सबसे पहले आते हैं। पहला नाम है अर्नब गोस्वामी, दूसरा नाम है अर्नब गोस्वामी, तीसरा नाम है अर्नब गोस्वामी, चौथा नाम भी अर्नब गोस्वामी ही है और पांचवे नंबर पर हम सुधीर चौधरी को रख सकते हैं। सुधीर चौधरी को पांचवे नंबर पर इसलिए रखा जा सकता है क्योंकि उनकी कुछ कानूनी मजबूरिया हैं जिन्हें खत्म करने के लिए उनकी गैरकानूनी मजबूरी यह है कि वे सत्ता के तलवे चाटें। मगर एक से लेकर चार तक जिन अर्नब गोस्वामी साहब का नाम रखा गया है, उनकी कोई कानूनी मजबूरी नहीं है। न तो उन्होंने अपनी लाल लैंबोर्गिनी फुटपाथ पर सोते मजदूरों पर चढ़ाई है और न ही किसी जिंदल ने अभी तक उन्हें रिश्वत खाते रंगे हाथों पकड़वाया है। फिर भी अर्नब गोस्वामी पूरी श्रद्धा और लगन से सत्ता के तलवे चाटते हैं जो जाहिर है कि बात किसी मजबूरी से भी कहीं ऊपर की है।
बहरहाल इस बार खबर अपने देश से सात समुंदर पार के उस देश से है, जिसकी हम बेशर्मी की हद तक नकल करते हैं, और अभी तक हर बार ही उतनी ही बेशर्मी से फेल हुए हैं। लेकिन यह खबर बताती है कि बेशर्मी में भी हममें और उनमें हद दर्जे की समानता है।
मशहूर मीडिया मुगल राघव बहल बताते हैं कि आज भी भारत और अमेरिका के राजनीतिक माहौल की सरगर्मियां हैरान करने की हद तक एक जैसी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व वैसे तो बिलकुल अलग हैं- मसलन ट्रंप भद्दे ट्वीट लिखते रहते हैं, जबकि मोदी सोची-समझी रणनीति के तहत खामोशी से काम लेते हैं, लेकिन दोनों नेताओं में जो बात एक जैसी है, वह ये कि दोनों ने दस हजार मील की दूरी पर मौजूद दो बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक जैसा ध्रुवीकरण पैदा कर दिया है। दोनों सबके पास कट्टरपंथी समर्थकों की फौज है, जो लगातार जहर उगलने और विरोधियों को धमकाने का काम करते हैं। बेहद विनम्र आलोचकों को भी गद्दार घोषित कर दिया जाता है। आप या तो उनके प्यादे हो सकते हैं या फिर दुश्मन।
दोनों ही देशों में हाल यह है कि दूसरे देशों से आकर बसे लोग और अल्पसंख्यक डरे-सहमे रहते हैं। दोनों ही नेता अपना सीना ठोककर बड़े-बड़े दावे करते हैं और हर बात का श्रेय खुद को देते हैं, फिर चाहे वो ऊंची आर्थिक विकास दर और शेयर बाजार में उछाल हो या फिर पिछली सरकार का कचरा साफ करने और सत्ता के गलियारों में पसरी गंदगी को बाहर निकालने जैसे दावे। जो भी लोग स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार देते हैं या ऐसी कंपनियां किस्मत से बची रह गई हैं, उनके बारे में उनका मानना है कि झूठी और फर्जी खबरें फैलाने वाली इन तमाम राष्ट्र-विरोधी दुकानों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
लेकिन एक चीज है जो अमेरिका को वाकई अमेरिका बनाती है और भारत को लोकतंत्र की राह में लंगड़ाने को मजबूर कर देती है। भारतीय मीडिया में मोदी सरकार के सामने दर्जनों मीडिया संस्थानों और संपादकों ने कायरता भरा सरेंडर कर दिया है। यहीं लोकतंत्र का चौथा खंबा दरकने लगता है और लोकतंत्र यानी कि डेमोक्रेसी लंगड़ी हो जाती है। लेकिन अमेरिका के समाचार संस्थान ट्रंप को डटकर जवाब देने का दमखम और साहस दिखा रहे हैं। हाल ही में बोस्टन ग्लोब अखबार की पहल पर अमेरिका के तीन सौ अखबारों ने ट्रंप के खिलाफ संपादकीय लिखे। अपने यहां किसी को याद हो तो वह बताए कि किसी अखबार ने मोदी सरकार की सीधी आलोचना कब की थी? इस मामले में मेरे तथ्य थोड़े कम और थोड़े कमजोर पड़ रहे हैं, शायद आप लोग मुझे कुछ आंख खोलने वाले तथ्य दे सकें।
लेकिन बात हो रही है अमेरिका के संबित पात्राओं, अर्नब गोस्वामियों और सुधीर चौधरियों की। पहले तो जान लें कि कौन से चैनल अमेरिका के रिपब्लिक टीवी हैं और कौन से जी न्यूज। अमेरिका का फॉक्स न्यूज वहां का रिपब्लिक टीवी है। पत्रकारिता के नाम पर मैला परोसने वाला फॉक्स न्यूज अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का पसंदीदा चैनल है और गाहे बगाहे ट्रंप इसकी तारीफों का पहाड़ खड़ा करते नजर आते हैं।
पहले नंबर पर आते हैं अमेरिका के उपराष्ट्रपति माइक पेंस। अबॉर्शन अपने यहां कोई खास मुद्दा नहीं माना जाता, मगर ईसाइयत में यह बड़ा मुद्दा है। हम सभी जानते हैं कि अबॉर्शन कोई मन से नहीं, बल्कि मजबूरी में कराता है। मसलन गर्भवती महिला की जान को खतरा हो, बच्चा पेट में मर गया हो या ऐसी कई बातें, जिन्हें डॉक्टर अच्छे से बता पाएंगे। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चुनाव में मुद्दा ही यही रखा कि अबॉर्शन कराने वाली महिलाओं को सजा दी जाएगी। उनके चेले माइक पेंस भी जब इंडियाना में गर्वनर थे, तब उन्होंने गर्भपात विरोधी बिल पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें विकलांगता, लिंग या फिर भ्रूण की नस्ल के आधार पर गर्भपात पर भी रोक लगाई गई थी। जब वह उपराष्ट्रपति बने तो पूरे अमेरिका से लोगों ने उनके विरोधस्वरूप गैर सरकारी संस्था प्लैंड पेरेंटहुड को उनके नाम पर चंदा दिया और हर बार उसकी रसीद माइक पेंस को भेजी। प्लैंड पेरेंटहुड अमेरिका में अबॉर्शन के लिए मदद देने वाली सबसे बड़ी संस्था है। लोगों को उम्मीद थी कि माइक पेंस को शायद इससे कुछ शर्म आए, लेकिन बेशर्मी में वह ट्रंप को टक्कर देते दिखाई देते हैं। संबित पात्रा को माइक पेंस से बेशर्मी की क्लास लेनी चाहिए।
वहीं अर्नब गोस्वामी का रोल अमेरिका में एक महिला ने संभाल रखा है। इनका नाम है जीनी फेरिस पिरो। जीनी फेरिस पिरो फॉक्स न्यूज पर आने वाले वीकेंड शो "जस्टिस विद जज जीनी" की होस्ट हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में वो वेस्टचेस्टर काउंटी कोर्ट की जज रह चुकी हैं और रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति में भी सक्रिय रही हैं। उनके पति को (जिनसे बाद में उनका तलाक हो गया) टैक्स फ्रॉड का दोषी पाए जाने पर 29 महीने की जेल हो चुकी है। जीनी पिरो 2005 में न्यूयॉर्क सीनेटर के चुनाव के दौरान हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ उम्मीदवार घोषित होने के बेहद करीब तक पहुंच गई थीं. उस वक्त रियल एस्टेट कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप (और टॉमी हिलफिगर) ने उनके कैंपेन के लिए फंड भी दिया था। जीनी पिरो में हम संबित पात्रा, अरनब गोस्वामी और कभी कभार सुधीर चौधरी को भी देख सकते हैं। टॉमी हिलफिगर को हम दूसरा संबित पात्रा भी मान सकते हैं और चाहें तो दूसरा अडानी भी। इन्होंने ट्रंप को चुनाव जितवाने के लिए दिल खोलकर पैसा लुटाया था।
जीनी फेरिस पिरो ने बाद में न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर लिस्ट में नंबर वन रही अपनी किताब “लायर्स, लीकर्स एंड लिबरल्स : द केस अगेंस्ट द एंटी-ट्रंप कॉन्सपिरेसी” में ट्रंप का पूरी ताकत से बचाव किया। जीनी पिरो एक बेहूदी और बेशर्म पोस्ट-ट्रुथ एक्टिविस्ट हैं, जो ये दावा कर चुकी हैं कि अबु बकर अल बगदादी को “ओबामा ने 2009 में कैद से रिहा कर दिया था”।
जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ उस "शर्मनाक" प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए ट्रंप की चौतरफा आलोचना हुई, तो पिरो ने उनके बचाव में कूदते हुए उलटा सवाल दाग दिया, "तो उन्हें क्या करना चाहिए था? क्या वो बंदूक लेकर पुतिन को गोली मार देते?" कुछ लोगों का तो यहां तक कयास है कि ट्रंप जेफ सेशन्स को हटाकर पिरो को अटॉर्नी जनरल भी बना सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे अपने यहां संबित पात्रा को झूठ बोलने के लिए मोदी जी ने ओएनजीसी का डायरेक्टर बना रखा है। ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि पिरो सेशन्स को "अमेरिका का सबसे खतरनाक आदमी" कह चुकी हैं।
इसी अगस्त में एक शनिवार जीनी पिरो ने रॉबर्ट म्यूलर पर बेहद एकतरफा और पक्षपातपूर्ण शो टेलीकास्ट किया, जिसे देखकर अर्नब गोस्वामी चीखने चिल्लाने की ट्रेनिंग लेते हैं। आपको बता दें कि रॉबर्ट म्यूलर वही हैं जो किसी तरह के दबाव में झुके बगैर दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी यानी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ जांच कर रहे हैं। अपने इस शो में पिरो ने कहा, "जब बात बुरी तरह बिगड़ जाती है और क्राइम सीन से सारे सबूत मिटाने होते हैं तो माफिया डॉन क्लीनर को बुलाता है, जो मारे गए व्यक्ति के शव को ठिकाने लगाता है या अपराध के बाद सबूतों को छिपाने का काम करता है। और जब डेमोक्रेट्स के लिए हालात पूरी तरह बिगड़ जाते हैं, तो वो सीरियल क्लीनर (यानी म्यूलर) को बुलाते हैं।"
आरोपों से भरे अपने इस बयान का अंत उन्होंने ये कहते हुए किया कि "म्यूलर बौखला गए हैं" क्योंकि उनके पास ट्रंप के खिलाफ "कुछ नहीं" है। उन्होंने ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया जो एक पत्रकार को करना चाहिए और न ही कोई तथ्य दिए। सिर्फ एक बड़ा और निराधार दावा कि "म्यूलर बौखला गए हैं" - और फिर इस दावे को अनगिनत बार दोहराया गया, ताकि उसे किसी भी तरह "सच" मान लिया जाए। ठीक वैसे ही, जैसे सुधीर चौधरी चीख चीखकर झूठ दर झूठ बोलते जेएनयू में लगे नारों का देश विरोधी टेंपर्ड वीडियो दिखा रहे थे या ठीक वैसे ही, जैसे कि अर्नब गोस्वामी रोज चीखते हैं। पत्रकारिता का मूल धर्म सुनना होता है, लेकिन अब पत्रकारिता का धर्म बदल गया है और यह महज चीखना होता है, वह भी झूठ बोलते हुए। बार बार, लगातार।
अमेरिका के लिए यह गनीमत है कि वहां रवीश कुमार कुछ अधिक संख्या में बचे रहने में कामयाब हो गए हैं। जैसे सीएनएन चैनल पर आने वाला ब्रायन का शो रिलायबल सोर्सेस। अपने यहां हालांकि रवीश कुमार ऐसी हिम्मत नहीं कर पाए हैं और शायद अर्जुन की तरह किसी कृष्ण का इंतजार कर रहे हैं कि कृष्ण आकर उन्हें सच्चे धर्मयुद्ध में उतरने का गीता ज्ञान दें, लेकिन ब्रायन ने न तो किसी कृष्ण का इंतजार किया और न ही गीता पढ़ी है। अपने शो रिलायबल सोर्सेस में ब्रायन अमेरिकी संबित पात्राओं, अरबन गोस्वामियों और सुधीर चौधरियों जैसे पथभ्रष्ट और मतिभ्रष्ट लोगों का बाकायदा नाम लेकर पोल खोल रहे हैं।
अगस्त 2018 के जिस शनिवार जीनी का झूठ का पुलिंदा ऑन एयर हुआ, उसकी की अगली सुबह सीएनएन पर ब्रायन ने अपने शो "रिलायबल सोर्सेस" जीनी पिरो की वो क्लिप दिखाई जिसमें म्यूलर पर "बौखलाने" का आरोप लगाया गया था - CNN के एक शो में फॉक्स न्यूज की क्लिप खुलेआम दिखाई जा रही थी, पूरी ब्रैंडिंग और सौजन्य के साथ ! कोई सावधानी भरे शब्द नहीं, कोई खेद नहीं, कोई हिचकिचाहट नहीं। और फिर स्टेल्टर ने "म्यूलर के बौखला जाने" की मनगढ़ंत खबर दिखाने पर पिरो की जमकर धुलाई कर दी। ये आमने-सामने की सीधी टक्कर थी। अपने उसी शो में स्टेल्टर ने NBC के कार्यक्रम "मीट द प्रेस विद रुडी गुलियानी" की क्लिप भी दिखाई, जिसमें ट्रंप के करीबी ने ये अविश्वसनीय दावा किया कि "सत्य नहीं है सत्य"। रूडी गुलियानी भी ट्रंप के भरोसेमंद और पालतू संबित, अर्नब और सुधीर के मिक्सचर हैं।
तो ये थे अमेरिका के संबित पात्रा, अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी। हालांकि वहां ऐसे लोगों की लाइन काफी लंबी है और यकीनन अपने यहां से ज्यादा लंबी। आखिर अमेरिका हमसे कहीं ज्यादा बड़ा देश भी तो है। लेकिन सवाल पैदा होता है कि सच दिखाने का दावा करने वाले अपने यहां के बचे खुचे चैनल आखिर कब तक चैनलों पर चीख चीख कर झूठ बोलने और दिखाने वाले पत्रकार के नाम पर सत्ता की दलाली करने वाले लोगों को बचाकर रखेंगे? कब उनके झूठ को अपने यहां भी अमेरिकी तर्ज पर बेपर्दा किया जाएगा? क्या तब, जब लोकतंत्र लंगड़ाने की जगह रेंगने लगेगा? या तब, जब वह मर जाएगा?
- यह लेख अमेरिका से लौटे राघव बहल के लिखे लेख से पूरी तरह से प्रेरित है।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी का गुरुवार को देहान्त हो गया.
भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं में वे सबसे बड़े कद और सर्वाधिक प्रतिष्ठा वाले नेता रहे हैं. संसदीय अखाड़े में जनसंघ और जनता पार्टी के दौर से गुजरते हुए भाजपा तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति का नेतृत्व किया. गांधीवादी समाजवाद के साथ संम्बंध का उनका संक्षिप्त दौर अब भाजपा के इतिहास में एक भूला बिसरा पन्ना बन चुका है. आडवाणी के आक्रामक हिन्दुत्व वाले अभियान की परिणति में भाजपा के सबसे बड़ा दल बनने के बाद ये बाजपेयी ही थे जिन्हें शासन के प्रमुख चेहरे के रूप में भाजपा ने चुना था.
आरएसएस के सिद्धांतकार गोविन्दाचार्य ने उन्हें भाजपा का उदारवादी ‘मुखौटा’ कहा था, जबकि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा थे. वे एक ऐसे दौर में भाजपा के सर्व प्रमुख प्रतिनिधि थे जब भाजपा को अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति के लिए एक मुखौटे की जरूरत थी. प्रथम राजग गठबंधन सरकार के सहयोगियों के लिए जिन्हें आडवाणी या मोदी जैसे ‘कट्टर’ माने जाने वाले संघियों को समर्थन देने में असुविधा हो सकती थी, बाजपेयी का मुखौटा उनके लिए उपयोगी था.
राजग की पहली सरकार के दौर में उनसे जिस भूमिका की मांग थी उसे निभाने के लिए बाजपेयी को अपनी राजनैतिक भाषा को थोड़ा नरम बनाना पड़ा. आज जब हम मोदी या अमित शाह द्वारा एनआरसी के सवाल पर आप्रवासियों के बारे में जहरीले प्रचार को सुनते हैं तो हमें 1983 में असम में एक चुनावी भाषण में बाजपेयी के उस वक्तव्य को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘विदेशी यहां घुस आये हैं और सरकार कुछ नहीं करती. अगर वे पंजाब में घुसे होते तो लोगों ने उनके टुकड़े-टुकड़े करके बिखरा दिये होते.’’ ठीक उसके बाद ही असम के नेल्ली में 2000 मुसलमानों का जनसंहार किया गया था. 1992 में बाजपेयी उन नेताओं में थे जो संघ की रणनीति के अनुरूप बाबरी मस्जिद विध्वंस की पूर्व संध्या पर ही अयोध्या छोड़ कर दिल्ली आ गये थे. अयोध्या छोड़ने से पहले बाजपेयी ने इशारों वाली भाषा में – वे निस्संदेह भाषण देने की कला के दिग्गज थे- कारसेवकों से कहा था कि उनके लिए विध्वंस के औजारों की जरूरत होना बिल्कुल स्वाभाविक है क्योंकि ‘जमीन को समतल करना जरूरी है’. इस भाषण के बाद श्रोताओं की उन्मादी गड़गड़ाहट से उसी क्षण स्पष्ट हो गया था कि उनका इशारा वे समझ गये हैं – अगले दिन कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को बाकायदा समतल कर दिया था.
प्रधानमंत्री के रूप में बाजपेयी ने गुजरात में 2002 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के लिए मोदी को राजधर्म निभाने की ‘नसीहत’ दी थी. पर साथ ही उन्होंने मोदी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने दिया और गुजरात के मुसलमानों की दंगों के दौरान और उसके बाद सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया. वे शिष्टाचार और बहस की हिमायत करते थे; पर गुजरात में धर्म परिवर्तन का विरोध करने के बहाने संघ द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध की गई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद उन्होंने ‘धर्म परिवर्तन पर बहस’ का आवाहन किया था. गुजरात जनसंहार, और इण्डिया शाइनिंग के जुमले के धराशायी होने के बाद 2004 में बाजपेयी नेतृत्व वाले राजग को भारी पराजय मिली.
आज भाजपा, राजग और उनकी सरकार एक बिल्कुल ही दूसरे दौर में हैं. अब उन्हें किसी मुखौटे की जरूरत नहीं रह गई है – भाजपा के दो स्टार प्रचारक मोदी और योगी अपने साम्प्रदायिक मंसूबों को छुपा कर नहीं रखते हैं. मंत्रियों द्वारा आज भीड़-हत्यारों को हार पहनाये जाते हैं, कैमरे के सामने एक मुसलमान को जिन्दा जलाने वाले को संघ के संगठन अपना नायक कहने में नहीं हिचकिचाते. ऐसी घटनाओं के बाद भाजपा को अब ‘गौ हत्या’ और ‘लव जेहाद’ पर घुमा-फिरा कर यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि ‘राष्ट्रीय बहस’ चलनी चाहिए. आडवाणी समेत, जो बाजपेयी दौर में राजग के भीतर उनके पूरक की भूमिका में थे, उस दौर के भाजपा नेता ‘मार्गदर्शक मण्डल’ में भेजे जा चुके हैं.
भारत के शासक वर्गों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की उस वैचारिक मरीचिका के प्रतिनिधि बाजपेयी रहे जिसके अनुसार भाजपा बगैर फासीवादी कोर के एक नरम दक्षिणपंथी पार्टी बन सकती है. बाजपेयी जी के देहान्त से बहुत पहले ही यह मरीचिका धुंधली हो गयी थी.
भारतीय दक्षिणपंथ के राजनीतिक इतिहास के लिए आज अटल बिहारी बाजपेयी एक महत्वपूर्ण संदर्भबिन्दु हैं, एक ऐसा पैमाना जिससे हमें कल के बाजपेयी युग और आज के मोदी के दौर के बीच की निरंतरता और फर्क को समझ कर वर्तमान फासीवादी हमले की तीव्रता को मापने में मदद मिलती है.
दिल छोटा औ नाक बड़ी
सिर पै चुरखी चढ़ी चढ़ी
पढ़ पढ़ के भइन हैं चरखा
सूत न निकलै, चलै घड़ी।
अपनेन रंग से रंग मिलावें
जो न मिले तौ जंग लगावें
मेला देख के होवैं पागल
क्रांति क्रांति कहि मैला खावैं।
धान न चीन्हैं मान न चीन्हैं
भूंई पे ओलरा किसान न चीन्हैं
खर का समझैं स्विटजरलैंड
मौनी म पड़ा पिसान न चीन्हैं।
अइसेन बाटे दिल्ली वाले
दिल कै खोटे मन कै काले
लाल लाल के लगन लगावैं
हरियर पियर के फूंक उड़ावैं। - रेजिंग राहुल, हैरिंग्टनगंज मिल्कीपुर - अवध बीज भंडार वाले
इसी महीने यानी जून में मोदी सरकार ने विश्व बैंक से 500 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया है। यह कर्ज अटल भूजल योजना के लिए लिया गया है, जिसके तहत देश की धरती के नीचे जो पीने का पानी बचा हुआ है, उसका मैनेजमेंट करेंगे। पिछले महीने, यानी मई में सरकार ने विश्व बैंक से 500 मिलियन डॉलर का कर्ज और लिया था, जिसके लिए गांव की सड़कों को सुधारने का तर्क दिया गया था। सरकार बनने से लेकर अब तक, यानी जून 2014 से जून 2018 तक मोदी सरकार 70 बार में 13,570.86 मिलियन डॉलर का कर्ज अकेले विश्व बैंक से ले चुकी है। जिन दूसरे लोगों से लोन लिया गया है, उनमें एशियाई डेवलपमेंट बैंक, चीन का एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक, यूरोपियन यूनियन का यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक, जापान का ओडीए यानी ऑफिशियल डेवलपमेंट असिस्टेंट प्रमुख हैं, जिनसे बीते चार सालों में 300 बिलियन डॉलर से भी अधिक कर्ज लिया गया है। अकेले एडीबी यानी एशियन डेवलपमेंट बैंक मोदी सरकार को अब तक लगभग 100 बिलियन डॉलर का कर्ज दे चुका है। जिस साल मोदी जी की सरकार बनी, उस वक्त स्विस बैंकों में कुल 14 हजार करोड़ रुपये जमा थे, जिसके वापस आने पर उन्होंने हम सबको 15-15 लाख रुपये देने का जुमला फेंका था। अब तक मोदी सरकार स्विस बैंक में जमा कुल धनराशि से कई गुना अधिक लोन तो अकेले जापान से ले चुकी है। चीन का बैंक एआईआईबी मोदी जी के आने के बाद सन 2015 से अधिक ताकतवर हुआ और उसके बाद तो देश शायद ही ऐसा कोई राज्य बचा है, जिसके लिए सरकार ने चीन से लोन नहीं लिया। गुजरात के गावों की तो सारी सड़कें ही चीनी लोन से बन रही हैं।
विश्व बैंक से 13,570.86 मिलियन डॉलरचीन जापान से- 1 लाख मिलियन डॉलर से अधिकयूरोपियन यूनियन से 2 बिलियन यूरो से ज्यादा
इससे पहले कि विश्व बैंक से लिए गए सभी 70 लोन का हिसाब किताब जानें, यह देख लिया जाए कि इस सरकार में कितने लोन का खाता बंद हुआ। मई में शपथ ग्रहण के बाद अब तक सरकार ने अपने लिए गए लोन में से महज एक लोन का खाता बंद किया है। 250 मिलियन डॉलर का यह लोन राजस्थान में विद्युत वितरण में पहले सुधार के लिए लिया गया था, जो मार्च 2016 में बंद कर दिया गया। लेकिन अगर यह जानना हो कि जून 2014, यानी मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद से लेकर मार्च 2016 तक इस 250 मिलियन डॉलर से कितना लाइनलॉस कम हुआ, विद्युत वितरण में कितना सुधार आया, कितनी चोरी रुकी, कितने तार लगे या जो कुछ भी हुआ, तो आरटीआई लगाने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचता। ऐसा इसलिए क्योंकि राजस्थान एनर्जी पोर्टल, जिसे हम राजस्थान में पॉवर डिपार्टमेंट का एग्रीगेटर कह सकते हैं, वहां इसका कोई हिसाब-किताब नहीं दिया गया है।
वर्ष- 2016 बंद हुआ लोन - 250 मिलियन डॉलर
सरकार बनने के बाद यानी जून 2014 में मोदी सरकार ने पहला लोन मिजोरम में सड़क बनवाने के लिए 107 मिलियन डॉलर का लिया। यह अभी तक क्लोज नहीं हुआ है। उसी महीने 4.55 मिलियन डॉलर का लोन कर्नाटक मल्टीसेक्टोरल न्यूट्रीशियन पायलट के नाम पर लिया गया। यह भी अभी तक क्लोज नहीं हुआ है। सन 2014 में मोदी सरकार ने बस चलाने से लेकर गांव देहात के नाम पर 348.56 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया। पहले साल जो सबसे ज्यादा कर्ज लिया गया, वह नीरांचल नेशनल वॉटरशेड प्रोजेक्ट के लिए 178.50 मिलियन डॉलर का रहा। असल में यह पूरी योजना 357 मिलियन डॉलर की है, जिसमें भारत सरकार और विश्व बैंक आधा-आधा पैसा लगा रहे हैं। सिंचाई की हालत दुरुस्त करने के लिए यह योजना सन 1994-95 से ही चल रही है, जिसके तहत इस बार के लोन में देश के 9 राज्य सेलेक्ट किए गए हैं। इन सभी को अपनी ओर से इसमें 40 फीसदी लगाना पड़ेगा, 60 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार देती है और बाकी वर्ल्ड बैंक। यह पैसा उन्हीं किसानों के नाम पर लिया गया है, जो इन दिनों गांवबंदी पर हैं। इस साल विश्व बैंक से लोन के कुल 8 ट्रांजेक्शन हुए और कुल 460.11 मिलियन डॉलर का कर्ज उठाया गया। इस साल एशियन डेवलपमेंट बैंक से अकेले सड़क सुधार के नाम पर 9 बिलियन डॉलर का कर्ज लिया गया। अन्य मदों में एडीबी से 2,581.34 मिलियन डॉलर कर्ज में लिए गए हैं। एडीबी की 30 नवंबर 2014 की बैलेंस शीट 26 बिलियन डॉलर के आसपास का अमाउंट दिखा रही है। उत्तराखंड में पहाड़ों और जंगलों का सत्यानाश इन्हीं पैसों से किया जा रहा है। बाहरी देशों के बैंकों में जापान ऑफिशियल डेवलपमेंट असिस्टेंट - ओडीए ने भारत को वर्ष 2014 के लिए 1,141.68 मिलियन डॉलर का कर्ज दिया है।
वर्ष 2014107 मिलियन डॉलर - मिजोरम सड़क348.56 मिलियन डॉलर - गांव देहात178.50 मिलियन डॉलर - नीरांचल नेशनल वॉटरशेड प्रोजेक्ट9 बिलियन डॉलर - सड़क सुधार 1,141.68 मिलियन डॉलर - जापान ऑफिशियल डेवलपमेंट असिस्टेंट
अमाउंट की दृष्टि से साल 2015 सबसे बड़ा साल कहा जाएगा। इस साल मोदी सरकार ने विश्व बैंक से कुल 5299.88 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा 1500 मिलियन डॉलर का रहा, जो स्वच्छ भारत अभियान के सपोर्ट के लिए लिया गया है। निर्मल भारत अभियान का नाम बदलकर चलाए जा रहे इस कार्यक्रम में अब तक 40 से 50 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। 2019 तक लगभग 65 लाख शौचालय बनने थे, जिसमें अभी तक आधे भी नहीं बने हैं। निर्मल भारत अभियान के तहत प्रति शौचालय 1,467 रुपये से लेकर 1,797 रुपये का खर्च आता था। स्वच्छ भारत अभियान में यही खर्च प्रति शौचालय 5,294 रुपये से लेकर 5,455 रुपये का आ रहा है। शौचालयों से ग्राउंड वाटर क्वालिटी भी खराब हो चुकी है और कई जगहों पर टेस्ट के बाद सामने आया है कि इसमें जिस सोक टैंक का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसकी वजह से पूरे इलाके में जमीन के नीचे मौजूद पीने का पानी खराब हो चुका है। वहीं कूड़ा निस्तारण की बात करें तो देश भर में निकलने वाला 75 फीसद कूड़ा यूं ही बिखरा हुआ है, यानी अनट्रीटेड है। ये तब है, जबकि देश के 81 हजार नगरपालिका वार्डों में से सरकार अभी तक कुल 44,650 में घर-घर जाकर कूड़ा उठाने का दावा कर रही है। ये कूड़ा उठाकर सरकार क्या कर रही है, इसके बारे में सभी जानते हैं। वहीं बात अगर कूड़ा प्रबंधन से जुड़ी इकाइयों की करें तो ऐसा कोई प्रदेश नहीं, जहां सफाई कर्मचारी हड़ताल न कर चुके हों। देश की राजधानी दिल्ली तो सफाई कर्मचारियों के साथ अछूत बर्ताव को लेकर नजीर बन चुकी है।
वर्ष 2015 1500 मिलियन डॉलर - स्वच्छ भारत अभियान पहले खर्च1,467 - 1,797 रुपयेअब खर्च 5,294 -5,455 रुपये
साल 2015 में लिया गया दूसरा सबसे बड़ा लोन ईस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर-3 के लिए 650 मिलियन डॉलर का लिया गया। इस परियोजना के पहले हिस्से, मालगाड़ी से पंजाब को पश्चिम बंगाल तक जोड़ने वाले ट्रैक यानी ईस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर-1 का उद्घाटन इसी साल नवंबर में होने की उम्मीद है। यह कैसे होगा, यह तो गाड़ी दौड़ाने वाले जानें, क्योंकि धनबाद होकर गुजरने वाली सोन नगर से दानकुनी तक अभी तक एक किलोमीटर भी रेल लाइन नहीं बिछ पाई है। कई जगह काम बंद हो गया है। बिहार-झारखंड के ज्यादातर हिस्से में सर्वे का काम पूरा हो चुका है लेकिन पटरी बिछाने का काम शुरू नहीं हो पाया है। बिहार बंगाल में इसके लिए अभी तक उतनी जमीन का अधिग्रहण ही नहीं हो पाया है, जितनी होने के बाद रेलवे काम शुरू करता है। जगह-जगह पर किसान अपनी जमीन पर खेती ही करना चाहते हैं। 400 मिलियन डॉलर तमिलनाडु में सस्टेनबल डेवलपमेंट के लिए लिया गया है तो 250-250 मिलियन डॉलर का लोन क्रमश: आंध्र प्रदेश डिजास्टर रिकवरी प्रोजेक्ट और झेलम और तावी में आई बाढ़ को झेलने के लिए लिया था। 300 मिलियन डॉलर का लोन मध्य प्रदेश में उच्च शिक्षा में सुधार लाने के लिए लिया है तो 250 मिलियन डॉलर शिक्षकों में सुधार लाने के लिए लिए हैं। 500 मिलियन डॉलर का लोन मंत्री गिरिराज सिंह के विभाग सूक्षम, लघु और मध्यम उद्यम के लिए लिया गया है, जिसके तहत ऐसे उद्योगों की दशा सुधारने का लक्ष्य रखा गया था। इनके विभाग में जो महिलाओं के लिए व्यापार संबंधी उद्यमिता सहायता और विकास की योजना थी, वह इस साल बंद कर दी गई है। वर्ष 2012-13 में सूक्षम, लघु और मध्यम उद्योगों की वृद्धि दर 15.27 फीसद थी जो 2013-14 में 12.27 फीसद, 2014-15 में 9.43 फीसद और 2015-16 में घटकर 7.62 फीसद पर आ गई है। अकेले तमिलनाडु में इसी साल 49,329 सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की इकाइयां बंद हो चुकी हैं, जिसकी वजह से सवा पांच लाख से भी अधिक लोग बेरोजगार हो गए हैं। बाकी के प्रदेशों का हाल भी तमिलनाडु से कुछ जुदा नहीं है। वैसे अनुसूचित जाति-जनजाति की उद्यमिता के नाम पर लुधियाना में 490 करोड़ रुपये खर्च करने थे, जिसका हिसाब भी मंत्री जी से लिया जाना जरूरी है। इस साल विश्व बैंक से लोन के कुल 16 ट्रांजेक्शन हुए। इस साल एशियन डेवलपमेंट बैंक से 2000 मिलियन डॉलर से कुछ अधिक का कर्ज लिया गया। दूसरे मदों में भी एडीबी से ही लोन के तहत 11.09 बिलियन डॉलर की प्राप्ति हुई। इसी साल जापान ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के लिए 1.5 ट्रिलियन येन का ऋण भी जारी किया, यानी लगभग 83 हजार करोड़ रुपये। इसी साल चीन ने अपने एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक को भारत में उतारा।
वर्ष 2015 650 मिलियन डॉलर - ईस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर-3 250 मिलियन डॉलर - आंध्र प्रदेश डिजास्टर रिकवरी प्रोजेक्ट250 मिलियन डॉलर - झेलम और तावी की बाढ़ एशियन डेवलपमेंट बैंक - 2000 मिलियन डॉलर 1.5 ट्रिलियन येन - मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के लिए जापान से
वर्ष 2016 में मोदी सरकार ने विश्व बैंक से कुल 2355.63 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया। इसमें सबसे बड़ा कर्ज 500 मिलियन डॉलर का है जो ग्रिड कनेक्टेड रूफटॉप सोलर प्रोग्राम के लिए है। टारगेट है कि सन 2022 तक भारत सोलर पॉवर से 100 जीगा वाट बिजली का उत्पादन करेगा, जिसमें से अभी तक कई शर्तों के साथ 40 जीगा वाट के उत्पादन तक पहुंचा गया है। इसके अलावा एशियन डेवलपमेंट बैंक से भी सोलर रूफटॉप के लिए बड़ा अमाउंट कर्ज में लिया गया है। वैसे एडीबी को भारत सरकार ने एक जगह पर वर्ष 2022 तक सोलर पॉवर से 40 जीगा वाट के उत्पादन का लक्ष्य बताया है, तो दूसरी जगह, जो कि एडीबी और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का संयुक्त प्रोजेक्ट है, उसमें 2022 तक वापस 100 जीगा वाट का लक्ष्य बताया गया है। दूसरा बड़ा लोन 470 मिलियन डॉलर का रहा जो नॉर्थ ईस्ट में बिजली सिस्टम इंप्रूव करने के लिए लिया गया है। इसी साल एचआरडी मिनिस्ट्री ने देश भर की आईआईटी को सर्कुलर जारी करके कहा कि पैसों का इंतजाम खुद करो, अब केंद्र सरकार मदद नहीं देगी और इसी साल इन्हीं के लिए सरकार ने 201 मिलियन डॉलर का लोन तकनीकी शिक्षा की क्वालिटी सुधारने के लिए ले लिया। वैसे अकेले बिहार की सड़कों के खाते में दो बार क्रमश: 235 और 290 मिलियन डॉलर गए हैं। इसी के बाद बिहार में नीतीश कुमार ने बीजेपी से हाथ मिलाकर दोबारा शपथ ली। इस साल विश्व बैंक से लोन के कुल 13 ट्रांजेक्शन हुए। इस साल एशियन डेवलपमेंट बैंक से 3,076.19 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया गया। अन्य मदों में 11.42 बिलियन डॉलर एडीबी से बतौर लोन लिए गए। बाहरी देशों के बैंकों में जापान ऑफिशियल डेवलपमेंट असिस्टेंट - ओडीए ने भारत को वर्ष 2016-17 के लिए 21,590 करोड़ रुपये का कर्ज दिया है। इसके अलावा इसी साल ओडीए ने दूसरे 400 बिलियन डॉलर के कर्ज में से 390 बिलियन डॉलर भी जारी किए हैं।
वर्ष 2016500 मिलियन डॉलर - ग्रिड कनेक्टेड रूफटॉप सोलर प्रोग्राम470 मिलियन डॉलर - नॉर्थ ईस्ट में बिजली सिस्टम201 मिलियन डॉलर - तकनीकी शिक्षा की क्वालिटी3,076.19 मिलियन डॉलर - एशियन डेवलपमेंट बैंक21,590 करोड़ रुपये - ओडीए जापान
साल 2017 में जब तमिलनाडु के किसान जंतर मंतर पर अपने यहां मरे किसानों की खोपड़ियां रखकर बैठे थे और अपना मूत्र पी रहे थे, तब सरकार ने तमिलनाडु में रूरल ट्रांसफॉरमेशन प्रोजेक्ट के लिए 100 मिलियन तो सिंचाई व्यवस्था सुधारने के नाम पर 318 मिलियन डॉलर ले लिए। तमिलनाडु में किसान अभी भी सड़क पर ही हैं और पिछले दिनों वहां के थिरुचेंधुर में जब वह प्रदर्शन कर रहे थे, तब उनके नेता पी अय्याकन्नू से बीजेपी की नेता नेल्लैयामल भिड़ गईं और किसानों पर चप्पल चलाते हुए उनकी वीडियो खूब वायरल भी हुई। रिजर्व बैंक की एग्रीकल्चर लोन बुक अकाउंट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साल 2015-16 में सबसे ज्यादा कृषि ऋण लेने वाले किसान तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश से हैं। इनपर औसतन दो लाख रुपये का कर्ज है और पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जो लोन माफ किया है, वह अधिकतम 1 लाख रुपये का है। योगी जी के पुअर टूरिज्म सेक्टर को सुधारने के लिए 40 मिलियन डॉलर का भी कर्ज लिया है, इसके बावजूद वाराणसी में पुल गिर गया। स्किल इंडिया मिशन के लिए भी इस साल 250 मिलियन डॉलर का कर्ज विश्व बैंक से लिया गया है तो आंध्र प्रदेश में चौबीस घंटे निर्बाध विद्युत आपूर्ति देने के लिए 240 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया है। स्किल इंडिया मिशन कामयाब नहीं हुआ और इसके मंत्री को बदलते हुए मंत्रालय का दर्जा भी कम कर दिया गया। नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की वेबसाइट के मुताबिक नोएडा में एसनीईजी नाम का कौशल विकास केंद्र चल रहा है लेकिन असलियत यह है कि वहां एक हॉस्टल चल रहा है, जबकि वेबसाइट के मुताबिक वहां 480 छात्रों को ब्यूटी और हेयरड्रेसिंग की ट्रेनिंग दी जा रही है। ऐसे ही काफी संस्थान या तो कागजों पर हैं, या फिर उनका ढांचा ही खड़ा हो पाया है, वहां संसाधन ही नहीं हैं। 375 मिलियन डॉलर नदियों में जहाज चलाने के नाम पर भी ले लिए गए, जिसके बारे में अभी हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि नेशनल वॉटरवे परियोजना फिसड्डी हो चुकी है। उत्तराखंड में इसी साल हेल्थ सिस्टम सुधारने के नाम पर 100 मिलियन डॉलर ले लिए तो वहां पर एम्स के डायरेक्टर ने गरीब ग्रामीणों से अनाप शनाप फीस वसूली करनी शुरू कर दी। बाद में जब मामला मीडिया की सुर्खी बना तो वसूली तो बंद की, लेकिन वसूले गए पैसे आज तक न तो वापस किए हैं, और न ही उसका कोई हिसाब दिया है। साल 2017 में मोदी सरकार ने अकेले वर्ल्ड बैंक के साथ 21 लोन ट्रांजेक्शन करते हुए 2885.54 मिलियन डॉलर का कर्ज उठाया। इसी साल एशियन डेवलपमेंट बैंक से 32 बिलियन डॉलर का कर्ज लिया गया, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा ऊर्जा, फाइनांस और ट्रांसपोर्टेशन सेक्टर का रहा। 160 मिलियन डॉलर का लोन चीन के एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक से आंध्र प्रदेश में बिजली ठीक करने के नाम पर लिए गए। गुजरात के गावों में सड़क बनाने के लिए इसी चीनी बैंक से 329 मिलियन डॉलर, बैंगलोर में मेट्रो के नाम पर 335 मिलियन डॉलर, देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने के नाम पर 150 मिलियन डॉलर, बंगाल में सिंचाई सुधारने और बाढ़ राहत के नाम पर 145 मिलियन डॉलर, तमिलनाडु के ट्रांसमिशन सिस्टम दुरुस्त करने के लिए 100 मिलियन डॉलर और मुंबई मेट्रो के लिए 500 मिलियन डॉलर का लोन लिया है। देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य है, जहां चीनी सामान के साथ ही चीनी लोन न पहुंच सका हो। बंगलुरु मेट्रो के ही नाम पर 500 मिलियन यूरो और 300 मिलियन यूरो के दो लोन यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक यानी यूआईबी से लिए गए हैं। स्टेट बैंक की दशा सुधारने के लिए यहीं से 200 मिलियन यूरो का लोन लिया गया है।
साल 2017 100 मिलियन डॉलर - तमिलनाडु में रूरल ट्रांसफॉरमेशन प्रोजेक्ट, तमिलनाडु 318 मिलियन डॉलर - सिंचाई व्यवस्था, तमिलनाडु375 मिलियन डॉलर - नदियों में जहाज चलाने के लिए100 मिलियन डॉलर - हेल्थ सिस्टम, उत्तराखंड32 बिलियन डॉलर - एशियन डेवलपमेंट बैंक 335 मिलियन डॉलर - बंगलुरु मेट्रो200 मिलियन यूरो - स्टेट बैंक500 मिलियन यूरो - बंगलुरु मेट्रो300 मिलियन यूरो - बंगलुरु मेट्रो
इस साल, यानी 2018 के जून तक मोदी सरकार विश्व बैंक से 2569.70 मिलियन डॉलर का कुल कर्ज ले चुकी है। 500-500 मिलियन डॉलर के दो सबसे बड़े कर्ज अटल भूजल योजना और पीएमजीएसवाई रूरल रोड प्रोजेक्ट हेतु लिए गए हैं। 420 मिलियन डॉलर का कर्ज महाराष्ट्र में जलवायु पर टिकी किसी लचीली परियोजना के को चलाने के लिए लिया गया है। इसके बावजूद महाराष्ट्र में किसानों का बुरा हाल है। गांव और ग्रामीणों की हालत सुधारने के नाम पर भी पांच सौ मिलियन डॉलर का कर्ज लिया गया है, उसके बावजूद आज गांव बंद हैं। किसान सड़क पर दूध गिरा रहे हैं, तो दूसरी ओर सरकार डेरी बढ़ाने के नाम पर जापान से लोन ले रही है। इस साल एशियन डेवलपमेंट बैंक से अपनी रिपोर्ट में यह साफ कहा है कि मोदी जी ने जो नोटबंदी की थी, वह भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले साल यानी वर्ष 2017 तक डुबोती रही। इस साल इस बैंक से 600 मिलियन डॉलर कर्ज उठाया गया। चीन से भी इसी साल 1-5 बिलियन डॉलर का लोन इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिए तो लिया ही है, अरबन आंध्र प्रदेश में पानी और सेप्टेज के नाम पर 400 मिलियन डॉलर, नेशनल इन्वेस्टमेंट और इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के नाम पर 200 मिलियन डॉलर, मध्य प्रदेश रुरल कनेक्टिविटी के नाम पर 140 मिलियन डॉलर लिया गया है। इसी साल मार्च में सरकार ने यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक यानी यूआईबी से भी 150 मिलियन यूरो यानी साढ़े सत्रह करोड़ डॉलर से भी अधिक लोन ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए लिया है। यहीं से 1.7 बिलियन यूरो का लोन और पास हुआ है, जिनसे मिले पैसों का प्रयोग देश में चल रहे आठ अलग अलग प्रोजेक्ट में लगाने की बात कही गई है। ये सारे आंकड़े इंटरनेट पर उपलब्ध इन सभी बैंकों की वेबसाइट से लिए गए हैं। पूरे मामले में गौर करने वाली एक इम्पॉर्टेंट बात यह दिखती है कि अधिकतर विदेशी बैंकों ने अपनी रकम का अधिकतर आंकड़ा ऑनलाइन कर रखा है। लेकिन भारत सरकार ने उन पैसों का क्या किया, या उसका क्या रिजल्ट आया, इसकी जानकारी कहीं भी नहीं दी है। इनकी जितनी योजनाएं चल रही हैं, किसी की भी ताजा जानकारी या आंकड़े इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या है, जिसकी पर्देदारी है?
वर्ष - 2018500 मिलियन डॉलर - अटल भूजल योजना 500 मिलियन डॉलर - पीएमजीएसवाई रूरल रोड प्रोजेक्ट420 मिलियन डॉलर - महाराष्ट्र जलवायु 1-5 बिलियन डॉलर - चीन से 400 मिलियन डॉलर - आंध्र प्रदेश में पानी और सेप्टेज200 मिलियन डॉलर - नेशनल इन्वेस्टमेंट और इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड 140 मिलियन डॉलर - मध्य प्रदेश रुरल कनेक्टिविटी 150 मिलियन यूरो - ऊर्जा संबंधी जरूरतें 1.7 बिलियन यूरो का लोन - यूरोपियन यूनियन
2017 की आखिरी तिमाही, यानी पिछले साल के दिसंबर में भारत पर 513438 मिलियन डॉलर का बाहरी कर्ज चढ़ चुका था। यह पिछले 70 वर्षों के इतिहास में सबसे ज्यादा बड़ा अमाउंट है। सन 1999 से बाहरी कर्ज का औसत 260273.96 मिलियन डॉलर पर बना हुआ था जो पिछले साल के अंत के साथ ही टूट चुका है। लोन लेने में इस सरकार ने पिछले 70 सालों में सारी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है।