अटल बिहारी बाजपेयी और भारतीय दक्षिणपंथ की विकास यात्रा
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी का गुरुवार को देहान्त हो गया.
भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं में वे सबसे बड़े कद और सर्वाधिक प्रतिष्ठा वाले नेता रहे हैं. संसदीय अखाड़े में जनसंघ और जनता पार्टी के दौर से गुजरते हुए भाजपा तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति का नेतृत्व किया. गांधीवादी समाजवाद के साथ संम्बंध का उनका संक्षिप्त दौर अब भाजपा के इतिहास में एक भूला बिसरा पन्ना बन चुका है. आडवाणी के आक्रामक हिन्दुत्व वाले अभियान की परिणति में भाजपा के सबसे बड़ा दल बनने के बाद ये बाजपेयी ही थे जिन्हें शासन के प्रमुख चेहरे के रूप में भाजपा ने चुना था.
आरएसएस के सिद्धांतकार गोविन्दाचार्य ने उन्हें भाजपा का उदारवादी ‘मुखौटा’ कहा था, जबकि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा थे. वे एक ऐसे दौर में भाजपा के सर्व प्रमुख प्रतिनिधि थे जब भाजपा को अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति के लिए एक मुखौटे की जरूरत थी. प्रथम राजग गठबंधन सरकार के सहयोगियों के लिए जिन्हें आडवाणी या मोदी जैसे ‘कट्टर’ माने जाने वाले संघियों को समर्थन देने में असुविधा हो सकती थी, बाजपेयी का मुखौटा उनके लिए उपयोगी था.
राजग की पहली सरकार के दौर में उनसे जिस भूमिका की मांग थी उसे निभाने के लिए बाजपेयी को अपनी राजनैतिक भाषा को थोड़ा नरम बनाना पड़ा. आज जब हम मोदी या अमित शाह द्वारा एनआरसी के सवाल पर आप्रवासियों के बारे में जहरीले प्रचार को सुनते हैं तो हमें 1983 में असम में एक चुनावी भाषण में बाजपेयी के उस वक्तव्य को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘विदेशी यहां घुस आये हैं और सरकार कुछ नहीं करती. अगर वे पंजाब में घुसे होते तो लोगों ने उनके टुकड़े-टुकड़े करके बिखरा दिये होते.’’ ठीक उसके बाद ही असम के नेल्ली में 2000 मुसलमानों का जनसंहार किया गया था. 1992 में बाजपेयी उन नेताओं में थे जो संघ की रणनीति के अनुरूप बाबरी मस्जिद विध्वंस की पूर्व संध्या पर ही अयोध्या छोड़ कर दिल्ली आ गये थे. अयोध्या छोड़ने से पहले बाजपेयी ने इशारों वाली भाषा में – वे निस्संदेह भाषण देने की कला के दिग्गज थे- कारसेवकों से कहा था कि उनके लिए विध्वंस के औजारों की जरूरत होना बिल्कुल स्वाभाविक है क्योंकि ‘जमीन को समतल करना जरूरी है’. इस भाषण के बाद श्रोताओं की उन्मादी गड़गड़ाहट से उसी क्षण स्पष्ट हो गया था कि उनका इशारा वे समझ गये हैं – अगले दिन कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को बाकायदा समतल कर दिया था.
प्रधानमंत्री के रूप में बाजपेयी ने गुजरात में 2002 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के लिए मोदी को राजधर्म निभाने की ‘नसीहत’ दी थी. पर साथ ही उन्होंने मोदी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने दिया और गुजरात के मुसलमानों की दंगों के दौरान और उसके बाद सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया. वे शिष्टाचार और बहस की हिमायत करते थे; पर गुजरात में धर्म परिवर्तन का विरोध करने के बहाने संघ द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध की गई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद उन्होंने ‘धर्म परिवर्तन पर बहस’ का आवाहन किया था. गुजरात जनसंहार, और इण्डिया शाइनिंग के जुमले के धराशायी होने के बाद 2004 में बाजपेयी नेतृत्व वाले राजग को भारी पराजय मिली.
आज भाजपा, राजग और उनकी सरकार एक बिल्कुल ही दूसरे दौर में हैं. अब उन्हें किसी मुखौटे की जरूरत नहीं रह गई है – भाजपा के दो स्टार प्रचारक मोदी और योगी अपने साम्प्रदायिक मंसूबों को छुपा कर नहीं रखते हैं. मंत्रियों द्वारा आज भीड़-हत्यारों को हार पहनाये जाते हैं, कैमरे के सामने एक मुसलमान को जिन्दा जलाने वाले को संघ के संगठन अपना नायक कहने में नहीं हिचकिचाते. ऐसी घटनाओं के बाद भाजपा को अब ‘गौ हत्या’ और ‘लव जेहाद’ पर घुमा-फिरा कर यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि ‘राष्ट्रीय बहस’ चलनी चाहिए. आडवाणी समेत, जो बाजपेयी दौर में राजग के भीतर उनके पूरक की भूमिका में थे, उस दौर के भाजपा नेता ‘मार्गदर्शक मण्डल’ में भेजे जा चुके हैं.
भारत के शासक वर्गों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की उस वैचारिक मरीचिका के प्रतिनिधि बाजपेयी रहे जिसके अनुसार भाजपा बगैर फासीवादी कोर के एक नरम दक्षिणपंथी पार्टी बन सकती है. बाजपेयी जी के देहान्त से बहुत पहले ही यह मरीचिका धुंधली हो गयी थी.
भारतीय दक्षिणपंथ के राजनीतिक इतिहास के लिए आज अटल बिहारी बाजपेयी एक महत्वपूर्ण संदर्भबिन्दु हैं, एक ऐसा पैमाना जिससे हमें कल के बाजपेयी युग और आज के मोदी के दौर के बीच की निरंतरता और फर्क को समझ कर वर्तमान फासीवादी हमले की तीव्रता को मापने में मदद मिलती है.
- भाकपा(माले) लिबरेशन
16 अगस्त 2018
भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं में वे सबसे बड़े कद और सर्वाधिक प्रतिष्ठा वाले नेता रहे हैं. संसदीय अखाड़े में जनसंघ और जनता पार्टी के दौर से गुजरते हुए भाजपा तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति का नेतृत्व किया. गांधीवादी समाजवाद के साथ संम्बंध का उनका संक्षिप्त दौर अब भाजपा के इतिहास में एक भूला बिसरा पन्ना बन चुका है. आडवाणी के आक्रामक हिन्दुत्व वाले अभियान की परिणति में भाजपा के सबसे बड़ा दल बनने के बाद ये बाजपेयी ही थे जिन्हें शासन के प्रमुख चेहरे के रूप में भाजपा ने चुना था.
आरएसएस के सिद्धांतकार गोविन्दाचार्य ने उन्हें भाजपा का उदारवादी ‘मुखौटा’ कहा था, जबकि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा थे. वे एक ऐसे दौर में भाजपा के सर्व प्रमुख प्रतिनिधि थे जब भाजपा को अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति के लिए एक मुखौटे की जरूरत थी. प्रथम राजग गठबंधन सरकार के सहयोगियों के लिए जिन्हें आडवाणी या मोदी जैसे ‘कट्टर’ माने जाने वाले संघियों को समर्थन देने में असुविधा हो सकती थी, बाजपेयी का मुखौटा उनके लिए उपयोगी था.
राजग की पहली सरकार के दौर में उनसे जिस भूमिका की मांग थी उसे निभाने के लिए बाजपेयी को अपनी राजनैतिक भाषा को थोड़ा नरम बनाना पड़ा. आज जब हम मोदी या अमित शाह द्वारा एनआरसी के सवाल पर आप्रवासियों के बारे में जहरीले प्रचार को सुनते हैं तो हमें 1983 में असम में एक चुनावी भाषण में बाजपेयी के उस वक्तव्य को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘विदेशी यहां घुस आये हैं और सरकार कुछ नहीं करती. अगर वे पंजाब में घुसे होते तो लोगों ने उनके टुकड़े-टुकड़े करके बिखरा दिये होते.’’ ठीक उसके बाद ही असम के नेल्ली में 2000 मुसलमानों का जनसंहार किया गया था. 1992 में बाजपेयी उन नेताओं में थे जो संघ की रणनीति के अनुरूप बाबरी मस्जिद विध्वंस की पूर्व संध्या पर ही अयोध्या छोड़ कर दिल्ली आ गये थे. अयोध्या छोड़ने से पहले बाजपेयी ने इशारों वाली भाषा में – वे निस्संदेह भाषण देने की कला के दिग्गज थे- कारसेवकों से कहा था कि उनके लिए विध्वंस के औजारों की जरूरत होना बिल्कुल स्वाभाविक है क्योंकि ‘जमीन को समतल करना जरूरी है’. इस भाषण के बाद श्रोताओं की उन्मादी गड़गड़ाहट से उसी क्षण स्पष्ट हो गया था कि उनका इशारा वे समझ गये हैं – अगले दिन कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को बाकायदा समतल कर दिया था.
प्रधानमंत्री के रूप में बाजपेयी ने गुजरात में 2002 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के लिए मोदी को राजधर्म निभाने की ‘नसीहत’ दी थी. पर साथ ही उन्होंने मोदी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने दिया और गुजरात के मुसलमानों की दंगों के दौरान और उसके बाद सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया. वे शिष्टाचार और बहस की हिमायत करते थे; पर गुजरात में धर्म परिवर्तन का विरोध करने के बहाने संघ द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध की गई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद उन्होंने ‘धर्म परिवर्तन पर बहस’ का आवाहन किया था. गुजरात जनसंहार, और इण्डिया शाइनिंग के जुमले के धराशायी होने के बाद 2004 में बाजपेयी नेतृत्व वाले राजग को भारी पराजय मिली.
आज भाजपा, राजग और उनकी सरकार एक बिल्कुल ही दूसरे दौर में हैं. अब उन्हें किसी मुखौटे की जरूरत नहीं रह गई है – भाजपा के दो स्टार प्रचारक मोदी और योगी अपने साम्प्रदायिक मंसूबों को छुपा कर नहीं रखते हैं. मंत्रियों द्वारा आज भीड़-हत्यारों को हार पहनाये जाते हैं, कैमरे के सामने एक मुसलमान को जिन्दा जलाने वाले को संघ के संगठन अपना नायक कहने में नहीं हिचकिचाते. ऐसी घटनाओं के बाद भाजपा को अब ‘गौ हत्या’ और ‘लव जेहाद’ पर घुमा-फिरा कर यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि ‘राष्ट्रीय बहस’ चलनी चाहिए. आडवाणी समेत, जो बाजपेयी दौर में राजग के भीतर उनके पूरक की भूमिका में थे, उस दौर के भाजपा नेता ‘मार्गदर्शक मण्डल’ में भेजे जा चुके हैं.
भारत के शासक वर्गों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की उस वैचारिक मरीचिका के प्रतिनिधि बाजपेयी रहे जिसके अनुसार भाजपा बगैर फासीवादी कोर के एक नरम दक्षिणपंथी पार्टी बन सकती है. बाजपेयी जी के देहान्त से बहुत पहले ही यह मरीचिका धुंधली हो गयी थी.
भारतीय दक्षिणपंथ के राजनीतिक इतिहास के लिए आज अटल बिहारी बाजपेयी एक महत्वपूर्ण संदर्भबिन्दु हैं, एक ऐसा पैमाना जिससे हमें कल के बाजपेयी युग और आज के मोदी के दौर के बीच की निरंतरता और फर्क को समझ कर वर्तमान फासीवादी हमले की तीव्रता को मापने में मदद मिलती है.
- भाकपा(माले) लिबरेशन
16 अगस्त 2018
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