Sunday, December 27, 2009

अवध को बचाइए

अवध, अवध की संस्कृति, अवधी.... एक संस्कृति का नाम है अवध। गंगा जमुनी- जैसा कि लोग अभी तक कहते आये हैं- वो नहीं। अपने मे ही पूरी एक संस्कृति। हिंदू हो या मुसलमान, हिन्दू हो या सिख, हिंदू हो या इसाई, कोई फर्क नहीं। लेकिन हिंदू हो और दलित, तब कुछ अंतर आ जाता है। निगाहें बदल जाती हैं। यहाँ हिंदू वर्सेस अन्य का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि पिछले कुछ दिनों से धर्म की रिपोर्टिंग करते हुए मुझे कुछ ऐसे ही अनुभव मिले हैं. यहाँ सारी चीजें हिंदू वर्सेस ही देखी जाती हैं. जैसे हिंदू वर्सेस मुसलमान, हिंदू वर्सेस इसाई आदि . यहाँ मीठा भी है खट्टा भी है और काफी कुछ कड़वा भी है। समझ नहीं आता कि इसे कोई और नाम भी दिया जा सकता है? नहीं आता....सच। हर रात मैखानो के आगे और अन्दर जमा होती भीड़, चौक पर चाय के लिए मोटर साइकिल पर बैठकर गपियाते लोग। शायद हर उस शहर मे मिल सकते हैं , जिसने अपनी मासूमियत बचा पाने मे गनीमत पाई हो। इसलिए ये कुछ नया नहीं है। लेकिन कुछ और है, जो नया नहीं है, लेकिन वर्तमान मे हो रहा है, इसलिए चिंताजनक है। अवध पर हमेशा से ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की छाया रही है या यू कहे कि अवध ब्राह्मणवाद के आगोश मे रहा है। पिछले कुछ सालों से पहले ये खुले आम चलता था। लेकिन अवध मे कुछ पैरलल सोच रखने वालों ने इस पर कुछ हद तक रोक और वो भी चर्चा करने के लिए चर्चा ही न हो , के बहाने लगे हुई थी। लब्बो लुआब ये है कि या खत्म या फिर कम नहीं हुआ था। लेकिन हकीकत ये है कि कुछ तो राहत मिली थी, भले ही वो वक्ती क्यों न हो। लेकिन इन दिनों अवध एक बार फिर से उसी ब्राह्मणवाद के हवाले होने जा रहा है, होने की राह पर है। अभी कुछ देर पहले मैंने फैजाबाद की एक खबर पढ़ी। उस खबर मे कोई सिंह हैं तो कोई पांडे हैं तो कोई उपाध्याय हैं। इन लोगो ने मिलकर अवधी जन जागरण यात्रा निकली है। इनकी मांग है अवध को पूरी उत्तर प्रदेश की राजधानी बनाना. इस यात्रा का अंतिम पड़ाव नेपाल मे होगा, इसका विषय अवधी होगा और नेपाल रेडियो इसे प्रसारित भी करेगा। जैसा कि जाहिर है, नेपाल मे माओवाद अब नहीं है। माओवादी मधेसियों को निकाल बाहर करने की फ़िराक मे हैं। ऐसे मे इसका क्या मतलब हो सकता है, कहना जरूरी नहीं है।हो सकता है कि नेपाल मे वर्तमान से लेकर अगले कुछ सालो के भविष्य पर नेपाल मे फिर से उसी राजशाही की शुरआत हो रही हो, गौरतलब है कि राजशाही के लिए राजसी खून का होना जरूरी नहीं। इन सबके बावजूद, अभी तक अवध मे जो चाय पार्टी चलती थी, वो बुरी तरह से दूषित हो रही है। अपने इन्ही चाय पार्टी वाले दोस्तों से बात हो रही थी। वो नहीं चाहते क्योकि शहर की नब्ज़ ऐसा ही कुछ कह रही है। शहर नहीं चाहता कृष्ण को खुद से जुदा करना। राम का शहर है ये। लेकिन ब्राह्मणवाद वही फूलता है जहा विरोधी होते हैं। क्योंकि तभी उसकी सार्थकता होती है। तो, अवध ब्राह्मणवाद के हवाले होने जा रहा है। इसे बचाइए। क्योकि यहाँ, इस इलाके मे अवसर बहुत कम हैं। फिर भी यहाँ के लोग एक दूसरे से- सबसे तो नहीं, प्यार करते हैं। उन्हें चाहते हैं। वो नहीं चाहते किसी से दूर जाना।

Tuesday, December 8, 2009

धीमे धीमे पकता है......


"धीमे धीमे पकता है सपना"
कैप्शन बाई- प्रमोद सिंह

Tuesday, November 24, 2009

लिब्राहन आयोग रिपोर्ट नही, साजिश है

जिस वक्त संघ और बी जी पी ने पूरे मुल्क को जहर की जद मे ले लिया था, कुछ कथित समाचार पत्र भी उसी जहर की जद मे आकर जहर फ़ैलाने का काम कर रहे थे, उस वक्त अयोध्या मे के पी सिंह शायद उन गिने चुने पत्रकारों मे एक थे जिन्होंने जहर को मानने से ही इनकार कर दिया थालिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर के पी सिंह मानते हैं कि रिपोर्ट कोई सजा नही है, बल्कि ये मौजूदा हालात को एक बार फ़िर से भुला देने के सोची समझी कवायद है, साजिश हैऔर यही कारण है कि संसद सत्र के आखिर मे पेश होने वाली लिब्राहन योग की रपट लीक हुई और संसद सत्र के शुरुआत मे पेश की गई. ताकि मूलभूत समस्याओं की जगह अगर बहस हो तो मन्दिर पर-जिससे किसी का पेट नही भरने वाला, किसी हाथ को काम नही मिलने वाला. पेश है लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश.....

लिब्राहन आयोग के ये जो एक्शन टेकन रिपोर्ट है, इसकी टाइमिंग से मुझे काफ़ी दिक्कत है। जो आयोग किसी रिपोर्ट मे इतना ज्यादा वक्त लगा दे, उसकी विश्वसनीयता पर मुझे संदेह है। जो आयोग अपने लिए इतने एक्सटेंशन मांगता है, और एक पीढ़ी पूरी ख़त्म हो जाती है उसकी रिपोर्ट आने मे, और उसके बाद वो रिपोर्ट देता है। रिपोर्ट देने से पहले, रिपोर्टिंग कार्यकाल मे उसके अपने ही वकील से नाइत्तेफाकी होती है, जो उसकी विश्वसनीयता पर संदेह खड़े करते हुए उससे अलग हो जाता है। ऐसे मे ये जो रिपोर्ट है, इसे मैं बहुत प्रमाणिक मानने के लिए तैयार नही हूँ। और दूसरे इस रिपोर्ट पर जो भी रियेक्शंस आ रहे हैं, वह सब राजनितिक स्वार्थ साधने वाले ऐक्संस हैं। सबने अपनी अपनी लाइन ले ली है। कांग्रे का खेल बिगाड़ने के लिए मुलायम सिंह कह रहे हैं कि विवादित स्थल पर मस्जिद बननी चाहिए, जो अब तक उन्हें याद नही थी। क्योंकि मुलायम सिंह से अल्पसंख्यक रूठ कर चले गए हैं। वही राष्ट्र के नाम संदेश मे नरसिंह राव ने बयान दिया था कि मस्जिद का निर्माण कार्य कराया जाएगा। लेकिन ऐसा नही हुआ। इसलिए अब मुझे बी जे पी से ज्यादा कुसूरवार कांग्रेस नजर आ रही है। बी जे पी का जो खेल था, वो उसने किया और उससे लाभ उठाया। अब अगर इसमे इन लोगो को सजा नही मिलती है, और मुझे विश्वास है कि नही मिलेगी। क्योंकि सी बी आई ने जो चार्जशीट फ़ाइल की है, उसमे से अडवाणी की आवाज ही गायब है। जिस वक्त अडवाणी गृहमंत्री थे, उस वक्त उन्होंने ये खेल किया। तो योग की रिपोर्ट पर बहस अब सिर्फ़ लकीर पीटने जैसा है। रिपोर्ट मे छद्म उदारवाद का जो जिक्र हुआ है उसका ठीक ठीक मतलब तो लिब्राहन साहब ही बता सकते हैं। और अगर इस शब्द पर बहस हो तो खाली ये कहने से काम नही चलेगा कि बी जे पी कैसे थी। इस शब्द का अर्थ तभी समझा जा सकेगा जब आप (कांग्रेस ) बताएँगे कि आप कैसे हैं। क्योंकि बी जे पी को जो करना था, वो वह कर के गई और देश की जनता ने उसे कूड़े पर डाल दिया। अब कांग्रेस को बताना ही पड़ेगा कि जिन लोगों ने पूरे देश को कठघरे मे खड़ा कर दिया, उनका क्या करने जा रहे हैं? लेकिन कांग्रेस से ये सवाल पूछे कौन? क्या संसद मे बैठा विपक्ष? विपक्ष देश मे है ही नही। सवाल पूछने वाले विपक्ष को अभी इस देश मे बनना है। फिलहाल दिखने वाला विपक्ष सत्ता का ही एक संस्करण है। इतनी सरकारें देश ने देखी, यहाँ तक कि कम्युनिस्टों की भी, लेकिन किसी मे कोई फर्क नजर तो नही आया। इसका सीधा सा मतलब है, संसद मे विपक्ष है ही नही। खाली संसद मे विपक्षी दीर्घा मे बैठा विपक्ष नही होता। तो कुल मिलकर ये सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की सोची समझी साजिश है, खासकर कांग्रेस की। क्योंकि ऐसे वक्त मे जब देश मे बेरोजगारी चरम पर है, मंदी की मार से युवा वर्ग टूट रहा है, रही सही कसर महगाई पूरी कर दे रही है। तो इस वक्त ऐसे थोथी बातों का शिगूफा खड़ा करने का मतलब क्या है? कहीं ये देश की मूलभूत समस्याओं को एक झटके मे भुला देने की साजिश तो नही है?

Friday, November 6, 2009

आज मे बीतता हुआ कल- प्रभाष जोशी

उन्हें युगपुरुष कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी। एक बार उन्होंने ही कहा था कि अखबार कल का इतिहास बनाता है। बीते हुए कल का। उनकी ये बात कोई नई नही है। अखबार का चरित्र ही कुछ ऐसा है। लेकिन अखबार का एक और चरित्र होता है। एक अनोखा रूप, रंग, भाषा, संवाद शैली और निष्पक्षता। ये अखबार का सम्पादक बनाता है। ये काम प्रभाष जी ने किया और क्या खूब किया। उन्होंने नई दुनिया मे काम किया, मध्य प्रदेश के एक और अखबार मे काम किया लेकिन उनकी सारी यादें जनसत्ता मे ही सिमट कर रह जाती है। जनसत्ता से इतर जो यादे हैं, वो एक ऐसे अभिवावक की, जिसपर भरोसा रहा, हमेशा भरोसा रहा कि जब भी किसी पत्रकार के साथ कुछ हुआ या होगा, वो साथ रहेंगे। शारीरिक रूप से नही तो कलम से, माइक से या किसी भी तरह से। उनके रहने से डर नही लगता था। उनके चले जाने के बाद अब यह डर एक आत्मविश्वास मे बदलने लगा है कि वो ऐसा कर सकते थे तो हम क्यों नही। लेकिन ये आत्मविश्वास भी बगैर उनके खोखला है, सूना है। वो कल थे जो हमेशा आज के साथ बीतते थे। आने वाले कल मे भी उनका ही साया रहता था और साथ मे इंतज़ार- कि कल क्या होगा। पिछले दस से ज्यादा सालों मे, जबसे मैंने उन्हें पढ़ना-गुनना शुरू किया, हमेशा मन मे यही उत्कंठा रहती थी, न जाने कब मैं इस शख्स से मिल पाउँगा। उनके घर के इतने पास रहते हुए भी मैं कभी मिलने नही जा पाया। और शायद यही कारण है कि उनकी मौत की ख़बर सुनकर भी मैं जान बूझकर उनके घर नही गया। मुझसे ये सबकुछ बिल्कुल भी बर्दाश्त नही हो रहा था। क्योंकि ख़ुद उनका कहा आज बेमानी साबित हो रहा है। उनकी मौत पूरी तरह से बेमानी है। जो नही होनी चाहिए थी। लेकिन मौत को जस्टिफाई नही किया जा सकता। ये बात मैं जानता हूँ। फ़िर ये मन मानने को तैयार क्यों नही होता कि वो आज बीते हुए कल हो गए हैं। नही.....ऐसा नही हो सकता। गुरूजी हमेशा हैं और रहेंगे। जैसे पिछले दस सालों से मेरे साथ हैं, वैसे ही आगे भी रहेंगे.....

Thursday, September 24, 2009

गोल वार्निंग : नहाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

अब भई , अपनी उत्तर प्रदेश सरकार के इस रवैये से हम भी इत्तेफाक रखते हैं। आदमी को नहाना नही चाहिए। नहाना खतरनाक हो सकता है। और ये कोई आज से नही, बचपन से झेल रहे हैं। बचपन मे जब हम चुपके से गुप्तार घाट पर पतारू के साथ भागकर नहाते थे, और लौटकर आते थे तो अनिल की अम्मा से लेकर अगम और मेरी अम्मा तक सोंटी लेकर पीछे पड़ जाती थीं। कि कैसे हिम्मत हुई बगैर पूछे गुप्तार घाट जाने की और वहां नहाने की। दो चार सोंटी का परसाद देकर ही मेरी और बाकी मोहल्ले की अम्माओं को चैन मिलता था। उसके बाद जब मौसी के यहाँ बाथरूम की नाली बंद करके बाथरूम मे पानी भरकर नहाते थे, तो मौसी पीछे पड़ती थी। तब से आज का दिन है, हम बेवजह नहाते ही नही। भले ही दो-दो दिन गुजर जायें। और वैसे भी उत्तर प्रदेश का जो इतिहास रहा है, उसमे नहाना काफी बुरा विषय माना गया है। अपने मुरलीवाले (अरे मुरली मनोहर ही, जोशी नही ! ) अक्सर गोपियों के कपड़े नहाते वक्त ही चुराते थे। पूरा गाँव उल्हाना देता फिरता था। कुम्भ के मेले मे एक बस नहाने के लिए लाखों लोग भागे चले जाते हैं। काहे भई? घर पे पानी नही आ रहा होता है क्या? एक बार तो इसी नहान के चक्कर मे अयोध्या के पास बड़ी रेल दुर्घटना हुई थी, कई लोगो की जान चली गई थी। नहाने से बचने का उल्लेख हमारी पुरानी किताबों मे भी मिलता है। कि फला देवता नहाने ही तो गए थे कि कोई उनका पैर ही पकड़े खीचे चला जा रहा था। बड़ी मुश्किल से अपने साथी देवताओं का ध्यान किया, मख्खन लगाया, तब कही जाकर छूटे। अब ऐसे मे कांग्रेस देस के युवराज भइया राहुल गाँधी अपने छेदी भइया के घर हैंडपंप से नहा लें, तो उत्तर प्रदेश सरकार और अब बहन नही, अम्मा मायावती को बुरा लग जाय तो इसमे हैरानी की कोई बात ही नही। भई , पुराना इतिहास रहा है प्रदेश का। उत्तर से उत्तम होते हुए भले चाहे गन्धैलों का प्रदेश हो जाए। छेदी भइया भले ही गदगद हो जाए, नहाना खतरे से खाली नही है। एक बात नही समझ आ रही है, अम्मा मायावती का झगडा राहुल के हैंडपंप के नीचे बैठकर नहाने से है, या सिर्फ़ नहाने से है या फ़िर एस पी जी वालों की सुरक्षा मे नहाने से है? अब ये तो खैर वही बता सकती हैं। लेकिन एक नहाने के मुद्दे पर पूरी एक सरकार का भड़कना.....
लेकिन ठीक भी है। रोज रोज नहाने से एक तो साबुन घिसता है और अगर ऐसे मे किसी छेदी भइया जैसे के घर पर नहाया जाय तो क्या पता? कल को वह घिसे हुए साबुन का हर्जाना मांग बैठे? ऐसे मे तो प्रदेश सरकार के राजकोष पर बुरा असर पड़ेगा। पार्क बनने बंद हो जायेंगे, लखनऊ की विकास योजनायें अधूरी रह जाएँगी, बिजली तो वैसे ही रुला रही है, तब और भी रुलाने लगेगी। सरकार का पूरा ध्यान साबुन की आपूर्ति मे ही लग जाएगा। अब एक साबुन के लिए तो सरकार बैठी नही है। बिजली की कोई जिम्मेदारी नही है। सड़क क्या होती है, अभी तक समझ मे ही नही आया, हाँ, साबुन क्या होता है, ये जरूर समझ मे आ रहा है। आखिर राजकोष से चवन्नी निकल जाने का खतरा जो है। लेकिन सरकार के पंच प्यारों पर भरोसा रखिये। जल्द ही वह प्रदेश का साबुनीय घाटा पूरा करने के लिए साढ़े दो हजार करोड़ का एक मांग बजट केन्द्र के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब इस साबुन से लखनऊ के तरह तरह के पार्कों मे लगे पत्थर नहायेंगे या फ़िर छेदी पासवान। इसके बारे मे सूचनाएँ अभी गोपनीय रखी जा रही हैं। बहरहाल, प्रदेश मे रहने वालों के लिए इतना ही संदेस काफ़ी है कि नहाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।