Saturday, December 7, 2013

फासीवाद की क्षय: कँवल भारती

लोकतंत्र में भी फासीवाद मरता नहीं है, बल्कि पूरी हनक के साथ मौजूद रहता है. यह किसी एक देश की बात नहीं है, बल्कि प्राय: सभी लोकतान्त्रिक देशों की बात है. अक्सर दो किस्म के लोग फासीवादी होते हैं, (एक) राजनेता, जो वोट की राजनीति करते हैं और (दो) धर्मगुरु, जो अज्ञानता फैलाते हैं. ज्ञान की रौशनी से ये दोनों लोग डरते हैं. इसलिए सत्य का गला दबाने के लिए ये दोनों एक-दूसरे से हाथ मिलाये रहते हैं. जब तक जनता गूंगी-बहरी बनकर जहालत की चादर ओढ़े रहती है, वे लोग खुश रहते हैं, क्योंकि इसी में उनकी तानाशाही सत्ता बनी रहती है. पर उन्हें जनता के जागरूक होने का डर हमेशा बना रहता है. इसीलिए ये दोनों लोग शान्ति और अमन की बातें करते हैं, ताकि समाज में यथास्थिति बनी रहे.

यथास्थिति का अर्थ है राजनीति और धर्मगुरुओं का गठजोड़ कायम रहे और उनके द्वारा जनता का शोषण और संसाधनों की अबाध लूट चलती रहे. इसलिए जैसे ही नेताओं को पता चलता है कि जनता जहालत की चादर उतारकर फेंकने लगी है और उनके विरोध में प्रदर्शन करने वाली है, तो वे तुरंत शान्ति बनाने के लिए धारा 144 लगा देते हैं. इस धारा के तहत दस लोग भी एक जगह न इकठ्ठा हो सकते हैं और न मीटिंग कर सकते हैं. अगर इकठ्ठा होंगे और मीटिंग करेंगे, तो पुलिस को पूरा अधिकार दिया गया है कि वह उन्हें तुरंत गिरफ्तार करके जेल भेज सकती है, अगर विरोधी उनकी सत्ता के लिए चुनौती है, तो वह उस पर रासुका लगा सकती है, उसे जिला बदर कर सकती है, यहाँ तक कि उसे देश निकला तक दे सकती है या उसे देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर सकती है. फ़िदा मकबूल हुसैन और तसलीमा नसरीन के मामले में हम यह देख भी चुके हैं. ( यहाँ मैं सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित हूँ, राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शनों को इस सन्दर्भ में न देखें, क्योंकि वे फासीवादियों से अलग नहीं होते, बल्कि उनके हमशक्ल ही होते हैं, सिर्फ उनकी टीमें अलग-अलग होती हैं.)

इस फासीवाद के तहत सत्य का स्वर बुलन्द करने वाले लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और जनता का दमन सिर्फ आज की हकीकत नहीं है, बल्कि यह दमन सदियों से होता आया है. चार्वाकों से लेकर शम्बूक तक, कबीर से लेकर मीरा तक, गैलेलियो से लेकर सुकरात तक, बहुत लम्बी सूची है. इस फासीवाद के अभी ताज़ा शिकार डा. विनायक सेन, सीमा आज़ाद, डा. दाभोलकर, तसलीमा नसरीन और शीबा फहमी हुए हैं. तसलीमा नसरीन के खिलाफ दरगाहे आला हज़रत के cleric के साहबजादे हसन रज़ा खां नूरी ने FIR लिखाई है कि उन्होंने ट्विटर पर अपने कमेन्ट से मुसलमानों की भावनाएं भड़कायी हैं. दरअसल ये भावनाएं जनता की नहीं होती हैं, वरन खुद धर्मगुरु (क्लेरिक) की होती हैं.

शीबा फहमी ने ऐसा क्या लिख दिया कि जज ने उनके खिलाफ गिरफ़्तारी का वारंट निकाल दिया? उन्होंने एक साल पहले मोदी के खिलाफ फेसबुक पर लिखा था, जिसके विरुद्ध एक संघी ने FIR लिखाई थी, मामला अदालत में था, पर जज भी उसी शान्ति का पक्षधर निकला, जिसे मोदी जैसे नेता और धर्मगुरु चाहते हैं और जो फासीवाद चाहता है, सो जज ने शीबा के खिलाफ वारंट इशु कर दिया. यहाँ यही कहने को मन करता है कि जज ने साम्प्रदायिकता का साथ दिया, न्याय का नहीं. बहरहाल, ऐसे हजार जज मिलकर भी सत्य का गला नहीं घोंट सकते और न लेखक की आवाज़ को दबा सकते हैं. ख़ुशी है कि शीबा फहमी को उच्च अदालत से जमानत मिल गयी है. लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हम सारे लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी तसलीमा नसरीन और शीबा फहमी के साथ पूरी तरह एकताबद्ध हैं. जितना संभव हो सकेगा, हम फासीवाद के विरुद्ध मिलकर लड़ेंगे. हम सब उनके साथ हैं. लोकतंत्र की जय और फासीवाद की क्षय होकर रहेगी.

FB account of writer- Kanwal Bharti

Sunday, December 1, 2013

मिल मजदूरों का दस्‍ता तैयार हो गया है

टेलमार्क में जनसुनवाई
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टेलमार्क के वल्‍योची चौराहे पर आज हमने जनसुनवाई की। इस जनसुनवाई में बहुत से लोग पहुंचे।

दक्षिण कैरोलिना के चरवाहे टेंस टीका ने हमें बताया कि हिटलर बर्फ में रहने वाले लोगों को पिघलाने की कोशिश कर रहा है, पर गर्मी लाने के लिए उसने किराए का तंबू लगा रखा है।

इतना ही नहीं, उसने तो बर्फ के राजा तक का आह्वान कर दिया, जिसके बाद से साउथ कैरोलिना के बोल्‍शेविक उससे खफा हैं। हमारे पास हिटलर पर हमला करने के लिए अकेले साउथ कैरोलिना से ही 50 हजार मिल मजदूरों का दस्‍ता तैयार हो गया है।

बंदूकें मंगाई हैं। अब हमारी मदद कौन सा देश कर रहा है, ये हम नहीं बताएंगे।

(जनसुनवाई मंच- Dr. Bharat Singh Dr. Pintu Tiwari Dr. Rising Rahul)

तस्‍वीर- हिटलर के बारे में हमें सूचना देते टेंस टीका। पीछे खड़े हैं डा.भारत। — in Telemark, Norway.

छत्रपति प्रधानमंत्री

पुन:श्‍च
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मेरे कई मित्रों को अभी तक विश्‍वास नहीं हुआ है कि अब मैनें इंडिया/भारत में रहना छोड़ दिया है। ऐसा नहीं है कि मुझे मेरे देश से कोई लगाव नहीं है या फिर मुझे नॉर्वे इंडिया से ज्‍यादा अच्‍छा लगता है।

मुझे भी उन सभी गलियों सड़कों से उतना ही लगाव है जितना किसी को या आपको है। पर इन भाई साहब (नीचे तस्‍वीर) ने जबसे खुद को भारत का छत्रपति प्रधानमंत्री घोषित किया है, हम विरोध स्‍वरूप नॉर्वे चले आए हैं।

अब हम नॉर्वे में तब तक रहेंगे, जब तक ये आदमी जबरिया मेरे देश का प्रधानमंत्री बना रहेगा। ....यहां फासिस्‍टों के नाश के लिए सेना तैयार कर रहे हैं। — with Comrade Aman Mishra Dyfi in Telemark, Norway.

महान भारतीय जनता

गुरि‍ल्‍ला ट्रेनिंग
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परसों की बात है। Yuva Deep दा ने यहां (नॉर्वे के टमेरलान में) भेड़ें चराने का वादा कि‍या, पर खि‍चड़ी खि‍ला दी। ...नहीं आए।

मजबूरी में मुझे और डा. Bharat को भेड़ों को लेकर नि‍कलना पड़ा। हमारी भेड़ों पर जंगल में मौजूद चंद नारंगी गुरि‍ल्‍लाओं ने हमला कर दि‍या।

वो हमारी भेड़ तेरेना के पीछे पड़े थे और दोषि‍यों पर खुद कार्यवाही करने की बात कह रहे थे।तेरेना छोटी सी प्‍यारी सी भेड़ है।
हमने तेरेना को बचाते हुए गुरि‍ल्‍लाओं की फौज पर हमला कर दि‍या और उन्‍हें ट्रेनिंग दी कि वो भेड़ों के चरते समय पेड़ पर ही बैठे रहें। मुझे लगा कि इसी की जरूरत महान भारतीय जनता
को भी है... — in Telemark, Norway.

सर्बिया की सुबह

सर्बिया की सुबह
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इन दि‍नों हम लोग सर्बिया में सर्दियों की शुरुआत का मजा लेने आए हैं। दरअसल हम जि‍स रास्‍ते से आए थे, वो दो पहाड़ों के बीच से गुजरता था।

दोनों को जोड़ने के लि‍ए बांस का पुल था जो रस्‍सी पगहा व खाद बीज वि‍ज्ञानी डा. Pintu के भारी भरकम वजन से टूट गया। यहां काम आए फल फ्रूट व अंतरि‍क्ष पत्‍थर वि‍ज्ञानी डा. Bharat।

उन्‍होंने अपने गुप्‍त हथि‍यार से ढेर सारी घास काटी और डा. पिंटू ने तुरंत उसकी रस्‍सी बनाई। देखते ही देखते हमने पहाड़ पार कर लि‍या।

लोग मंगल जाने को तैयार हैं

यहां नॉर्वे में बहुत लोग मंगल जाने को तैयार हैं। हमारे टेलमार्क में सात पड़ोसि‍यों ने पैसा भी जमा कर दि‍या है।

पर खुशी की बात ये है कि इनमें से कि‍सी ने भारतीय मंगल अभि‍यान के लि‍ए बुकिंग नहीं कराई है। अब ले लो मोदी की बधाइयां।

तेरा शहर कितना अजीब है

‘न दोस्त है न रकीब है तेरा शहर कितना अजीब है।’
(सुबह से भेड़ें मि‍मि‍या रही हैं। उन्‍हें चारागाह की तरफ भेज दि‍या है। अब खि‍ड़की के कि‍नारे बैठा हूं। Deep दा, यहां गोरि‍यां नहीं... ) — feeling lonely in Telemark, Norway.

न भागा जाये है मुझसे न ठहरा जाये है मुझसे

हुये हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी...
न भागा जाये है मुझसे न ठहरा जाये है मुझसे.
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यहां नॉर्वे में आज बर्फ गि‍री है, भेड़ों को बाड़े में बंद करके बाहर जग्‍गू और बादल (एक मेरा और एक फल पत्‍थरर वि‍ज्ञानी भारत का) छोड़ दि‍ए हैं।

रजाई में बैठकर अंडे की भुजि‍या की भाप देख रहे हैं। भुजि‍या की महक कमरे से नि‍कलकर पड़ोसि‍यों तक पहुंचने लगी है।

कई सारे पड़ोसि‍यों से चर्चा भी हुई कि भाप ज्‍यादा इंपॉर्टेंट है या भुजि‍या की महक या उसे देखना...
तो अब बस फि‍ल्‍म शोले और हमप्‍याला..
(पायरेसी के जमाने में ये फोटो शायद पाइरेसी में नहीं आती। इसलि‍ए कानूनन माना जाए कि हम शोले ही देख रहे हैं। और अब भुजि‍या खाकर खत्‍म कर दि‍ए हैं)

बि‍जली उत्‍पादन तो सीख लि‍या, उसे काटना अभी नहीं सीख पाए

नॉर्वे के टेलमार्क के दोल्‍वा गांव में मेरा मकान (बायें दूर सफेद वाला)। दाहि‍ने हाथ खर पतवार और भूगर्भ वि‍ज्ञानी डा.भारत सिंह का मकान (कार वाला)।

दाहि‍ने हाथ ही दूर से नजर आता पानी व पहाड़ पत्‍थर वि‍ज्ञानी डा.अर्चना का मकान (हलका पीला वाला)। हमारा खच्‍चर रोज रोज भाग जाता है तो खोजकर लाना पड़ता है।

पि‍छले साल ही हमने भेड़ों के लि‍ए बाड़ा लगाया। दि‍न में लाइट इसलि‍ए जल रही है कि हमने बि‍जली उत्‍पादन तो सीख लि‍या, उसे काटना अभी नहीं सीख पाए। बि‍जली हमारे पास इफरात है, अमेरि‍का ने कोशि‍श की थी पर हम समाजवादी देशों को ही बि‍जली निर्यात करना चाहते हैं।
फोटो- Dr. Archana लाइट्स- Dr. Bharat

आम बात है

अजरबैजान के बि‍लासुवेर के फि‍लेवोत्‍येका गांव में आज 17 डि‍ग्री टेंपरेचर है। ये काफी भीड़भाड़ वाला गांव है।

 इसी में वहां की असलेफास्‍प मस्‍जि‍द के पीछे वाली गली में पानी को लेकर दो पक्षों में झगड़ा हो गया। आर्मेनि‍या के जंगल में बैठे बैठे अचानक फोन आया कि जल्‍द वहां पहुंचो, रि‍पोर्टिंग करनी है।

हमने तुरंत एस्‍कॉर्ट साथ लि‍या और मौके पर जांच के लि‍ए पहुंचे। ताजा अपडेट ये है कि गांव में एक हत्‍या हो चुकी है। गांव वालों का कहना है कि आम बात है.

जहां कोई हमसुखन न हो

आर्मेनि‍या के जंगलों में जा रहा हूं। जहां कोई हमसुखन न हो। न ही कोई हम जुबां हो।

आर्मेनि‍या के जंगल में हमें कई तरह के जानवर मि‍ले। कुछ जानवर तो ऐसे थे, जि‍नके हाथ पैर कुछ भी नहीं थे मगर वो चले ही जा रहे थे।

कुछ जानवर ऐसे थे जि‍नके अंदर कभी दो तो कभी दो ढाई सौ जानवर एक साथ दि‍खाई दे रहे थे।

बाकी छोटे मोटे जानवर बगैर हाथ पैर वाले जानवरों को क्रीमरोल खाते हुए देख रहे थे।

नाईजीरीया के मजदूर साथी

नाईजीरीया के मजदूर साथी प्‍लेटेऊ राज्‍य वासे और बशर जि‍ले के बीच एक गुमनाम गांव।

इस गांव में तय संख्‍या से ज्‍यादा लोग हैं जि‍से हमारे हड्डी एंव फल विज्ञानी डा. पिंटू ति‍वारी यहां लगातार आती बि‍जली सुवि‍धा को मानते हैं।

साथ में जल फल व कल वि‍ज्ञानी राहुल व भूगर्भ व मौसम वि‍ज्ञानी डा.भारत।

लव जि‍हाद

उज्बेकिस्तान के सोख एन्क्लेव के गांव खुशयार में लव जि‍हाद के नि‍शानात देखता हमारा समाज सुधार वि‍ज्ञानी दल।

यहां पर फैला लव जि‍हाद दीवारों, पत्‍थरों पर तो देखा ही जा सकता है, छतें भी इससे अछूती नहीं रही हैं। हमारे हड्डी सुधार वि‍ज्ञानी डा.पिंटू ति‍वारी की राय थी कि अगर इतना ही लव है तो जि‍हाद की क्‍या जरूरत।

- साथ में भू समाज सुधार वि‍ज्ञानी भारत सिंह।

परत दर परत नीचे

नॉर्थ कोरि‍या के युयुत्‍सु जि‍ले के प्‍योंगसांग गांव में आई भीषण वि‍भीषि‍का में सैकड़ों लोग गांव के दाहि‍ने तरफ वाले टीले पर फंसे हुए थे।

हड्डी वि‍ज्ञानी डा. पिंटू ति‍वारी ने उन्‍हें नीचे उतारने की चीनी वि‍धि वाली योजना बनाई।

हालांकि भूगर्भ वि‍ज्ञानी डा.भारत का कहना था कि टीले को नीचे से खोदा जाए तो वो लोग परत दर परत नीचे आ
जाएंगे।

सैन मातेओ जि‍ले के पोर्टोला वैली कस्‍बे में

अमेरि‍का के फोनि‍क्‍स में तीन दि‍न चार रात लगातार मौसम का अध्‍ययन करने के बाद हम उसी देश के सैन मातेओ जि‍ले के पोर्टोला वैली कस्‍बे में
पहुंचे।

वहां की गर्मी और कुकुरमुत्‍ते की तरह उगे मैक्‍डॉनल्‍ड के बर्गर और फ्रेंच फ्राई खा-खाकर हमारा पेट खराब हो चुका था। पोर्टोला वैली कस्‍बे में हमें कच्‍चे मांस का आयात करने वाले पीटरसन मि‍ले।

पीटरसन ने हमें राजमा चावल और रायता उबले अंडों के साथ खाने को दि‍या। साथ में वहां की देसी शराब भी थी।
(जल-फल और कल वि‍ज्ञानी डा. राहुल रि‍पोर्टिंग वि‍द मौसम और हड्डी वि‍ज्ञानी डा. पिंटू ति‍वारी एंड भूगर्भ और आसमान वि‍ज्ञानी डा. भारत सिंह)

एक नया वि‍श्‍व रि‍कॉर्ड

और लीजि‍ए, बना दि‍या एक नया वि‍श्‍व रि‍कॉर्ड. हम अमेरि‍का के सबसे गर्म शहर फोनि‍क्‍स के पलोमा गांव में मौसम के अध्‍ययन के लि‍ए गए।

वहां हमने (जल-फल व मौसम वि‍ज्ञानी राहुल व हड्डी तथा चट्टान वि‍ज्ञानी डा.पिंटू ति‍वारी) सबसे गर्म चट्टान पर पूरे साढ़े 17 सेकेंड तक खुद को टि‍काए रखा।

हालांकि हमारे साथ भूगर्भ विज्ञानी भारत सिंह भी थे, पर उन्‍होंने खुद को हमारे जले बदन के इलाज के लि‍ए बचाए रखा। बाद में बरनॉल उन्‍हीं ने लगाया।

अमरूद और सेब के निषेचन से उपजा उन्‍नत कि‍स्‍म का फल

तजाकि‍स्‍तान के दि‍शि‍खेर और देवान गांव के बीच भीषण सूखाग्रस्‍त इलाकों में मुआयना करने के बाद अमरूद और सेब के निषेचन से उपजे उन्‍नत कि‍स्‍म का फल
दि‍खाते घास फूस और फल फूल वि‍ज्ञानी राहुल। उम्‍मीद है कि इस एक छोटे से फल से हम एक बोरी चीनी बनाने में महारत हासि‍ल कर लेंगे। (साथ में पशु वि‍ज्ञानी भारत और हड्डी वि‍ज्ञानी पिंटू ति‍वारी)

पत्‍थर पर राम लि‍ख लि‍खकर नदी में फेंका

तस्‍वीर उस वक्‍त की है जब हम लोग आर्मेनि‍या में थे और लगातार होती बारि‍श के चलते बाढ़ में फंस गए थे। दो दि‍न तक हमने रामायण से प्रेरणा ली और पत्‍थर पर राम लि‍ख लि‍खकर नदी में फेंका... इसके बाद भी पुल न बन पाया तो हमारे भूगर्भ वि‍शेषज्ञ भारत सिंह ने दूसरे तरीके से हमें नदी पार करा
ई।

Friday, November 15, 2013

"हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं"

एक बनारसी यादव हैं, शायद पत्रकार भी..कहानीकार तो वो जरूर हैं। मुंबई में रहने वाले कनपुरि‍या लेखक रूप सिंह चंदेल ने अपनी फेसबुक प्रोफाइल में उक्‍त यादव जी की खूब खबर ली है। आप भी पढ़ें... 

राजेन्द्र यादव पर लिखे मेरे लंबे संस्मरण ( दस हजार शब्दों से अधिक) का एक अंश- रूप सिंह चंदेल

एक घटना याद आ रही है.

यह बात २००४ या २००५ की है. उस दिन राजेन्द्र जी के साथ मैं और तेज सिंह ही थे. तेज सिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ पर चर्चा हो रही थी. कुछ देर बाद एक चालीस पार रचनाकार आए. हंस में उनकी कई वर्ष पहले एक कहानी मैंने पढ़ी थी. उनके आते ही राजेन्द्र जी, जो हंस-बतिया रहे थे अकस्मात गंभीर हो गए. हमे लगा कि उस व्यक्ति का आना राजेन्द्र जी को पसंद नहीं आया. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने उसके हाल पूछे और चुप होकर पाइप सुलगाने लगे. कमरे में सन्नाटा छाया रहा. कुछ देर की चुप्पी के बाद मूंछों पर हल्की मुस्कान लाकर उस व्यक्ति ने पूछा, “मेरी कहानी का क्या कर रहे हैं?” पूछने का ढंग इतना अशिष्ट था कि कोई सामान्य व्यक्ति भी आपा खो देता. राजेन्द्र जी ने पाइप सुलगाते हुए बिना किसी उत्तेजना के कहा, “उसे नहीं छाप रहे.”

“क्यों नहीं छाप रहे?”

“यह भी पूछने की बात है!” राजेन्द्र जी अब गंभीर हो उठे थे.

“फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आपको उस कहानी में क्या कमी दिखाई दी?” उस व्यक्ति का चेहरा लाल हो रहा था. उसके चौड़े मुंह पर अस्वाभाविकता उभर आयी थी.

“क्योंकि वह हंस के योग्य नहीं है.”

हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं और मेरी कहानी आपको पत्रिका के योग्य नहीं लगी.”

राजेन्द्र जी चुप रहे.

कुछ देर चुप रहने के बाद वह व्यक्ति बोला, “आप क्यों छापेगें मेरी कहानी! वह कहानी आपको केन्द्र में रखकर जो लिखी गई है---इसलिए---!”

राजेन्द्र जी का चेहरा लाल हो उठा था. स्पष्ट था कि वह अपने क्रोध को किसी प्रकार जज्ब कर रहे थे. वह तत्काल चोट करते भी न थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया.

“वापस कर दीजिए मेरी कहानी. कहीं भी छप जाएगी.”

’बीना से ले लो.” राजेन्द्र जी ने केवल इतना ही कहा, लेकिन चेहरा तब भी उनका लाल ही था.

“आप मेरी कहानी क्यों छापेगें---छापेगें इन जैसे चमचों की..” उसने मेरी ओर इशारा किया. मैं चुप रहा उसके उस मूर्खतापूर्ण प्रलाप पर. डॉ. तेज सिंह हत्प्रभ थे. आखिर उसकी धृष्टता के कारण तेज सिंह अपने को रोक नहीं पाए और बोले, “यादव जी, छाप दीजिए न इनकी कहानी---आखिर यह भी यादव हैं ---जाति का कुछ तो लिहाज कीजिए---.”

लेकिन राजेन्द्र जी ने जो चुप्पी साधी तो उस व्यक्ति के जाने के बहुत देर बाद ही तोड़ी.

दो-तीन वर्षों बाद मैंने उस व्यक्ति की एक रचना (वह कहानी थी या आलेख याद नहीं) हंस में देखी थी. शायद उस दिन की उस व्यक्ति की धृष्टता को राजेन्द्र जी ने क्षमा कर दिया था.

एक और घटना…

एक दिन मैं और राजेन्द्र जी ही थे. तेज सिंह हमारे साथ न थे और जब मैं अकेले उनके कार्यालय पहुंचता तो हंसते हुए वह पूछते, “आज आग अकेले---धुंआ को कहां छोड़ आए..!”

उस दिन किसी बात पर चर्चा करते हुए राजेन्द्र जी ने कहा कि ईमानदारी यदि शेष है तो केवल कम्युनिस्टों में. मैंने कहा, “कुछ कम्युनिस्ट भी भ्रष्ट हैं…आप सभी को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र नहीं दे सकते.”

“मैं ठीक कह रहा हूं” राजेन्द्र जी अड़ गए थे अपनी बात पर.

मैंने कहा, “मेरे पास एक व्यक्ति का उदाहरण है जो अपने को मार्क्सवादी (सीपीएमएल का) कहता है लेकिन महाधूर्त है---उसका मार्क्सवाद एक छद्म है और उस जैसे अनेक हैं.”

“कौन है?” राजेन्द्र जी ने पूछा.

“उस दिन तेज सिंह और मेरे सामने जो बनारसी यादव अपनी कहानी के लिए आपसे बक-झक कर रहा था---वह उसे अपना गुरू कहता है. वह दिल्ली के एक सांध्य कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है. उसने कानपुर में अपने ससुर को बरगलाकर उनके करोड़ों रुपयों के मकान की वसीयत करवा ली. गृहकलह हुई और ससुर जी समय से पहले दुनिया छोड़ गए. उनकी असमय मृत्यु का जिम्मेदार वह व्यक्ति अपने को पुराना नक्सलाइट कहता है---क्रान्तिकारी कहता है---उसके बारे में और अधिक जानेगें तो अपने विचार बदलने के लिए आप स्वयं विवश हो जाएगें.

राजेन्द्र जी चुप हो गए थे. मैं जानता था कि वे मेरी बात से सहमत भले ही न रहे हों लेकिन उसे काटने की बात भी वह सोच नहीं पा रहे थे. विश्वविद्यालय के लोगों के वह कटु आलोचक थे और मानते थे कि प्राध्यापन में ऎसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने छद्म मार्क्सवाद का लबादा ओढ़ रखा है जबकि वे अंदर से वह नहीं हैं जो दिखाने का प्रयास करते हैं. वे उतने ही बड़े शोषक-लंपट हैं जितने कि सामन्तवादी-पूंजीवादी होते हैं. 

Tuesday, November 5, 2013

तीन दिन की शेव में हर लड़का हॉट लगता है

शुभम श्री की नई कविताएं. 

कॉमरेड

(1)
पूरी शाम समोसों पर टूटे लोग
दबाए पकौड़े, ब्रेड रोल
गटकी चाय पर चाय
और तुमने किया मेस की घंटी का इंतजार
अट्ठाइस की उम्र में आईना देखती
सूजी हुई आंखें
कुछ सफेद बाल, बीमार पिता और रिश्ते
स्टूडियो की तस्वीर के लिए मां का पागलपन
घर
एक बंद दरवाजा
---
हमारी आंखों में
तुम हंसी हो
एक तनी हुई मुट्ठी
एक जोशीला नारा
एक पोस्टर बदरंग दीवार पर
एक सिलाई उधड़ा कुर्ता
चप्पल के खुले हुए फीते की कील
पॉलीसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम
भी हो तुम चुपके से
---
यूं ही गुजरती है ज़िंदगी
पोलित ब्यूरो का सपना
महिला मोर्चे का काम
सेमिनारों में मेनिफेस्टो बेचते
या लाठियां खाते सड़कों पर
रिमांड में कभी कभी
अखबारों में छपते 
पर जो तकिया गीला रह जाता है कमरे में
बदबू भरा
उसे कहां दर्ज करें कॉमरेड?

(2)
टेप से नापकर 20 सेंटीमीटर का पोल और उसका शरीर
बराबर हैं
तिस पर एक झलंगी शर्ट 90 के शुरुआती दिनों की
और जींस पुरातत्व विभाग का तोहफ़ा
पैंचे की सिगरेट के आखिरी कश के बाद भी
पराठे का जुगाड़ नहीं
तो ठहाके ही सही
सेकेंड डिवीजन एम.ए, होलटाइमर
मानसिक रोगी हुआ करता था
पिछले महीने तक
दिवंगत पिता से विरासत में पार्टी की सदस्यता लेकर
निफिक्र खिलखिलाता
ये कॉमरेड
दुनिया की खबर है इसे
सिवाय इसके कि 
रात बाढ़ आ गई है घर में
पंद्रह दिनों से बैलेंस जीरो है !

भाकपा (माले)

पापा का मर्डर
चाचा लापता
ड्राइंग बेरंग
निकर बड़ी
नंबर कम
डांट ज्यादा
पेंसिल छोटी
अंगूठा बड़ा
---
इससे पहले कि ग्रेनाइट चुभ जाए
गोलू ने लगाई रेनॉल्ड्स की ठेपी पेंसिल के पीछे
सो पेंसिल भी गिरी कहीं बैग के छेद से
अब जो जोर-जोर से रो रहा है गोलुआ
इसको अपना पेंसिल दे दें?

मोजे में रबर

वन क्लास के गोलू सेकेंड ने
क्लास की मॉनीटर से
सुबह सुबह अकेले में
शर्माते हुए
प्रस्ताव रखा-
अपनी चोटी का रबर दोगी खोल कर?
‘सर मारेंगे’
‘दे दो ना
सर लड़की को नहीं मारेंगे
मेरा मोजा ससर रहा है !’

मेरा बॉयफ्रेंड

(छठी कक्षा के नैतिक शिक्षा पाट्यक्रम के लिए प्रस्तावित निबंध)

मेरा बॉयफ्रेंड एक दोपाया लड़का इंसान है
उसके दो हाथ, दो पैर और एक पूंछ है
(नोट- पूंछ सिर्फ मुझे दिखती है)
मेरे बॉयफ्रेंड का नाम हनी है
घर में बबलू और किताब-कॉपी पर उमाशंकर
उसका नाम बेबी, शोना और डार्लिंग भी है
मैं अपने बॉयफ्रेंड को बाबू बोलती हूं
बाबू भी मुझे बाबू बोलता है
बाबू के बालों में डैंड्रफ है
बाबू चप चप खाता है
घट घट पानी पीता है
चिढ़ाने पर 440 वोल्ट के झटके मारता है
उसकी बांहों में दो आधे कटे नीबू बने हैं
जिसमें उंगली भोंकने पर वो चीखता है
मेरा बाबू रोता भी है
हिटिक हिटिक कर
और आंखें बंद कर के हंसता है
उसे नमकीन खाना भौत पसंद है
वो सोते वक्त नाक मुंह दोनों से खर्राटे लेता है
मैं एक अच्छी गर्लफ्रेंड हूं
मैं उसके मुंह में घुस रही मक्खियां भगा देती हूं
मैंने उसके पेट पर मच्छर भी मारा है
मुझे उसे देख कर हमेशा हंसी आती है
उसके गाल बहुत अच्छे हैं
खींचने पर 5 सेंटीमीटर फैल जाते हैं
उसने मुझे एक बिल्लू नाम का टेडी दिया है
हम दुनिया के बेस्ट कपल हैं
हमारी एनिवर्सरी 15 मई को होती है
आप हमें विश करना
*मेरा बॉयफ्रेंड से ये शिक्षा मिलती है कि 
बॉयफ्रेंड के पेट पर मच्छर मारना चाहिए
और उसके मुंह से मक्खी भगानी चाहिए ।

बूबू

दूदू पिएगी बूबू
ना
बिकिट खाएगी
डॉगी देखेगी
ना
अच्छा बूबू गुड गर्ल है
निन्नी निन्नी करेगी
ना
रोना बंद कर शैतान, क्या करेगी फिर ?
मम्मा पास

बूबू-2

खिलौने सीज़ हो गए तो
पेन के ढक्कन से सीटी बजाई
डांट पड़ी
तो कॉलबेल ही सही
ड्राइंग बनाई दो चार
और कपड़े रंग डाले
अखबार देखा तो प्रधानमंत्री का श्रृंगार कर दिया
मूंछे बना दी हीरोइनों की
मन हुआ तो
जूतों के जोड़े बिखेरे
नोचा एक खिला हुआ फूल
चबाई कोंपल नई करी पत्ते की
हैंडवॉश के डब्बे में पानी डाला
पिचकारी चलाई थोड़ी देर
रसना घोला आइसक्रीम के लिए
तो शीशी गिराई चीनी की
चॉकलेट नेस्तनाबूद किए फ्रिज से
रिमोट की जासूसी की
शोर मचाया जरा हौले हौले
कूदा इधर उधर कमरे में
खेलती रही चुपचाप
पापा जाने क्या लिख रहे थे सिर झुकाए
बैठी देखती रही 
फिर सो गई बूबू
सपने में रोया
पलंग से गिरी अचानक
तो बुक्का फाड़ के रोया
अभी पापा की गोद में
कैसी निश्चिंत सोयी है छोटी बूबू

उस लड़के की याद

तीन दिन की शेव में
हर लड़का हॉट लगता है
(ऐसा मेरा मानना है)
और जिम के बदले 
अस्पताल में पड़ा हो हफ्ते भर
तो आंखें दार्शनिक हो जाती हैं
पीली और उदास
जलती हुई और निस्तेज
बिना नमक की हंसी और सूखी मुस्कुराहटें
चले तो थक जाए
भरी शाम शॉल ओढ़ कर शून्य में ताके
एक बार खाए, तीन बार उल्टी करे
दुबक जाए इंजेक्शन के डर से
उस लड़के के उदास चेहरे पर हाथ फेरती लड़की
मन ही मन सोचती है
मैं मर जाउं पर इसे कुछ न हो
बीमार लड़के प्रेमिकाओं पर शक करने लगते हैं
मन नहीं पढ़ पाते बीमार लड़के

सफल कवि बनने की कोशिशें

ऐसा नइ कि अपन ने कोशिश नइ की
सूर्योदय देखा मुंह फाड़े
हाथ जोड़े
जब तक रुक सका सूसू
चांद को निहारा
मच्छरों के काट खाने तक
हंसध्वनि सुना किशोरी अमोनकर का
थोड़ी देर बाद लगावेलू जब लीपीस्टिक भी सुना
कला फिल्में देखीं
कला पर हावी रहा हॉल का एसी
वार एंड पीस पढ़ा
अंतर्वासना पर शालू की जवानी भी पढ़ी
बहुत कोशिश की
मुनीरका से अमेरिका तक
कोई बात बने
अंत में लंबी गरीबी के बाद अकाउंट हरा हुआ
बिस्तर का आखिरी खटमल
मच्छरदानी का अंतिम मच्छर मारने के बाद
लेटे हुए
याद आई बूबू की
दो बूंदें पोंछते पोंछते भी चली ही गईं कानों में 
तय करना मुश्किल था
रात एक बजे कविता लिखने में बिजली बर्बाद की जाए
या तकिया भिगोने में
अपन ने तकिया भिगोया
आलोचक दें न दें
अलमारी पर से निराला
और बाईं दीवार से मुक्तिबोध
रोज आशीर्वाद देते हैं
कला की चौखट पर
बीड़ी पिएं कि सुट्टा
व्हिस्की में डूब जाएं कि
पॉकेट मारी करें
सबकी जगह है ।

औरतें

उन्हें एशिया का धैर्य लेना था
अफ्रीका की सहनशीलता
यूरोप का फैशन
अमेरिका का आडंबर
लेकिन वे दिशाहीन हो गईं
उन्होंने एशिया से प्रेम लिया
यूरोप से दर्शन
अफ्रीका से दृढ़ता ली
अमेरिका से विद्रोह
खो दी अच्छी पत्नियों की योग्यता
बुरी प्रेमिकाएं कहलाईं वे आखिरकार
जब तक भाषा देती रहेगी शब्द

साथ देगा मन

असंख्य कल्पनाएं करूंगी
अपनी क्षमता को
आखिरी बूंद तक निचोड़ कर
प्यार करूंगी तुमसे
कोई भी बंधन हो
भाषा है जब तक
पूरी आजादी है ।

प्यार

गंगा का
सूरज का
फसलों का
फूलों का
बोलियों का अपनी
और
तुम्हारा
मोह नहीं छूटेगा
जैसा भी हो जीवन
जब तक रहेगी गंध तुम्हारे सीने की जेहन में
मन नहीं टूटेगा।

Thursday, October 31, 2013

हमारे युग का नायक

अवि‍नाश मि‍श्र 

हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष राजेंद्र यादव अब सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं। 28 अक्टूबर की रात उनका देहांत हो गया। वे 84 वर्ष के थे...  इसके आगे और भी बहुत कुछ जोड़ा जाना चाहिए, मसलन मृत्यु की वजह, अब उनके परिवार में उनके पीछे कौन-कौन रह गया है, शिक्षा-दीक्षा, उनका सामाजिक और साहित्यिक अवदान, उनकी कृतियों के नाम, उनके अवसान पर उनके समकालीनों के विचार... वगैरह-वगैरह। ये सब कुछ निश्चित तौर पर इस दुखद खबर के साथ जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन फिर भी बहुत त्रासद ढंग से बहुत कुछ छूट जाएगा। इसलिए यहां केवल यह जोड़ना चाहिए कि समग्र सकारात्मक अर्थों में राजेंद्र यादव की मृत्यु एक क्रांतिकारी सृजक की मृत्यु है। उन्होंने हिंदी साहित्य और समाज में बहुत कुछ बदला। वे एक लोकतांत्रिक, परिवर्तनकामी और युगद्रष्टा व्यक्तित्व थे। उनकी सारी खूबियों और खामियों के साथ अब उन पर बात करते हुए हम उनके लिए ‘थे’ का प्रयोग करेंगे। ‘हैं’ के ‘थे’ में बदल जाने पर हमें यकीन करना होगा।

कथा सम्राट प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का राजेंद्र यादव 1986 से संपादन कर रहे थे। वे अपनी अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। ‘हंस’ का संपादन करते और संपादकीय लिखते रहे। उनकी किताबें और उन पर किताबें हाल-हाल तक आती रहीं और अब भी कई प्रकाशन-प्रक्रिया में हैं। मीडिया में उनकी बाइट्स/वर्जन भी बराबर सुनने/पढ़ने को मिलते रहे। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती और 28 अगस्त को अपना जन्मदिन वे प्रतिवर्ष बहुत लगन और उत्साह से आयोजित करते रहे। मृत्यु से चंद दिनों के फासले पर खड़े और अस्वस्थ होने के बावजूद भी राजेंद्र यादव साहित्यिक आयोजनों में अध्यक्षीय भूमिका निभाते दिखते रहे। उन्होंने कभी किसी एकांत, एकाग्रता और अनंतता की चाह नहीं की। भीड़-भाड़, रंगीनियां, चहल-पहल, साहित्यिक शोर और विवाद उन्हें पसंद थे। बगैर लड़े कोई महान और बड़ा नहीं बनता। वे उम्र भर लड़ते रहे... पाखंड से, जातीयता से, शुद्धतावाद से, हिंदी के प्राचीन और अकादमिक छद्म और षड्यंत्र से, कट्टरता से, सांप्रदायिकता से और सत्ता से भी।  

एक लैटिन अमेरिकी कहावत है कि मृतकों के विषय में अप्रिय नहीं कहना चाहिए। लेकिन राजेंद्र यादव अपने संपादकीयों में कइयों को आहत करते रहे। इसमें जीवित और मृतक दोनों ही रहे। जब कभी इस कहे/लिखे पर फंसने की सूरत आई, उन्होंने अगले ही अंक में माफी भी मांग ली। उन्होंने ‘हंस’ में कई बार अपने मित्रों, करीबियों और साहित्यकारों के अवसान पर बेहद भावपूर्ण और मार्मिक संपादकीय भी लिखे। इस तरह के संपादकीयों में वे दो बातें बहुत जोर देकर कहते रहे। पहली यह कि हमें मृतक की कमियों पर भी बात करनी चाहिए और दूसरी यह कि देह के साथ व्यक्ति से जुड़ी बुराइयां खत्म नहीं होतीं। शेक्सपीयर ने अपने नाटक ‘जूलियस सीजर’ में भी कुछ ऐसा ही कहा है... ‘मनुष्य की बुराइयां उसके बाद भी जीवित रहती हैं, अच्छाइयां अक्सर हड्डियों के साथ दफन हो जाती हैं।’ राजेंद्र यादव अपने अंतिम दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों के मुख्य पात्रों की त्रासदियों के नजदीक जाते नजर आते हैं।

‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ लिखवाने की स्थिति में जब वे पहुंचे तब उनकी विरासत का प्रश्न उनके उत्तराधिकारियों के सम्मुख खड़ा हो गया। आनन-फानन में उनके अंत को  निकट देख ‘हंसाक्षर ट्रस्ट’ में बड़े बदलाव किए गए। राजेंद्र यादव जब अपने ‘अंत’ को पछाड़कर लौटे तब भीड़ से घिरे होने के बावजूद बहुत अकेले और टूटे हुए थे। ‘हंस’ अब उनके सपनों का ‘हंस’ नहीं रह गया था...। उनकी शारीरिक विकलांगता उन्हें लोगों का सहयोग लेने और उन पर भरोसा करने के लिए बाध्य करती थी। उनके कुछ करीबियों, लेखक-लेखिकाओं ने उनकी इस कमजोरी और यकीन का गलत फायदा उठाते हुए अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी कीं।

राजेंद्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ का अतीत विमर्शों के पुनर्स्थापन  प्रतिभाओं की खोज और एक बेबाक समझ व सत्य से संबंधित रहा है। ‘हंस’ ने कितनों को कहानीकार, कवि, समीक्षक, विश्लेषक, समाजशास्त्री और संपादक (अतिथि) बना दिया, यह उसके प्रशंसकों और आलोचकों से छुपा हुआ नहीं है। वे प्रतिपक्ष को स्पेस देना और उससे बहस करना पसंद करते थे। हिंदी में एक पूरी की पूरी स्थापित और स्थापित होने की ओर अग्रसर पीढ़ी है जो ‘हंस’ पढ़ते और राजेंद्र यादव से लड़ते हुए बड़ी हुई है। वे असहमतियों को सुनना जानते थे।

‘न लिखने के कारण’ बताते हुए उन्होंने अपने समय और समाज के सवालों से ‘हंस’ के संपादकीय पृष्ठों पर सीधी मुठभेड़ की। ‘मेरी तेरी उसकी बात’ कभी ‘मेरी मेरी मेरी बात’ नहीं लगी, हालांकि ‘कभी-कभार’ ऐसे आरोप जरूर लगे। एक कविता संग्रह के कवि होने के बावजूद उनकी छवि एक कविता-विरोधी व्यक्ति और संपादक की बनी, लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब ‘हंस’ के कविता-पृष्ठों पर प्रकाशित होना किसी भी युवा कवि के लिए अपनी पहचान पुख्ता करने का एक माध्यम हुआ करता था। लेकिन गए पांच वर्षों से ‘हंस’ की स्तरीयता में भयानक कमी आई और वह केवल निकलने के लिए ही निकलती रही। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’ यह कहना अज्ञान और अजागरूकता का नहीं बेहतरीन साहित्यिक समझ का परिचायक हो गया। बावजूद इसके ‘हंस’ के ‘अपना मोर्चा’ में दूर-दराज के पाठकों के पत्र बराबर छपते रहे...।

वर्तमान समय का सबसे विराट संकट यदि कुछ है तो यही है- बड़े अध्वसाय से अर्जित की गई गरिमा को अंततः बचाकर रख पाना। इस अर्थ में राजेंद्र यादव के आखिरी दिन उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाले रहे। लेकिन अंततः व्यक्ति का काम ही शेष रहता है, तब तो और भी जब यह काम हाशिए पर जी रहे समाज के वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ा हो। उन्हें स्वर दे रहा हो, जिनकी आवाज सदियों से कुचली जाती रही हो। स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों... सबके लिए विमर्श उत्पन्न करने वाले राजेंद्र यादव को उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर ‘हमारे युग का खलनायक’ बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। लेकिन राजेंद्र यादव खलनायक नहीं हैं, वे नायक हैं हमारे युग के नायक। वे जब तक रहे, काम करते हुए विवादों में रहे, अब यादों में रहेंगे...।

असुरों का ज्ञान सहेजने में जुटीं सुषमा

झारखंड में असुर आदिम जनजाति नेतरहाट के आसपास मिलते हैं. वैसे इनका निवास स्थान नेतरहाट से छत्तीसगढ. को जोड़ने वाली पट्टी तक फैला है. लेकिन , आज इनका अस्तित्व खतरे में है. ऐसे में एक असुर की बेटी ने इस जनजाति के संरक्षण का बीड़ा उठाकर मिसाल पेश की है. इनका नाम सुषमा असुर है. इनके पिता खंभीला असुर लातेहार जिला के नेतरहाट के रहने वाले हैं. इस जनजाति को बचाने के लिए जो काम सरकार को करनी चाहिए वह सुषमा कर रही हैं. बकौल सुषमा अगर असुर का अस्तित्व समाप्त हो गया तो झारखंड से एक इतिहास का अंत हो जायेगा. उनके मुताबिक 1872 में देश में पहली जनगणना हुई थी. उस समय 18 जनजातियों को मूल आदिवासी की श्रेणी में रखा गया था. इसमें असुर पहले नंबर पर थे. लेकिन, इन 150 वर्षों में जैसे सरकार ने इस आदिवासी समुदाय को भुला दिया है. नेतरहाट क्षेत्र में जहां इनका निवास स्थान है, वहां जीवन की मूलभूत सुविधाएं जैसे चिकित्सा, पेयजल, बिजली, सड़क आदि का आभाव है. शिक्षा के नाम पर इनके पास प्राथमिक विद्यालय तो है पर शिक्षक नहीं. दसवीं कक्षा पास आदिम जनजाति के लोगों को सीधे सरकारी नौकरी देने का प्रावधान है. लेकिन, कईलोग ऐसे हैं जो दसवीं पास हैं और नौकरी नहीं है. जिस इलाके में असुर जनजाति रहते हैं वह एक पठारी इलाका है. निचली जगह से उपर की ओर चढ.ने में दिक्कत होती है. उपरी इलाके में चढ.ने के लिए इन्हें बॉक्साइट लदे ट्रक का सहारा लेना पड़ता है. इन ट्रकों में इनके साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है. ऐसा परिवहन की सुविधा नहीं होने के कारण होता है.

सुषमा बताती हैं कि असुर समुदाय के लोग अपने कला-कौशल के कारण जाने जाते थे. लेकिन, अब इनकी कला कौशल को बचाये रखना मुश्किल होता जा रहा है. अब लगता है असुर जाति केवल हमें किस्से-कहानियों में ही सुनने को मिलेंगे. कभी प्रचीन काल में दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाले असुर आज की तारीख में अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं. असुरों की संख्या अब महज 10000 से भी कम बची है. ऐसे में इनके कला कौशल के संरक्षण की जरूरत है.

सुषमा असुर अपने जनजाति के ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश में लगी हैं. इसके तहत वे वीडियो फुटेज बनाकर रखना चाहती हैं ताकि आने वाली पीढ.ियों को इस ज्ञान की संपदा हासिल हो सके. सुषमा के इस प्रयास को हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश का सर्मथन और सहयोग मिला है. रांची से साहित्यकार अश्‍विनी कुमार पंकज लगातार उनके संपर्क में हैं और उनके काम को आगे बढ.ाने में हर तरह का सहयोग कर रहे हैं.

असुरों का महत्व

साहित्यकार अश्‍विनी पंकज के मुताबिक झारखंड के लोकगीतों में असुरों का उल्लेख मिलता है. इनमें असुरों की वीरता और उनके कार्यों की जानकारी मिलती है. ऐसा माना जाता है कि महाभारत के लिए हथियारों का निर्माण असुरों के द्वारा ही हुआ था. ये सारी बातें सादरी और कुड़ुख भाषा के लोकगीतों में सुनने को मिलती है. रामायण में भी इन असुरों का उल्लेख मिलता है. असुरों को इस काल में युद्ध करने वाला बताया जाता है. ये शारीरिक रूप से सृदृढ. होते थे. असुर दुनिया के सबसे पुराने बाशिंदे और धातुविज्ञानी हैं. ऐसा माना जाता है कि असुरों ने ही लोहा बनाने की विधि का अविष्कार किया जिससे स्टील बनाया जा सका. अध्ययनकर्ताओं और इतिहासकारों के मुताबिक एशिया व यूरोप में और कोई इंसानी समुदाय ऐसा नहीं बचा है जो यह प्राचीन धातुविज्ञान जानता हो. शायद अफ्रीका में एक-दो आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें यह कला आती है.

खतरे में असुर 

नेतरहाट क्षेत्र में असुरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इनकी जमीन पर बॉक्साइट खनन का काम होने से आजीविका का मूल स्रोत छिन गया है. इनके पास आजीविका का साधन नहीं होने के कारण ये भूखे रहने को मजबूर हैं. खेतों में बॉक्साईट के अपशिष्ट जमा हो जाने के कारण खेत उपजाऊ नहीं रहे. खेतो की उर्वरा शक्ति कम हो गई है. सरकार भी इनके लिए कुछ नहीं कर रही. सरकार की जितनी भी योजना इनके लिए बनी वह केवल कागजों में ही दब कर रह गई. पिछले कुछ सालों में इनकी आबादी लगातार कम होती जा रही है. जाहिर है, जिस रफ्तार के साथ असुरों की आबादी सिमट रही है, उसमें अब ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या असुरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा?

मदद को आगे आये 

असुर जनजातियों के कला एवं कौशल के संरक्षण के लिए सुषमा को तकनीक की जरूरत थीा. इसके लिए इन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया है. फेसबुक पर इन्होंने असुरों के आदि ज्ञान एवं सामुदायिक ज्ञान के संग्रह के लिए एक वीडियो एचडी कैमरा, एक ऑडियो रिकॉर्डर, कार्यक्षेत्र में स्टोरेज के लिए एक लैपटाप, ऑडियो, वीडिया एवं फोटो के व्यविस्थत संग्रहण व संपादन के सबटाइटलिंग के लिए एक मैक पीसी की डिमांड की. जिससे वे अपने विलुप्त होते ज्ञान को संरक्षित कर सकें.

इसके बाद असुरों की पीड़ा और विषय की गंभीरता को समझते हुये भारत के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश ने एक मिनी डीवी कैमरा इन्हें भेंट किया. इंग्लैंड के एक विश्‍वविद्यालय के छात्र तथागत नियोगी ने उन्हें कैनन का एक डिजिटल कैमरा दिया है. यह उनके लिए बहुत उपयोगी साबित हो रहा है.

तथागत का कहना है कि ‘असुरों के पास जो ज्ञान है अब वह कम से कम एशिया के किसी इंसानी समाज के पास नहीं बचा है. खासकर, धातुविज्ञान की प्राचीनतम परंपरा. एशिया से बाहर अफ्रीका के दो-तीन आदिवासी समाज में भी अभी यह ज्ञान परंपरा बची हुई है.’ असुरों के अनुसार उनकी संस्कृती को बचाने के लिए उन्हें और भी संसाधन की अवश्यकता है. असुर झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा संगठन ने भी इन असुरों की आवाज उठाई और इनका सर्मथन किया है.

असुरों का पर्व

हर आदिम जनजाति का अपना एक विशेष पर्व होता है. इसी प्रकार असुरों का भी अपना एक पर्व है. यह फागुन के महीने में मनाया जाता है. इसे ये लोग सड़सी कुटासी के नाम से मनाते हैं. इस पर्व में ये लोग अपने पुराने औजारों के साथ-साथ उस भट्ठी की भी पूजा करते हैं जिसमें ये औजार बनाते थे. इनके समुदाय में एक नेत्रहीन बुजुर्ग आज भी हैं जो कच्ची धातु को हाथ में उठा कर यह बता देते हैं कि इसमें धातु की कितनी मात्रा है.

झारखण्ड का आदिवासी इतिहास

- डॉ. रोज केरकेट्टा

झारखण्ड विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रदेश है। एक ओर यहां प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष और आदिम जीवन की स्वर लहरियां हैं तो दूसरी ओर अति आधुनिक जीवनदृष्टि भी। हजारों वर्षों में हुई भौगोलिक और ऐतिहासिक घटनाओं ने प्रकृति और सभ्यता-संस्कृति, दोनों ही स्तरों पर इसे समृद्ध बनाया है। यहां सुरम्य घाटियां, झरने, नदियां और नयनाभिराम प्राकृतिक संरचनाएं हैं। रत्नगर्भा धरती है। और हैं सामूहिक एवं समन्वित संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी जीने वाले जनजातीय समुदाय। जीवंत गीतों, नृत्यों और अपार साहस व शौर्य की धरती है यह झारखण्ड। आदिवासी पहचान, संस्कृति और स्वतंत्रता के अंतहीन संघर्ष और अदम्य जिजीविषा का प्रतीक।

ऋगवैदिक काल में झारखण्ड कीकट प्रदेश के नाम से जाना जाता था। उस समय का आदिम समुदाय घुमन्तु था और शिकार, पशुपालन तथा जंगली कंद-मूल पर उसका जीवन निर्भर था। ये लोग कौन थे? कहीं बाहर से आए थे या यहीं के मूल निवासी थे, इस बारे में कहीं कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। झारखण्ड के आदिम निवासियों में जिनके पदचिन्ह सर्वाधिक स्पष्टता से दिखाई पड़ते हैं, वे हैं असुर।

झारखण्ड कुल 30 आदिवासी समुदायों का निवास स्थल है। ये हैं - असुर, मुण्डा, संताल, हो, खड़िया, उरांव, माल एवं सौरिया पहाड़िया, बिरहोर, बैगा, बंजारा, बेदिया, बिंझिया, बिरजिया, बाथूड़ी, भूमिज, चेरी, चीक बड़ाईक, गौड़, गोड़ाइत, करमाली, खरवार, किसान, कोरा, कौरवा, लोहरा, महली, शबर खड़िया, खौंड और परहिया। इनमें संतालों की संख्या सर्वाधिक है और ये भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में गिने जाते हैं। झारखण्ड का संताल परगना मुख्यतः इन्हीं से आबाद है जबकि रांची पठार के पूर्वी भाग में मुण्डाओं की बहुलता है। पश्चिम में उरांवों का। नेतरहाट का क्षेत्र असुरों का है तो निम्न पठारीय भागों के उत्तर में भुंइयां, बिरहोर, संताल; पूर्व में संताल, पहाड़िया और भुंइयां; दक्षिण में हो और पश्चिम में चेरो, खरवार,कोरवा आदि।

इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत था और मगध जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हजार सालों तक मगध में एकछत्र शासन किया। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का अध्ययन है कि झारखण्ड के वर्तमान असुर महाभारतकालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुरकालीन ईंटों से तथा रांची गजेटियर 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। असुर मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले इस झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी।

यह भी तथ्य है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। खासकर, हजारीबाग और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं। असुरकालीन समाज और सभ्यता के बारे में अब तक हुए अध्ययन कुछ सूत्र ही दे पाते हैं, विस्तृत परिचय नहीं। पर इतना तय है कि असुरों के समय में और उनके पहले भी झारखण्ड का इलाका निरापद नहीं था। हजारीबाग की इस्को गुफाओं में मिले प्रागैतिहासिक शैल चित्रों और वस्तुओं ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। दामोदर नदी घाटी तथा समस्त झारखण्ड में पाये जाने वाले अनेक पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक अध्ययन भविष्य में मानव जाति और सभ्यता के नितांत नये इतिहास का उद्घाटन कर सकते हैं।

नृजातीय रूप से झारखण्ड के तमाम आदिवासी समुदायों की पहचान - प्रोटो आस्ट्रेलाइड और द्रविड़, दो समूहों में की जाती है। उरांवों को छोड़कर जो कि द्रविड़ समूह के हैं, अधिकांश जनजातीय समुदाय प्रोटो आस्ट्रेलाइड समूह में आते हैं। झारखण्ड के गैर आदिवासी समुदाय जिन्हें कि यहां सदान कहा जाता है, आर्यन समूह के हैं। हालांकि वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में आज अधिकांश सदान अपने आपको अनार्य कहलाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।

भाषायी वर्गीकरण के लिहाज से भाषाविद् झारखण्ड को तीन वर्गों में बांटते हैं। मुण्डा भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार और आर्य भाषा परिवार। उरांव और पहाड़िया जनजातियों की भाषा ‘कुड़ुख’ द्रविड़ है जबकि सदानों की नागपुरी, सादरी, कुरमाली, खोरठा आदि आर्यन। मुण्डा, संताल, खड़िया, हो, बिरहोर आदि मुण्डा भाषा परिवार की भाषाएं बोलते हैं। रांची विश्वविद्यालय भारत का एकमात्र विश्वविद्यालय है जहां क्षेत्रीय एवं आदिवासी भाषाओं के अध्ययन एवं अध्ययापन की व्यवस्था एम. ए. स्तर पर है। फिलहाल झारखण्ड में मुण्डारी, संताली, हो, खड़िया, कुड़ुख, नागपुरी, पंच परगनिया, कुरमाली एवं खोरठा, 9 क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं।

600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ। मुण्डाओं की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरत चंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री’ में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संताल परगना की ओर गई। इन लोगों को आज हम संताल के नाम से जानते हैं जबकि दूसरी शाखा रांची की पश्चिमी घाटियों में उतरी। रांचीकी ओर आनेवाली शाखा मुण्डा कहलाई। ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े।

बाद में, इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से, नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुंचे। जहां उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् रांची की ओर आए। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है जहां मुण्डाओं की बहुलता है।

असुर लोग कृषिजीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते हैं। मुण्डा लोग जब यहां आए तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। मुण्डा लोग न सिर्फ कृषि कार्यों में कुशल थे बल्कि उनका सामाजिक संगठन और प्रशासन बेहद सुव्यवस्थित था। उनकी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था गणतांत्रिक थी। गांव का मुखिया मुण्डा कहलाता था और कई गांव के मुण्डाओं का चुना हुआ प्रतिनिधि ‘मानकी’ होता था। वे सामुदायिक जीवन जीते थे और सामुहिकता उनकी प्राण-वायु थी।

पहली शताब्दी में यहां नागवंशियों का आधिपत्य हो गया। अनुमान है कि पहली ईश्वी के शुरूआती दिनों में नाग जाति जो कि जनमेजय के नाग यज्ञ के बाद से कांतिहीन जीवन जी रहे थे, ने अपनी खोयी शक्ति वापस पा ली थी और समूचे मध्यदेश पर इनका प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इसी नाग जाति के वंशज फणिमुकुट राय ने 19 वर्ष की अवस्था में 83 ईश्वी में यहां नागवंशी शासन की नींव डाली। सुतियाम्बे उनकी पहली राजधानी थी और मुण्डाओं के गणतंत्र का आखिरी सर्वोच्च केन्द्र।

नागवंशी शासन के बाद समूचे झारखण्ड में आर्य संस्कृति-सभ्यता का विस्तार हुआ। इस विस्तार ने आदिवासी एवं सदान, दोनों ही संस्कृतियों के सम्मिलन में युगांतकारी भूमिका निभायी। सांस्कृतिक सम्मिलन से झारखण्ड में ‘सहिया’ संस्कृति का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों के आगमन तक दोनों के संबंध सौहार्द्रपूर्ण बने रहे। सामुदायिक और सामूहिक संस्कृति व जीवनशैली अविच्छिन्न रूप से गतिमान रहा। नागवंशियों का राजतंत्र और आदिवासियों की पारंपरिक गणतांत्रिक परंपरा की समानान्तर धाराएं बिना एक दूसरे को काटे अथवा बाधित किये चलती रही।

इसे छिन्न-भिन्न किया अंग्रेजी राज ने। जिसको यहां के आदिवासी और सदानों ने अपने तीव्र प्रतिरोधों से स्वतंत्रता प्राप्ति तक लगातार चुनौती दी। सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, बाबा तिलका मांझी, बिरसा मुण्डा, जतरा टाना भगत, बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, शेख भिखारी जैसे अनेक झारखण्डी नायकों ने। इन्होंने भारत के अंग्रेजी राज में स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए हुए झारखण्डी जनता के जनविद्रोहों को संगठित, संचालित एवं उसका साहसी नेतृत्व किया। अपनी शहादतें दी।

झारखण्ड मूलतः आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल सिद्धांतों सह-अस्तित्व, सामुदायिकता, सामूहिकता और सहभागी संस्कृति के विरासत का केन्द्र है। जीवन के उल्लास और इंसानियत के विभिन्न रंगों को यहां के गीतों, नृत्यों, पर्व-त्यौहारों व लोक कलाओं में सहज देखा व अनुभव किया जा सकता है। करमा, सरहुल, मागे, बन्दई मुख्य सामाजिक पर्व हैं। स्वर्णरेखा, कोयलकारो, दामोदर और शंख नदियां जीवनरेखा हैं तो हुण्डरू, दसोंग, हिरनी, पंचघाघ आदि जलप्रपात यहां की प्रकृति, वनस्पति और जीवन की स्थायी धड़कन।

(असुरनेशन.इन से साभार)

Monday, October 28, 2013

संकट मन में लि‍ए भेड़ चरते देख रहे हैं

टेलमार्क वाया नॉर्थ कैरोलि‍ना. देखि‍ए, कांसेप्‍ट आधा चुराया हुआ है, इसलि‍ए शब्‍द भी चुराए हुए ही होंगे। इसलि‍ए पहले से ही बता दे रहे हैं कि इस चोरी चकारी में हमारा बड़ा यकीन है। अब ये दूसरी बात है कि चटनी सोका की तरह एक नया म्‍यूजि‍क जन्‍म ले ले, तो सबकुछ ओरि‍जनल ही बन जाएगा। बहरहाल, डि‍स्‍क्‍लेमर अभी से लगा दे रहे हैं कि जबसे मोदी जी खुद को खुदै प्रधानमंत्री घोषि‍त कर दि‍ए हैं, ऊ साउथ इंडि‍या मा बैइठे बाबाजी सिर्फ जाने की बात कहे और हम तो बाकायदा आ भी गए। यहां पर, नॉर्वे में हम फि‍लहाल रह रहे हैं और कुछ भेड़ खरीद लि‍ए हैं। चिंता न करें, हम कि‍सी पाउलो कोएलो से प्रेरि‍त होकर न भेड़ खरीदे हैं और न ही हम उन भेड़ों को रेगि‍स्‍तान के कि‍सी व्‍यापारी के हवाले करने जा रहे हैं। हालांकि सपने अभी भी आते हैं और सुबह उठते ही धुंधले हो जाते हैं।

हम पहले तो कैरोलि‍ना ही आए। वहां हमें फहीम मि‍ले। फहीम मि‍यां अफगानि‍स्‍तान के हैं और वहां पर उनका ऑडि‍यो कैसेट का बि‍न्‍नि‍स था। तालि‍बानि‍यों ने संगीत पर पाबंदी लगा दी और पहुंच गए फहीम की दुकान पर। वहां पर फहीम अपने चचा के लड़के मजकूर के साथ बैठके रात का बना कलेवा तोड़ रहे थे। तालि‍बानि‍यों ने कलेवा तो करने न दि‍या, उल्‍टे दुकान में आग लगाकर दोनों को बांधकर अपने साथ ले गए। कई महीनों तक अफगानि‍स्‍तान की नामालूम से पहाड़ी में इन दोनों से तब तक पत्‍थर तुड़वाए गए, जब तक कि दोनों ने आइंदा जिंदगी में संगीत को कान से न लगाने की कसम खा ली। धीमे धीमे कि‍सी तरह से दोनों ने वि‍श्‍वास जीता और एक दि‍न मौका मि‍ला तो उड़नछू होने की कोशि‍श की। फहीम तो कि‍सी तरह से नि‍कल आए, लेकि‍न मजकूर मि‍यां अभी भी वहीं कंधार की कि‍सी पहाड़ी पर दस्‍तखत कर रहे हैं।

पहाड़ि‍यों से नि‍कलकर फहीम मि‍यां कि‍सी तरह से काबुल पहुंचे। वहां उन्‍हें असद मि‍ला जो लोगों से पैसे लेकर उन्‍हें नॉर्वे भेज देता था। तालि‍बानि‍यों के यहां से भागते वक्‍त फहीम ने वहां जमा डॉलरों पर एक लंबा हाथ भी मारा था। असद ने 20 हजार डॉलर लि‍ए और उन्‍हें सड़क मार्ग से पहले तो अफगानि‍स्‍तान से नि‍काला। उसके
बाद कि‍सी तरह से उनका फर्जी पासपोर्ट बनवाया और एक वीजा उनके हाथ में थमा दि‍या। वहां से फहीम मि‍यां समुद्र के रास्‍ते इंडोनेशि‍या होते हुए नॉर्वे तक पहुंचे। न न, कि‍सी जहाज से नहीं बल्‍कि मछुआरों वाली डोंगी में बैठकर। सबूत के तौर पर फहीम मि‍यां हमसे ये वाली फोटो लगाने को बोले थे। इसमें से दाहि‍ने से तीसरे वाले हैं अपने फहीम भाई।

यहां आने पर फहीम भाई ने 32 भेड़ें खरीदीं और उनके लि‍ए एक चारागाह और रखने के लि‍ए बाड़ा। लकड़ि‍यों का एक घर भी बनवाया जि‍समें पांच खि‍ड़कि‍यां हैं। पांच खि‍ड़कि‍यों की दास्‍तान अलग है तो वो फि‍र कभी। फि‍र कभी मने, हम और फहीम जि‍स कि‍सी दि‍न कबाब वबाब खाने बैठे तो उसका भी जि‍क्र हो जाएगा। ये सारा ताम झाम फहीम ने टेलमार्क में फैलाया। कैरोलि‍ना तो वो अक्‍सर ऊन व्‍यापारि‍यों से सौदेबाजी करने के लि‍ए जाते रहते हैं। वहीं उन्‍होंने हमें बताया कि कैरोलि‍ना थोड़ा महंगा है, अगर टेलमार्क चलकर रहा जाए तो वहां धंधे पानी का भी कुछ इंतजाम हो सकता है और रहने का भी मामला सस्‍ता ही है।

और हम टेलमार्क पहुंच गए।

टेलमार्क की पहाड़ि‍यां काफी घनी हैं। बुरांश और देवदार से भरी हुई। यहां हमारी आसपास के लोगों से दोस्‍ती भी हो गई है। हमने भेड़ें भी खरीद ली हैं और उन्‍हें रोज सुबह फहीम की ही भेड़ों के साथ चरने के लि‍ए भेज देते हैं। दि‍न में कई बार खि‍ड़की पर बैठते हैं और अक्‍सर तब बैठते हैं जब फेसबुक पर आकर अपना मन खि‍न्‍न कर लेते हैं। फेसबुक की दुनि‍या नॉर्वे की दुनि‍या से अलग है। यहां फेसबुक की तरह खि‍ल्‍ल खि‍ल्‍ल क्रांति को खि‍लौना बनाने वाले लोग न के बराबर हैं। अपना सामंती दोष भाषा के माध्‍यम से नि‍कालकर ज्‍योतिबा को तू तुम कहने वाले लोग भी नहीं हैं। यहां तो बड़े तमीजदार और सलीकेदार लोग हैं। फहीम की बीवी सालेहा कभी बुर्का नहीं करती और अगर उसके सामने कि‍सी ने अपशब्‍द कहा तो वो अपशब्‍द नहीं कहती, पर 911 पर डायल करके बता देती है कि फलां ने अपशब्‍द कहा। इसलि‍ए उसे अपशब्‍द कहने की कोई हि‍म्‍मत नहीं करता। सोचता हूं कि अगर ज्‍योति‍बा होते तो अपशब्‍द कहने वालों को क्‍या कहते? 

Saturday, September 28, 2013

कॉर्नर वाला कमरा

आते जाते वो नजरों से बच नहीं पाता था
आना जाना प्रकृति तो नहीं, पर मजबूरी थी
नजरों का उठना, चीजों को देखना
जरूर प्रकृति ही थी।
हालांकि वो प्राकृति‍क नहीं था
फि‍र भी, नजरों से न बच पाना
उसकी नि‍यति थी।
वो गली में कॉर्नर वाला कमरा था।

कमरा, मकान और घर में बस समझने का फेर है।
उसने इसे कमरे का ही तो नाम दि‍या।
और साथ में बसाई
एक चारपाई, एक कुर्सी और मेज।
खि‍ड़की के पास पड़ी मेज और उसपर पड़े बरतन
अक्‍सर दि‍खाई देते थे।
खड़खड़ करते बरतन
सुनाई भी पड़ते थे, संडे के संडे।

एक दि‍न, और उस एक दि‍न के बाद के कई दि‍नों तक
अचानक उस कमरे में बरतनों की आवाज बढ़ गई।
शायद बरतन भी बढ़ गए थे।
कई दि‍नों बरतन खड़खड़ कर गली में ध्‍यान खींचते रहे
कई दि‍नों तक उस कमरे की चुप
आश्‍चर्य में भी डालती रही।
कई दि‍नों तक उस कमरे से
आवाजें भी आती रहीं।
सिर्फ बरतनों की ही नहीं
लोगों की भी।
पर उन आवाजों में कुछ कॉमन था
कॉमन थी वहां से आती
तेज, धीमी आवाज और फुसफुसाहट भी
कराह भी और खि‍लखि‍लाहट भी।
और कान भी आते जाते होने लगे थे अभ्‍यस्‍त।

एक दि‍न, उसी कॉनर्र वाले मकान पर ताला लगा था,
दूसरे दि‍न भी लगा रहा और आने वाले कई दि‍नों तक
उस मकान में ताला लटकता रहा।
उन दि‍नों, भारी बरसात का मौसम था
और सड़ने शुरू हो चुके थे, उस मकान के दरवाजे
ताला बदस्‍तूर लटका हुआ था,
पर दरवाजे कमजोर पड़ चुके थे।

और फि‍र एक दि‍न
ताले सहि‍त दरवाजा भरभराकर नीचे गि‍रा पाया गया
मोहल्‍ले में शुरू हो गईं बातें
तरह तरह की बातें
उजली पीली स्‍याह बातें
बातों का क्‍या है,
अब कमरे के भीतर तो पड़ोस वाली ताई भी तो न गई थीं।
इसीलि‍ए बातें बनीं, और खूब बनीं।
सड़ा हुआ दरवाजा पड़ा रहा, और उस पर
जमने लगी फंफूद और कुकुरमुत्‍ते।
एक एक करके गायब हुए सारे बरतन
कुर्सी और चारपाई भी।
कमरे में लोटने लगे कुत्‍ते और
खड़ी होने लगी उसमें गायें।
पूंछ हि‍लातीं, पगुरातीं और सि‍र इस तरह से हि‍लातीं
जैसे कमरे की दीवारें
उन्‍हें बता रही हों अपनी दास्‍तान
और वो कि‍सी बात से
दीवारों से असहमति जता रही हों।

कमरा गि‍र गया,
दरवाजा तो पहले ही गि‍र चुका था।
कुछ दि‍न तो चीजें यूं ही गि‍री पड़ी रहीं
और फि‍र से एक दि‍न आया
कमरे की नीवें फि‍र से डाली गईं,
कब्‍जा कर लि‍या गया उस पर
और इस बार बनाए गए उसमें
पूरे तीन कमरे
जि‍नमें से एक में
अब रोज सुबह
मंत्रोच्‍चार और घंटी की आवाज आती है,
सब सुखी हैं अब वहां।
और उन कमरों से आती आवाजें
अब बरबस ध्‍यान नहीं खींचतीं। 

Thursday, September 12, 2013

ब्राह्मणवादी पतकार का एक दिन

 इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारि‍ता के पेशे में ब्राह्म्‍ण व अन्‍य सवर्ण जाति‍यां जरूरत से ज्‍यादा हैं। इनमें भी जबरदस्‍त ब्राह्म्‍णवाद है जि‍से जेपी नाम बदलने का नारा देने के बाद भी खत्‍म नहीं कर पाए। उनके नारे के साथ अपने नाम का नाड़ा बांध चुके ये पत्रकार किस मानसि‍कता से लैस हैं, इसका काफी अच्‍छा खुलासा भारत ने कि‍या है। भारत तेज तर्रार युवा पत्रकार हैं जो फि‍लहाल अपनी तेजी के चलते फेसबुक पर कई संपादकों के बैन का शि‍कार चल रहे हैं। प्रस्‍तुत है पूरा आलेख... 
भारत सिंह


तकार वो पूरा था पर उससे पहले था ब्राह्मणवादी, इसका पर्दाफाश बस अभी हुआ जाता है। हालांकि नाम के आगे से उसने अपना ब्राह्मण उपनाम हटा दिया था और वह अब कुछ इस तरह हो गया था- कुमार 'गजेंद्र'। फेसबुक पर अपने नामकरण के बाद उसने घोषणा कर दी थी कि वह आज से ब्राह्मणवादी नहीं रहा, पर ब्राह्मण कहाने में उसे गुदगुदी जैसा फील गुड होता था। गजेंद्र का मतलब उसे पता हो न हो लेकिन वह हमेशा सिंगल कॉमा में घिरा रहता। पतकार ऊंची कॉरपोरेट कंपनी में था, लेटेस्ट मीडियम ऑफ जर्नलिज्म में। आगे है दिन की शुरुआत का आंखों देखा हाल-

फिस पहुंचने के बाद उसने अपने बैग और शरीर को टिकाया और जेब से नए स्टाइल की मगर मैली कंघी निकाली। बालों पर कंघी मारने के बाद मुंह पोंछा और पहला नमन अपने कंप्यूटर के बाईं ओर करीने से
सजाई देवी-देवताओं की चार मिनी मूर्तियों को छोड़ा। दूसरा नमन मिला दाईं ओर लगी दो मूर्तियों को (हालांकि वाम से उसका कोई जुड़ाव नहीं था पर अपनी ही बनाई वास्तु की एक फर्जी खबर पढ़कर उसने बाईं ओर ज्यादा ताकतवर और गुस्सैल देवताओं को जगह दी थी)। गला खंखारते हुए उसने पैंट्री का नंबर मिलाया और संपादकीय अंदाज में आदेश दिया- एक पानी-एक चाय। उधर से आवाज आई- सर एचआर और आईटी में नाश्ता लगाना है, थोड़ी देर लगेगी, करीब आधा घंटा (पतकार पतंगे की तरह जल-भुन गया पर दस कदम दूर पानी और चाय लेने नहीं गया, हालांकि वह जाता तो उसे पता चल जाता कि पैंट्री वाले ने जानबूझकर पतकार को टरकाने को ऐसा कहा था जिसे कुछ गैर ब्राह्मणवादी और पापी पतकारों ने ऐसा सिखाया था)।

कंप्यूटर ऑन करते समय उसे पता चला एक मूर्ति कम है। 'बाप रे बाप'। वह घबरा उठा। इधर-उधर नजर फिराई तो मूर्ति नीचे डस्टबिन में पड़ी मिली। उठाने लगा तो उस पर लगी च्यूइंगम भी हाथ में चिपक गई। बजरंगबली की ऐसी दुर्दशा देख उसकी कंजी आंखों से दो आंसों लुढ़के और गुंदाज गालों का स्पर्श करते हुए उसके मोटे पेट पर जा अटके। यहां पर पतकार भावुक हो चुका था। लेकिन कंप्यूटर पर स्क्रॉल होती खबर देख तीन नैनो सैंकेड में ही उसके आंसू सूखकर आंखों में चमक आ गई। उसके इलाके में एक रेप की खबर चल रही थी। उसने संपादक के केबिन में नजर मारी, वो भी आ चुका था। पतकार ने वहां पहुंचकर लगभग सांष्टांग प्रणाम किया और कहा- सर, बड़ा मसाला है। आगे का हाल-

संपादक- हम्‍मम, बताओ।
पतकार- सर एक लड़की का रेप हो गया, उसी के ब्वॉयफ्रेंड और दो दोस्तों ने किया है।
संपादक- हां, ठीक है, चलाओ।
पतकार- अरे सर, लड़की रात को खाने के बाद खुद अपने ब्वॉयफ्रेंड को घर पर बुलाती थी, कल उसके दो और दोस्त आ गए, बीयर पीकर। घर के पीछे कई बोतलें भी मिली हैं।
हालांकि संपादक नहीं था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी, फिर भी बोला- अरे कहां यार, बचा करो इससे।
पतकार- सर किसी के पास नहीं है ये मसाला, लड़की के पड़ोसी भगवान जी की कसम खाकर बता रहे हैं, अब सर झूठी कसम थोड़ी ना खाएंगे, वो भी भगवान जी की।
संपादक- देख लो यार, अपन को किसी लफड़े में नहीं पड़ना।

केबिन से बाहर को लपकते हुए उसने अगला फोन (ऑफिस के नंबर से) उसने अपने अधीन और सुदूर बैठे पतकार को मिलाया, आगे की बातचीत-

पतकार- कहां रहते हो, सुबह से पांच बार फोन मिला दिया है उठाते क्यों नहीं हो।
छोटा पतकार- सर, नहीं सर, मेरे पास तो कोई फोन नहीं आया।
पतकार- अनरीचेबल रहोगे तो फोन कैसे आएगा, सुनो आज यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा लेना।
छोटा पतकार- पर सर, परसों ही गया था, कोई खबर नहीं मिलती।
पतकार- अरे मिकी (बहन) को घी का डिब्बा और फेयर एंड लवली पहुंचाना है, अब भी कह रहा हूं काम करना भी सीख लो, संपादक जी पूछ रहे थे तुम्हारे बारे में, मैंने कहा ढीला है पर ठीक हो जाएगा।
छोटा पतकार- मन ही मन गाली देते हुए- ठीक है सर।
पतकार ने दो मिनट आंखें बंद कर सोचा
पतकार- और सुनो जो रेप हुआ है उसे पड़ोसियों से बुलवाओ कि लड़की- लौंडे से अपने घर पर मिलती थी, उनसे कहो कि नाम नहीं जाएगा किसी का।
छोटा पतकार- मन ही मन नई गाली देते हुए- ठीक है सर।

तकार ने मन ही मन बजरंग बली को नमन किया और धांसू स्टोरी के आइडिए के बारे में सोचने लगा। सोचते-सोचते उसे एक झपकी आ गई और वह कुर्सी समेत लुढ़कते-लुढ़कते बचा। झटके से आंख खुली तो आंखें लगभग चमक रही थी, उसने कुंभ में तैनात दूसरे छोटे पतकार को फोन लगाया।

पतकार फिर से संपादकीय अंदाज में-  हां, कुछ कर नहीं रहे हो, ऐसे काम चलेगा नहीं।
छोटा पतकार- अरे सर क्या करूं, ये बाबाओं का मेला है और आपको चाहिए मसाला।
पतकार- हम्मम। चलेगा तो वही, कितने बाबा दिखाओगे, ज्यादा बाबा किया तो लोग देखने आएंगे नहीं।
छोटा पतकार- सर आप ही बता दो क्या करूं।
पतकार- यार हम तो जब भी इलाहाबाद में गंगा घाट पर जाते थे वहां कोई न कोई महिला या लड़की नहाते दिख जाती थी और झीने कपड़ों में हो तो भीड़ लग जाती थी उसे देखने को। किसी घाट से ऐसी फोटो नहीं ला सकते हो तुम?
छोटा पतकार- अरे सर लेकिन...
पतकार- अरे यार कोई काम तो कर लिया करो, एक तो तुम्हें खबरों की समझ है नहीं ऊपर से बहस करते हो। आज तक मीडियम ही नहीं समझ पाए हो तुम, अखबार की तरह नहीं है ये मीडियम।
छोटा पतकार- सर किसी ने कैमरा छीन लिया तो, वैसे भी सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है।
पतकार- अरे यार तुम तो लोगों के लिए काम कर रहे हो ना, कोई रोके तो बोलना कि अपने घर के लिए थोड़ी ना कर रहे हैं, लोगों की डिमांड है उनके लिए कर रहे हैं। कल तक मुझे कम से कम तीन सौ फोटो चाहिए लड़कियों के नहाने की। चाहे कपड़ों में हो या बिना कपड़ों के, यहां हम ब्लर करके काम चला लेंगे। बाबा-साबा बहुत दिखा लिए। कुछ ढंग का काम करो।

तकार ने सशरीर शांति ढूंढने की कोशिश की और कुंभ में नहाती लड़कियों के लिए हेडिंग भी ढूंढ ली- देखिए क्या हो रहा है संगम में, नहीं-नहीं....संगम में देखिए स्वीमिंग पूल की मस्ती..हां, ये जबरदस्त रहेगा। इसी बीच फोन घनघना उठा। नंबर देख वह फिर से गिरते-गिरते बचा। सीधे समूह संपादक जी का फोन था।

पतकार- जी सर, नमस्ते सर, आदेश सर
बड़ा संपादक- ये रेप वाली खबर कौन लगाया।
पतकार- सर मैंने लगाई, हटा दूं क्या
बड़ा संपादक- अगर हटानी थी तो लगाई क्यों
पतकार- जी..वो...
बड़ा संपादक- तुम्हें नहीं पता रेप पीड़ित का नाम और पहचान छुपाई जाती है।
पतकार- जी सर, वो लड़की खुद सामने आकर बोली है।
बड़ा संपादक- अरे यार... खट्टाक से फोन रखा
पतकार के हाथ-पांव फूल गए। तुरंत रेप पीड़ित की फोटो ब्लर की लेकिन बड़बड़ाना छूटा नहीं- फोटो ब्लर कर देंगे तो खबर देखेगा कौन, पता नहीं सर भी नहीं समझते हैं। ज्याद कुछ कहूंगा तो कह देंगे डेमो पिक लगाओ...

सके बाद दिन भर पतकार ने दूसरा काम नहीं किया। दोपहर बाद तक पतकार की खबर खूब चली और पतकार ने 35 रुपये के सात समोसे खरीदे और संपादक समेत अपने छह सीनियरों को खिला दिए (चाय फ्री की थी ही)। शाम तक फ्री की पंद्रह-बीस चाय पीने और आधे समोसे के अलावा कुछ न खाने से पतकार के पेट में गैस बनने लगी थी, लेकिन संपादक जी से पहले घर तो नहीं ना जा सकता था। एक लिफ्ट भी मिली थी, लेकिन पतकार ने कह दिया- संपादक जी कहते हैं कि उनके साथ ही जाया करूं (हालांकि संपादक रिक्शे से जाता था और पतकार का घर ठीक उससे उलट था, लेकिन स्वामिभक्ति भी कोई चीज होते है कि नहीं)। इसी बीच उसने सोचा कि ऑफिस में ही हल्का हो लूं तो संपादक जी ने उंगली से इशारा किया कि चलो तो उसने प्रेशर को हैंडल करते हुए राम और हनुमान का नाम लिया और कमर कसकर घर की ओर निकल पड़ा। उसकी चाल में कुछ लंगड़ाहट थी और इसे देख जमाने ने अफसाना बना दिया।