Friday, July 31, 2009

मिल गया एक कनेक्शन

चंद लाइने हैं जो शायद ख़ुद को मुबारक बाद देने के लिए हैं, या फ़िर एक बीते हुए युग को याद करके उसे दोबारा वापस पाने की खुशी मे हैं.. मुझे एक इंटरनेट कनेक्शन मिल गया है, जाहिर है, अब ब्लॉग्गिंग फ़िर से शुरू हो सकती है, तकरीबन शुरू हो चुकी है। बजार खुल चुका है... देर है तो अभी दुकानों के लगने की। वैसे शनि बजार की मानिंद सुबह सुबह ही तख्ते गिरने शुरू हो गए हैं.... मिस्टर बजार .... मुबारक हो....

Sunday, December 7, 2008

क्या हिंदू और क्या मुसलमान

hइंदु होने के फायदे- १०

अम्मा से दस रुपये लेकर मैंने पतारू का हाथ थामा और बढ़ लिया। अब हम लोगों की निगाह मे दो टारगेट थे। एक तो वो लड़की जो नदी मे नहा रही थी और दूसरी वो लड़की जो डम्पू के घर मे रहने आई थी। हमें पता था कि वो अपने पापा के साथ आई है और हम लोगों ने उसे बाग़ की दिवार फांदने से पहले देखा भी था। हमें नदी मे नहाने वाली लड़की नही दिखी। दरअसल सरयू पार करने के बाद परिक्रमा के दूसरे हिस्से मे रास्ता काफ़ी चौडा हो जाता है। इसलिए भीड़ भी तितर बितर हो जाती है। अब न तो हम लोग बदमाशी कर सकते थे और न ही कोई और। मजबूरन हमें सीधे सीधे चलना पड़ रहा था। खैर, लम्बी गहरी साँस लेकर मैंने पतारू और कल्लू ने एक साथ परिक्रमा पूरी कि। लेकिन अभी तो बधाइयों का सिलसिला चलना था। ये बधाइयाँ कुछ हैप्पी न्यू इयर के अंदाज़ मे दी जाती थी। जाल्पानाला से अमानीगंज तक हम लोग लड़कियों को बधाइयां देते हुए आए। घर पहुचे तो अम्मा और बाबू , जो हमसे पीछे पता नही कहाँ थे, पहले से ही पहुचे हुए थे। मम्मी परात मे नमक मिला गर्म पानी ले आई थी और बाबू और अम्मा उसमे अपना पैर सेंक रहे थे। मैंने बाबू को बताया कि मैंने पतारू और कल्लू ने कितना मजा लिया। फ़िर क्या था। अम्मा सुलग उठीं। उन्होंने पुछा, कल्लू काव करय गवा रहा तू लोगन की साथे ? ऊ तौ मुसलमान हुवे । मैं चुप। टुकुर टुकुर बाबू का मुह देख रहा था। शायद वो कोई जवाब देन। खैर बाबू खंखारे, और अम्मा से बोले, अब छोटे बच्चों मे क्या हिंदू और क्या मुसलमान। खाने खेलने की उम्र है इन लोगों की। और वैसे भी ये लोग हमेशा साथ मे ही रहते हैं। और तुम कल्लू को लेकर इसे बोल रही हो, तुम भी तो अली हुसैन की अम्मा के साथ सर से सर जोड़कर बतियाती रहती हो। तब नही याद आता कि क्या हिंदू और क्या मुसलमान?

Sunday, November 30, 2008

सवाल दस रुपये का

हिंदू होने के फायदे - ९

राम की पैडी पर जब हम लोग समोसे खा रहे थे, तब मुझे याद आया की अम्मा ने तो सिर्फ़ दस रुपये ही दिए हैं। वो सारे तो वही ख़त्म हो गए। अब क्या करें। बड़ी मुसीबत। आगे आने वाले रास्ते पर एक अजीब तरह का ताना बिकता था। बेचने वालों का कहना था कि उसे भगवान् राम ने अपने वनवास के टाइम पर खाया था, और अक्सर खाते रहते थे। बहरहाल मुझे वो खाना अच्छा लगता था। उसका अजीब सा कसैला और मीठा स्वाद मुझे अभी तक याद है। यही सोच ही रहा था कि पतारू के बड़े भाई प्रेम परकास नजर आए। प्रेम ने बताया कि अम्मा बाबू और चचेरे मामा की चोटी बेटी अभी अभी आगे गए हैं। बड़ी हद चोटी छावनी तक पहुचे होंगे फ़िर क्या था। मैंने और पतारू ने वही से दौड़ लगनी शुरू की। परिक्रमा मे दौड़ लगानी काफ़ी मुश्किल होती है। हजरून लोगों की एक ही तरफ़ चलती भीड़ मे हमें दौड़ना था। और इतनी तेज़ कि आने वाले दस पन्द्रह मिनट मे अम्मा को पकड़ लिया जाय नही तो वो मिलने वाली ही नही थीं। आख़िर दस रुपये का सवाल जो था। ये तो पहले से ही पता था कि अम्मा वो लाल वाला गन्ना तो खरीदेंगी ही। सो लाल वाले गन्ने की चिंता नही थी। मैंने और पतारू ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा और दौड़ना शुरू कर दिया। आख़िर मे चोटी छावनी के पास जहा मन्दिर के लिए पत्थर काटे जा रहे थे, वहां पर हमें आमा और बाबू दिख गए। चैन मिला। लम्बी साँस ली और पहुचे अम्मा के पास। खैर अम्मा ने डपटा नही और चुपचाप दस रुपये दे दिए। मैं भी सोच रहा था कि अभी कितनी चिरोरी करनी पड़ेगी।

जारी ....

देर से आने वालों के लिए पूरी कहानी यहाँ पढ़ें .... हिंदू होने के फायदे

Saturday, November 29, 2008

रंग दे बसंती

मुंबई कांड से मुझे फ़िल्म रंग दे बसंती याद आ रही है। दिखने मे तो वो एकदम नौजवान ही तो थे। एक की तो फोटो, जो अखबार मे छापी है, उससे तो वो एकदम आमिर खान की तरह लग रहा है। बताते हैं की योजना किसी और की थी, और इसे कार्यान्वित दाउद किया था। दाउद पहले ही अलकायदा से मिल चुका है और उसके साथ काम भी कर चुका है। और समुद्र से मुंबई मे घुसने की इन लड़कों की जो स्टाइल थी, वो पूरी तरह से मुम्बैया दाउद स्टाइल ही थी। बड़े आराम से इनलोगों ने मोटर बोट पकड़ी, ज्यादा पैसे नही चाहिए थे क्योंकि सब कुछ का पहले से ही इंतजाम था। और होटल ताज मे , ऐसी स्थिति मे हथियार अन्दर पहुचाना कोई मुश्किल भी नही था। लेकिन फ़िर से इन लड़कों की रंग दे बसंती स्टाइल मे ये सब करना मुझे हजम नही हो रहा है। दरअसल कसूर इन लड़कों का नही है, कसूर तो उन लोगों का है जिन्होंने इन लड़कों को इस तरह से भड़काया की ये लोग अपनी मौत के लिए भी तैयार हो गए। इन्हे पता था की ये नही बचेंगे। लादेन ऐसे ही लड़कों को तैयार करता है। अगर ये लड़के पकिस्तान के भी थे, तो पढ़े लिखे सभ्य घर के लगने वाले .... अब तो ये बात पकिस्तान को भी समझ लेनी चाहिए की उसकी कौन सी नस्ल अब आतंकवाद का शिकार हो रही है। ये खतरे की घंटी है, सचमुच। मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो जाते हैं ये सोच कर के दक्षिण एशिया के एक हिस्से मे कौन सी नस्ल बन्दूक की लडाई मे हिस्सा ले रही है। नोट करें, लादेन और उसके कई साथियों ने मिलकर इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर ऐसे ही लड़कों की एक बड़ी फौज तैयार की है, और जो सबसे चिंता की बात है की उसमे पढ़े लिखे लोगों की संख्या काफ़ी ज्यादा है। ये मुगालते मे ना रहें के बन्दूक से निकला जहर हमारे देश मे नुक्सान नही करेगा , बिल्कुल करेगा और यहाँ भी नई उम्र के लड़के अपराध और बन्दूक की लडाई मे ही हिस्सा ले रहे हैं। यानि की नुक्सान होना शुरू हो गया है, मेरे ख्याल से मुंबई तो एक टेलर है, अभी तो इन लोगों से कायदे से जंग की शुरुआत की है। अमिताभ ने अच्छा किया जो तकिये के नीचे रिवाल्वेर रख कर सोये ।
जिसे हम आतंकवाद का नाम देते हैं, उसे ये लोग जंग का नाम देते हैं. चाहे इस्लामिक आतंकवाद हो या फ़िर हिंदू आतंकवाद.... नही, इसे हिंदू आतंकवाद न कह कर मेरे ख्याल से हिंदुत्व आतंकवाद कहना चाहिए। क्योंकि जो लोग जिन तरीकों से मुसलमान लड़कों को बरगलाते हैं, वैसे ही हिंदुत्व के आतंकवादी हिंदू होने के नाम पर फिदायीन दस्ते तैयार कर रहे हैं। कुल मिलकर जंग शुरू हो गई है, अमिताभी ने भी इशारा कर दिया है। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। क्योंकि अब आप भी , भले ही उस दस्ते से सम्बन्ध नही रखते, तो भी , मारे जा सकते हैं। देखतें हैं की सी बार गाजिआबाद मे कितने नए हथियारों का रजिस्ट्रेशन होता है....

Thursday, October 23, 2008

एक मुलाकात वापस

गुफरान मेरे बचपन के दोस्त हैं लेकिन इनके लिखने की क्षमता का मुझे काफ़ी बाद मे पता लगा। ये तो खैर उनकी एक कविता है जो मुझे अपने पुराने दिनों मे वापस लेकर जाती है, लेकिन अपने ब्लॉग http://awadhvasi.blogspot.com/ पर गुफरान ने अपनी कलम के काफ़ी रंग बिखेरे हैं...

याद आता है वो फैजाबाद
वो चौक का शमां, वो परम् की चाट
वो पार्लर की आइसक्रीम उसमें थी कुछ बात
वो मधुर की मिठाई वो बंजारा का डोसा
वो जलेबी के साथ जाएके का समोसा
वो बाइक का सफर वो कम्पनी गार्डेन की हवा
वो गुलाबबाडी की रौनक वो बजाजा का शमां
वो जीआइसी में मैच हारने पर झगडा
वो न जाना क्लास मैं कभी और रहना पढाई से दूर
याद आता है वो फैजाबाद
वो जनवरी की कड़ाके की सर्दी ,वो बारिशों के महीने...