अशोक मोची से जिग्नेश मेवानी तक
अशोक मोची के साथ महेंद्र मिश्र |
गुजरात दंगों का चेहरा बनने का उन्हें जरूर मलाल है। उनका कहना था कि दंगे इतने भयंकर होंगे इसकी उन्हें उम्मीद ही नहीं थी। उनका मानना था कि हमेशा की तरह छिटपुट पत्थरबाजी और कुछ घटनाएं होंगी और फिर सब कुछ शांत हो जाएगा। ये बात सही है कि गोधरा की घटना से उनके भीतर रोष था और चर्चे में आयी तस्वीर भी उसी का नतीजा थी। लेकिन हालात इतने बदतर होंगे ये उनकी सोच और कल्पना से भी परे था। उनका न तो विश्व हिंदू परिषद से कुछ लेना-देना था। न ही किसी दूसरे हिंदू संगठन से कोई वास्ता। उस घटना के 15 सालों बाद भी उनके सीने में एक ही दर्द जज्ब है। वह है जाति व्यवस्था की गुलामी। कुछ दार्शनिक अंदाज में वो कहते हैं कि उन्होंने दलित बस्ती को छोड़ दिया है और अब वो जातिवाद से आजाद हो गए हैं। और इस बात के लिए उन्हें अपने ऊपर गर्व है।
अशोक मोची का दर्द व्यक्तिगत दायरे तक सीमित था जिसे जिग्नेश मेवानी ने एक स्वर दे दिया है जो सामूहिक है। इसकी आवाज बड़े फलक पर जाती है और ये व्यापक हिस्से को प्रभावित करती है। ये आरएसएस द्वारा पोषित परंपरागत हिंदू व्यवस्था से विद्रोह का सुर है। इसमें दलितों के अलग पहचान की दावेदारी है तो रोजी-रोटी और सम्मान की गारंटी के लिए जमीन मालिकाने के हक की मांग भी । जिग्नेश मेवानी उसके प्रतीक बन गए हैं। उना आंदोलन ने ये साबित कर दिया कि दलित अब इस्तेमाल की चीज नहीं रहा । वो अपना रास्ता खुद बनाएगा। दलितों के इस सशक्तिकरण ने उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात को दूसरे नंबर पर खड़ा कर दिया है। ये न केवल अपना अलग रास्ता बनाता दिख रहा है बल्कि पूरे देश के स्तर पर आरएसएस द्वारा पेश किये जा रहे गुजरात के हिंदू माडल को भीतर से खुली चुनौती भी है। हिंदू राष्ट्र के गुब्बारे में गुजरात का दलित आंदोलन एक कारगर पिन साबित हो सकता है। अनायास नहीं उना की घटना के बाद गौरक्षकों को सांप सूंघ गया। और उन्हें रोकने के लिए प्रधानमंत्री को सामने आना पड़ा। इतना ही नहीं गुजरात के दलित आंदोलन को रोहित वेमुला और जेएनयू के नजीब से जोड़कर मेवानी ने इसे नई ऊंचाई दे दी है।
इस कशमकश और रस्साकशी के बीच आरएसएस अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। उसने दलितों को अपना हथियार बनाने के लिए सांस्कृतीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाया है। इसके तहत एक दौर में एकात्मकता यात्रा निकालने से लेकर उनके लिए अलग से देवी-देवताओं को स्थापित करने का काम किया गया। इस कड़ी में कुत्ता, गधा और बकरी की सवारी वाले देवी-देवताओं की खोज की गयी। देवताओं के इस बंटवारे के साथ ही जाति व्यवस्था को बनाए रखने की गारंटी कर दी गयी। संघ एकात्मकता की कितनी बात करे लेकिन सच यही है कि देवताओं तक को वो सभी जातियों के बीच साझा करने के लिए तैयार नहीं है।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
No comments:
Post a Comment