सिंधु घाटी की सभ्यता और नौ सौ साल लंबा सूखा
लेह-लद्दाख की त्सो-मोरीरी झील में पांच हजार साल पुरानी मिट्टी की तहों के जरिये मॉनसून पैटर्न्स का अध्ययन करने के बाद आईआईटी खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने सिंधु घाटी सभ्यता के खत्म होने का विचित्र कारण बताया है। उनका कहना है कि लगभग 4350 साल पहले सिंधु घाटी में नौ सौ साल लंबा सूखा पड़ा था।
ताज्जुब की बात है कि नौ सौ तो क्या, सौ-पचास साल लंबे सूखे का भी कोई जिक्र हमें किसी वेद-पुराण में नहीं मिलता। लेह-लद्दाख की झील में मौजूद मॉनसून के निशान बताते हैं कि इतनी लंबी अवधि तक उत्तर-पश्चिम हिमालय में बारिश न के बराबर हुई और इसके चलते पंजाब की जो नदियां पानी से भरी रहती थीं, वे सब सूख गईं। सिंधु घाटी की सभ्यता कभी इन्हीं नदियों से गुलजार रही होगी।
मॉनसून की इस स्थायी बेरुखी के चलते सिंधु घाटी में बसे लोग पूरब की गंगा घाटी में और दक्षिण दिशा की ओर चले गए। आईआईटी खड़गपुर के भूविज्ञान और भूभौतिकी विभाग के वैज्ञानिकों ने पाया कि नौ सौ साल लंबा यह सूखा लगभग 2,350 ईसा पूर्व से शुरू होकर 1,450 ईसा पूर्व तक चला।
दुख की इतनी लंबी अवधि की कोई थाह व्यास और वाल्मीकि जैसे हमारे महाकवि भी नहीं लगा पाए, जिनकी लिखाई भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में समादृत है। बताया जाता है कि महाभारत में जिस समय का जिक्र है, वह 3100 से 1200 ईसा पूर्व का है, पर इतने असहनीय सूखे का कोई जिक्र महाभारत में भी नहीं मिलता है। 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रहे वैदिक काल की किसी ऋचा में भी इसकी कोई भनक नहीं मिलती है।
वैज्ञानिकों की यह रिसर्च बीसवीं सदी में पेश की गई उस धारणा को भी सीधी चुनौती देती है कि 3300 ईसा पूर्व से 1700 ईसा पूर्व तक चली सिंधु सभ्यता का पराभव किसी दो सौ साल लंबे सूखे से हुआ था। जाहिर है, आईआईटी खड़गपुर के इस शोध को कड़ी कसौटियों पर परखा जाएगा। मसलन, यह सवाल भी उठेगा कि इतने लंबे सूखे के निशान दक्षिण-पश्चिम एशिया के बाकी भूगोल में क्यों नहीं दर्ज किए जा सके? एक बात तो तय है कि इतिहास की नवीनतम खोजें भूविज्ञान, भूभौतिकी, जेनेटिक्स और कंप्यूटर मॉडलिंग के दायरों से आ रही हैं। भारत जैसे इतिहासग्रस्त समाज में इन खोजों को ज्यादा तवज्जो मिलनी चाहिए।
ताज्जुब की बात है कि नौ सौ तो क्या, सौ-पचास साल लंबे सूखे का भी कोई जिक्र हमें किसी वेद-पुराण में नहीं मिलता। लेह-लद्दाख की झील में मौजूद मॉनसून के निशान बताते हैं कि इतनी लंबी अवधि तक उत्तर-पश्चिम हिमालय में बारिश न के बराबर हुई और इसके चलते पंजाब की जो नदियां पानी से भरी रहती थीं, वे सब सूख गईं। सिंधु घाटी की सभ्यता कभी इन्हीं नदियों से गुलजार रही होगी।
मॉनसून की इस स्थायी बेरुखी के चलते सिंधु घाटी में बसे लोग पूरब की गंगा घाटी में और दक्षिण दिशा की ओर चले गए। आईआईटी खड़गपुर के भूविज्ञान और भूभौतिकी विभाग के वैज्ञानिकों ने पाया कि नौ सौ साल लंबा यह सूखा लगभग 2,350 ईसा पूर्व से शुरू होकर 1,450 ईसा पूर्व तक चला।
दुख की इतनी लंबी अवधि की कोई थाह व्यास और वाल्मीकि जैसे हमारे महाकवि भी नहीं लगा पाए, जिनकी लिखाई भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में समादृत है। बताया जाता है कि महाभारत में जिस समय का जिक्र है, वह 3100 से 1200 ईसा पूर्व का है, पर इतने असहनीय सूखे का कोई जिक्र महाभारत में भी नहीं मिलता है। 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रहे वैदिक काल की किसी ऋचा में भी इसकी कोई भनक नहीं मिलती है।
वैज्ञानिकों की यह रिसर्च बीसवीं सदी में पेश की गई उस धारणा को भी सीधी चुनौती देती है कि 3300 ईसा पूर्व से 1700 ईसा पूर्व तक चली सिंधु सभ्यता का पराभव किसी दो सौ साल लंबे सूखे से हुआ था। जाहिर है, आईआईटी खड़गपुर के इस शोध को कड़ी कसौटियों पर परखा जाएगा। मसलन, यह सवाल भी उठेगा कि इतने लंबे सूखे के निशान दक्षिण-पश्चिम एशिया के बाकी भूगोल में क्यों नहीं दर्ज किए जा सके? एक बात तो तय है कि इतिहास की नवीनतम खोजें भूविज्ञान, भूभौतिकी, जेनेटिक्स और कंप्यूटर मॉडलिंग के दायरों से आ रही हैं। भारत जैसे इतिहासग्रस्त समाज में इन खोजों को ज्यादा तवज्जो मिलनी चाहिए।