बजार पर चढ़ी शाहनवाज आलम की पोस्ट आतंकवादी कौन बनाता है के जवाब में एक बेनामी टिप्पणी छपी है जिसमें कम्युनिस्टों के नाम लानत भेजी गई है- यह कहते हुए कि मुसलमानों के बीच इनका कोई काम नहीं है और यहां उनका जनाधार भाजपा से भी कम है। इस आक्रोश का कारण चाहे जो भी हो लेकिन बात यह तथ्य से परे है। देश के जिन-जिन इलाकों में कम्युनिस्टों का काम है वहां अन्य समुदायों की तरह ही आनुपातिक रूप से मुसलमानों के बीच भी उनका जनाधार मौजूद है, फिर चाहे वह केरल, बंगाल और त्रिपुरा हो, आंध्र प्रदेश और बिहार हो, या फिर उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों के छिटपुट इलाके हों। यह बताने का मकसद सिर्फ एक तथ्य का हवाला देना है, इसमें आत्मसंतुष्टि जैसी कोई बात नहीं है। यह हकीकत अपनी जगह है कि मुसलमानों के बीच कम्युनिज्म तो क्या उदार-वाम या मध्यमार्गी सोच की भी अपनी कोई मुख्तलिफ धारा नहीं है। इसपर अलग से विचार करने की जरूरत है क्योंकि समाजवादियों से लेकर क्षेत्रीय दलों, और तो और कांग्रेंस तक, शायद ही देश की कोई राजनीतिक धारा दावे के साथ यह कह सके कि मुसलमानों के बीच एक स्वतंत्र सोच के रूप में उसकी मौजूदगी है और वहां जरूरत पड़ने पर वह किसी कट्टरपंथी अलोकतांत्रिक विचारधारा का डटकर मुकाबला कर सकती है। कोई दो पैसे के फायदे के लिए या अपनी किसी मजबूरीवश आपके चुनाव चिह्न पर मोहर मार देता है, इसका मतलब यह तो कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह आपकी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों को अपनी पार्टी या जनसंगठनों में शामिल करना और मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी स्वतंत्र धारा बनाना दो अलग-अलग काम हैं, जिनमें पहला काम वे अपनी समझ के मुताबिक पूरी ईमानदारी और मनोयोग से करते आए हैं। इसमें जो ढीलापोली हुई है उसका शिकार उनका पूरा जनाधार हुआ है, मुसलमानों के लिए इसमें अलग से कहने को कुछ नहीं है। जहां तक दूसरे काम का सवाल है, इस बारे में अलग से उनका कभी कोई एजेंडा नहीं रहा और इसे लेकर उनके बीच काफी कन्फ्यूजन भी देखने को मिलता रहा है। बुनियादी मुश्किल दर्शन और विचारधारा के स्तर पर आती है। एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के बीच नास्तिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है और कम्युनिस्ट उस सामूहिक धार्मिकता के साथ कोई तालमेल नहीं बिठा पाते जो किसी भी मुस्लिम जमावड़े में सहज ही जाहिर होने लगती है। पुराने कम्युनिस्टों का सामना इस मुश्किल से शायद उतना न हुआ हो लेकिन जिन कम्युनिस्टों ने पिछले बीस वर्षों में, यानी 1987 के बाद से मुसलमानों के बीच काम किया है, वे इससे काफी नजदीकी से जूझते रहे हैं। आक्रामक हुए हिंदुत्व ने इस समुदाय के भीतर जो असुरक्षा पैदा की उसमें इस समुदाय के उदार हिस्सों को कम्युनिस्ट अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी मालूम पड़े। लेकिन इस लगाव को कोई दीर्घकालिक स्वरूप नहीं दिया जा सका क्योंकि इसका कोई सांगठनिक या वैचारिक आधार खोजा या बनाया नहीं जा सका। नतीजा यह हुआ कि जो राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां 1989 से 1992 तक लगभग लगातार ही मुसलमानों के खिलाफ चली सांप्रदायिक हिंसा में दुम दबाए घर में बैठी रहीं या वक्त-बेवक्त मुसलमानों के खिलाफ खड़ी रहीं, वे ही बाद में उनका नेतृत्व करने लगीं। जमीनी स्तर पर 1992 के बाद से एक समुदाय के रूप में मुसलमानों का जबर्दस्त अराजनीतिकरण हुआ। विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका से लेकर मीडिया तक हर संस्था से अचानक हुए मोहभंग ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी। आत्मरक्षा के नाम पर वे चुनाव में किसी को भी वोट देने को तैयार होने लगे, मोहल्ले का सबसे कुंदजेहन कट्टरपंथी गुंडा उन्हें अपना रक्षक लगने लगा और घरों के भीतर लाल किले से लेकर ह्वाइट हाउस तक इस्लाम का हरा झंडा गाड़ देने का दावा करने वाले कैसेट और सीडी देखने-सुनने में उन्हें अपने-अपने से लगने लगे। सन् 2004 के अप्रत्याशित सत्ता परिवर्तन के बावजूद यह स्थिति आज भी रत्ती भर बदली नहीं है लिहाजा जो लोग मुसलमानों के बीच वामपंथी या उदारवादी विचारधाराओं की अनुपस्थिति से चिंतित हैं वे यह अच्छी तरह जान लें कि यह मामला बहुत गंभीर है और इस बारे में सिर्फ कम्युनिस्टों की लानत-मलामत करने का मतलब होम्योपैथी से ऐडवांस स्टेज कैंसर का इलाज करने जैसा है। इस बारे में मैं धनिए की छौंक की तरह थोड़ा सा अपना तजुर्बा बता सकता हूं जो हर मायने में किसी भी आम कम्युनिस्ट जैसा ही है। आरा शहर में मुस्लिम इलाकों में हमारा काम पेशा आधारित था। कुछ पेशे ऐसे थे जिसमें मुसलमान मजदूरों की बहुतायत थी। जैसे दर्जी का काम, बक्सा बनाना, कुछ खास तरह के चमड़े के काम, घोड़े की नाल ठोंकने जैसे छिटपुट काम, फुटपाथ की दुकानदारी या ठेले पर अंडा-आमलेट बेचना वगैरह। इन पेशों में हमारी पार्टी सीपीआई-एमएल का पुराना संगठन मौजूद था। काम के दौरान संपर्क में आए हमारे साथी सीधे-सादे जुझारू लोग थे। राजनीतिक आधार पर अपने समुदाय में काम करना या संगठन बनाना उनकी कल्पना से परे था। 1989-92 में इस दिशा में काम शुरू हुआ तो थोड़ी कामयाबी मिली। आरा के मुस्लिम इलाकों में कुल 32 बिरादरियों के लोग रहते थे जिनमें ज्यादातर के चौधरियों के यहां हमारी बैठकें हुईं। और तो और, जुमे के दिन हमें मस्जिदों में भाषण देने के लिए बुलाया गया। लेकिन उसके बाद मुस्लिम समाज के ताकतवर और रसूखदार लोगों को लगने लगा कि अब उनकी हैसियत इतनी ही रह गई है कि वे दर्जियों, बक्सा बनाने वालों और अंडे बेचने वालों के साथ मिलकर मीटिंग करें, नारा लगाएं। नतीजा यह हुआ कि जल्द ही वे लालू यादव की पार्टी के नजदीक चले गए और मुसलमानों के बीच हमारी पार्टी पुनर्मूषको भव वाली स्थिति में आ गई। इस बात को लेकर मैं आश्वस्त हूं कि कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों के बीच अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने का रास्ता वर्गीय और तबकाई संगठनों के निर्माण से ही शुरू होता है लेकिन इसमें भी एक मुश्किल है कि खड्डी चलाने और दर्जीगिरी जैसे मेहनतकश पेशों में भी उनका दखल दिनोंदिन कम होता जा रहा है। जहां तक सामुदायिक पहलकदमी का सवाल है तो देश की तमाम उदार वाम धाराओं को इस बारे में मिलकर कोई पहलकदमी लेनी चाहिए- फिर चाहे वे समाजवादी हों, कम्युनिस्ट हों या गांधीवादी स्वयंसेवी संगठन हों। इस तरह की एक बुनियादी कोशिश राम मनोहर लोहिया ने जमायते उलेमा ए हिंद के जरिए की थी जो ज्यादा सिरे नहीं चढ़ी लेकिन उस कोशिश से जो कुछ भी सीखा जा सके उसे सीखा जाना चाहिए। माले की तरफ से इस दिशा में हुई इन्कलाबी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस अपने संगठन का दायरा पार नहीं कर पाई लेकिन उस पहल से भी कुछ बचाया जरूर जाना चाहिए। विचार के स्तर पर इस मामले में कम्युनिस्टों को एक बड़े जोखिम के लिए तैयार होना होगा। आप सामूहिक धार्मिकता में यकीन करने वाले लोगों और नास्तिक दर्शन में भरोसा रखने वालों को दिल से एक कभी नहीं कर सकते। मेरे ख्याल से कम्युनिस्ट विचारधारा पर काम करने वालों को इन दोनों विचारधाराओं के बीच सैकड़ों या हजारों साल लंबे सह-अस्तित्व और बहस के लिए जगह तैयार करनी चाहिए। लेनिन जब अजरबैजान और उज्बेकिस्तान जैसे तुर्क-मुस्लिम देशों की कम्युनिस्ट क्रांति को ईरान, अफगानिस्तान और अरब मुल्कों तक फैलाने का सपना देखते थे उसके पीछे शायद उनकी कुछ ऐसी ही सोच रही हो। स्टालिन की सोच का टाइम-फ्रेम इतना लंबा नहीं था लिहाजा उन्होंने 15 आजाद समाजवादी मुल्कों के एक ढीले-ढाले लेनिनवादी जमावड़े को रूसी नेतृत्व और लौह दीवारों वाले एक अकेले देश सोवियत संघ में तब्दील कर दिया। इससे न सिर्फ एक लंबी क्रांति योजना का असमय गर्भपात हो गया बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर कम्युनिस्टों को लेकर एक स्थायी संदेह का बीज भी पड़ गया। इसका सबसे पहला शिकार ईरान की तूदे पार्टी हुई, जिसे एशिया की पहली समाजवादी पार्टी होने का गौरव प्राप्त है। बाद में इसी प्रक्रिया की पूर्णाहुति स्टालिन के मानसपुत्र ब्रेज्नेव ने अफगानिस्तान में रूसी फौजें भेजकर कर दी। इस इतिहास को आज पोंछा तो नहीं जा सकता लेकिन मुसलमानों के बीच उदार-वाम विचारधारा के प्रसार को अगर सचमुच कम्युनिस्ट एजेंडा पर लाना है तो भविष्य के लिए सोच के स्तर पर बंद कुछ दरवाजे जरूर खोले जा सकते हैं।
शाहनवाज़ भाई ,
आप ने जिस गहराई से पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण किया है , वह कबीले तारीफ़ है| लेकिन मैं आपकी कुछ बातों से इत्तेफ़ाक नही रखता | मसलन अगर सांप्रदायिकता की बात आती है तो मैं कम्युनिस्टों को भी वही खड़ा देखता हूँ जहाँ भाजपा और कॉंग्रेस जैसी सांप्रदायिकता का समर्थन करने वाली पार्टियों को. फ़र्क बस इतना है कि वामपंथी अगर बाएँ हैं तो ये लोग दाहिने हैं | लेकिन हैं दोनो अगल बगल ही. दोनो की राजनीति की दुकान ही एक दूसरे के विरोध से चल रही है और वो भी सब हवा मे ही. अगर ज़मीने बात करें तो ज़रा मुझे बताइए कि कम्युनिस्टों का मुसलमानो के बीच कहाँ और कैसा आधार है ? क्या गुजरात मे आपका कोई आधार है ? क्या तमिलनाडु मे आपका संगठन मुसलमानो के बीच कोई आधार है ? अच्छा चलिए , ये बताइए कि आपका बिहार के मुसलमानो मे कितना आधार है ? कोई मुसलमान आपका कहा मानता है ? उनमे भी तो उसी तरह के अंतर्विरोध पाए जाते हैं जिस तरह हिंदुओं मे . बल्कि कभी कभी तो ज़्यादा ही पाए जाते हैं , कम नही. अब आप कहेंगे कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं , दबाए गये हैं इसलिए उनकी आवाज़ को प्राथमिकता दी जाएगी . तो भाई साहब कब तक ? और मुसलमानो की जनसंख्या मे भागीदारी पर ध्यान जाता है आपका ? 18 करोड़ से उपर ही हैं , कम नही हैं. इतने मुसलमान तो पाकिस्तान मे भी नही हैं जितने कि यहाँ , भारत मे . हैं. और इस 17 करोड़ मे भी वही हिंदुओं वाला हाल है . कुछ ऊँची जातियाँ सबसे ऊपर हैं उनके नीच फिर उनके नीचे और फिर उनके नीचे. कभी इस बेहाल हुए हाल को आपमे से किसी ने जानने की कोशिश की या उसे ठीक करने की ? जब आपका कोई जनाधार नही है उनके बीच , कोई काम नही है , सिर्फ़ चिल्लाना है तो पड़े चिल्लाते रहिए. कुछ संघ वाले सुनेगे , च्यूटपुटीया छोड़ेंगे , फूल झड़ी जलाएँगे और उसकी रोशनी मे आप भी हर किसी को दिखाई देंगे. लीजिए , आपकी राजनीतिक पहचान का संकट तो हल हो गया. लेकिन मुसलमानों का क्या हुआ ? वो तो हर दंगो मे वैसे ही मारे जाएँगे जैसे कि मारे जाते हैं.