काले वाले ठाकुर साहब की कहानी
ठाकुर साहब जब दरभंगा से दिल्ली की ट्रेन में बैठे तो उनके मन में बस एक ही विचार रह-रह कर कौंध रहा था और वो ये कि 'जमीन खोद दूंगा-मकान पोत दूंगा।' दिल्ली जाकर नाम कमाकर किसी न किसी तरह से दरभंगा को दन्न न कर दिया तो वह खुद अपने नाम के आगे और पीछे से ठाकुर हटाकर खुद का नाम तिमिर कुमार रख देंगे। दरभंगा पुलिस उनको तीसरी बार लड़की छेड़ने में धरी तो बड़ी मुश्किल से छूटे थे और नाम वाकई तिमिर कुमार ही होने जा रहा था। एक बार तो मोहल्ले के पप्पन की नौ साल की बच्ची के साथ लबर सबर करते धराए थे। पकड़े गए तो बोले नारीवाद सिखा रहे थे। बहरहाल, राम-राम करते किसी तरह से दिल्ली पहुंचे और अपने एक दोस्त के कमरे में ढेर हुए। दोस्त उनका सीधा सादा कि मकान पोत देने जैसा ख्याल उसके सपनों में भी न आए तो वहीं ठाकुर साहब हर दूसरे डायलॉग में डब्बा कूची लेकर खुद उसी का मकान पोतने को तैयार रहते।
मोरी गेट से लेकर लक्ष्मी नगर और पंजाबी बाग तक चक्कर लगा लेने के कई दिनों बाद जब ठाकुर साहब को नौकरी मिली, तब भी उनके मुंह से वही डायलॉग निकला। लेकिन नौकरी ऐसी चीज होती नहीं और कैसी चीज होती है, ये ठाकुर साहब नहीं जानते थे। नौकरी में क्या-क्या काम करने होते हैं, ये भी उन्हें नहीं पता होता। नतीजा ये निकला कि कुछ दिन ठाकुर साहब ने कूड़ा नाली खड़ंजा विभाग में काम किया तो विभाग वालों ने यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि भई, ठाकुर साहब रहेंगे तो उन लोगों से कुछ न हो पाएगा। दोष ठाकुर साहब का नहीं, पुराने काम करने वालों का ही है, जिनके काम करने के लच्छन ही नहीं हैं।
असल में हुआ यह कि जब ठाकुर साहब को कूड़े का खाता दिया गया तो उसमें वह खड़ंजा बिछाने लगे और जब नाली विभाग पकड़ाया गया तो उसमें वह कूड़ा भरने लगे। साथ के लोग जब उनसे कहते कि नाली को नाली की ही तरह लो तो वह धमकी देते कि जो कुछ भी वह कर रहे हैं, वह 220 फीसद सही कर रहे हैं। अगर किसी ने बार बार उन्हें गलत कहा तो वह मैनेजमेंट से शिकायत करेंगे कि उनके साथ रंगभेद किया जा रहा है। उनके बिहार से होने की वजह से उनसे गलत व्यवहार किया जा रहा है। अब बाकी के लोगों को अपनी इज्जत बचानी थी सो सभी ने समवेत यही कहा कि उन सभी को एकदम काम नहीं आता। खैर, मैनेजमेंट समझदार था सो ठाकुर साहब को दूसरे विभाग में भेजा गया।
इधर ठाकुर साहब बुरी तरह से फुंके हुए थे। 'काम उन्हें नहीं आता तो तबादला मेरा क्यों' का सवाल उन्हें लगातार जलाए जा रहा था। उनका काला रंग दिनों दिन और सुर्ख होता जा रहा था। 'सोफी और उसके संसार' के बारे में उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था और 'स्लीमेन की अवध डायरी' के बारे में सुना तक नहीं था। फैज और फिराक को वह एक ही मानते थे। बावजूद इसके, उनका पढ़ने लिखने वाले विभाग में तबादला किया गया जो पढ़-पढ़कर अपनी रिपोर्ट ऊपर दिया करता था जिससे कंपनी की नीतियां बनती और बिगड़ती थीं। पढ़ने लिखने से सख्त दुश्मनी रखने वाले ठाकुर साहब ने जब देखा कि यहां तो उनकी दाल नहीं गलनी है तो बड़े परेशान हुए। जब उन्हें कुछ पढ़ने को दिया जाता तो उनके पेट में दर्द होने लगता और जब लिखने को कहा जाता तो उनकी नाक बहने लगती।
मीटिंग वगैरह में भी जब लोग क्या पढ़ें-क्यों पढ़ें और क्या लिखें-क्यों लिखे के सवालों से जूझ रहे होते तो वह व्हाट्सएप्प पर दरभंगा में सरसों के तेल का भाव पूछ रहे होते। कई दफे तो चप्पल के टूटे फीते और लौंग का भी भाव पूछते पकड़े जाते तो बताते कि लौंग को वह रात में अपने बारह दांतों के बीच बनी जगह में फंसाकर सोते हैं। शायद ये रात में दांतों में लौंग फंसाकर सोने का ही नतीजा निकला कि विभाग में उन्होंने सभी से सीधे मुंह बात करना बंद कर दी। जिससे भी बात करते, मुंह टेढ़ा करके ही बात करते। इसके चलते कोई भी बात करते, टेढ़ी ही करते। सीधी बात और सीधी चाल उन्होंने दरभंगा स्थित अपने घर की दुछत्ती पर रखकर बंद करके रख दी और भूल गए। आखिरकार यह लोग भी कब तक बर्दाश्त करते, सो उन्होंने भी मैनेजमेंट को बोल दिया कि भई, हमीं लोग नाकाबिल हैं, हमें न तो पढ़ना आता है, न लिखना। इसलिए हमारा ट्रांसफर साफ सफाई विभाग में कर दिया जाए।
मैनेजमेंट समझदार था सो चुपचाप ठाकुर साहब को उठाकर डाक-तार विभाग में बैठा दिया। वहां बैठकर ठाकुर साहब प्रतिदिन चिट्ठियां पढ़ते। पढ़ते-पढ़ते और भी कुढ़ते जाते। मन ही मन बुदबुदाते कि उनके जैसा महान, हर वाद का वादी, राष्ट्रीय रंग से लैस क्या दुनिया में ये दो कौड़ी की चिट्ठियां पढ़ने आया है। अपनी इसी सुपतित कुढ़न के चलते इस बार तो उन्होंने नए विभाग में पहुंचते ही सभी काम करने वालों पर रंगभेद का आरोप लगा दिया। फिर क्या था, एक के बाद एक, सभी की पेशियां मैनेजमेंट के सामने होने लगीं। सभी लोग सहम गए क्योंकि जहां वह काम करते थे, वहां भले ही झूठ-मूठ ही क्यों न लगाया जाए, लेकिन ऐसा आरोप बर्दाश्त नहीं किया जाता था। सभी ने अपनी सफाई में अपनी बात रखी। पिछले विभागों में काम करने वालों के बयान भी दर्ज हुए।
मैनेजमेंट समझदार था। सभी लोगों के बयान सुनने और सारे सबूतों को देखने के बाद उसने अपना फैसला खुद ही मुल्तवी कर लिया। डाक-तार विभाग में काम करने वालों को एक दूसरे कमरे में ले जाया गया और उनसे प्रार्थना की गई कि वह किसी तरह से भी अपना काम चलाएं, लेकिन ठाकुर साहब को बिलकुल डिस्टर्ब न करें। विभाग वाले भी समझदार थे, मैनेजमेंट का इशारा उन्होंने हाथो-हाथ लिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है, लगभग सारे विभाग ठाकुर साहब नाम का नाम पूरी तरह से भूल चुके हैं। वह अब इशारों इशारों में उन्हें तिमिर कुमार ही बुलाते हैं। एक तो थोड़ा दिमाग का तेज निकला तो उसने तिमिर कुमार के नाम से ठाकुर साहब के दरभंगा वाले पते पर तिहत्तर चिट्ठियां भेज दीं। बच इसलिए गया क्योंकि उनपर कहीं भी उसका नाम नहीं था।
हालांकि वो तो बच गया, लेकिन ठाकुर साहब के कुंठित कोप के भागी आए दिन डाक बाबू और तार बाबू बनने लगे। कुछ दिन पहले डाक बाबू ने ठाकुर साहब से सिर्फ यह पूछने की हिमाकत कर दी कि छतरपुर वाली चिट्ठियां कहां रखी हैं, तो हाल ये हुआ कि जैसे पूरे दफ्तर में कोई तीन बैल जोतकर हेंगा चला दे। तार बाबू बड़ी-बड़ी आंख लिए टपर-टपर कभी इधर ताकें, कभी गहरी सांस छोड़ें तो कभी उधर ताकें। बीच-बीच में नाक और कान में उंगली भी करते रहें। उस दिन की बात बताते हुए आज भी तार बाबू बोलते हैं कि 'क्या बोलें, बोलती ही बंद हो गई थी भैया। भगवान किसी को कैसा भी दिन दिखाए लेकिन ऐसे आदमी के बगल बैठने का दुर्भाग्य न दे जैसा कि डाक बाबू को दे रहा है। हमको भी दे ही रहा है, लेकिन अब है तो काट रहे हैं।'
कुछ दिन पहले डाक बाबू ने दफ्तर में बाकायदा घोषणा की कि उनकी आवाज चली गई है। पूछा गया कि कहां चली गई है तो उनका कहना था कि कहां चली गई है पूछने से पहले पता करना होगा कि आ कहां से रही है और आती कहां से है। एक वो दिन है और एक आज का दिन है, क्या दिन और क्या रात, किसी को नहीं पता कि डाक बाबू की आवाज आती कहां से है। चली जाने का सबको पता है।
वैसे ठाकुर साहब जैसे लोग हर कहीं हर किसी को मिल ही जाते हैं। उनके बारे में बताने से पहले मेरे सामने सवाल था कि उनके बारे में कुछ बताया जाए या न बताया जाए। उनके बारे में कुछ भी बताना उनको चंद चीकट शब्दों में ही सही, लेकिन अमर कर देगा। उनके बारे में न बताया तो जाने कितनों की आवाज मर जाएगी या मरी रहेगी। इसलिए मैंने तय किया कि उनके बारे में बता ही दिया जाए। इसबीच ठाकुर साहब की तहकीकात में मुझे कुछ एक ऐसी खबरें और पता चलीं, जिनसे यह साबित हुआ कि ठाकुर साहब के दिल पर भी वही रंग चढ़ा है जो उनके अगवाड़े और पिछवाड़े चढ़ा हुआ है।
उनके पहले के एक दोस्त ने मुझे बताया कि दिल्ली आने के तुरंत बाद से ही उनकी नौकरी सेट नहीं हुई। अलबत्ता वह कुछ और ही सेट करने लगे। पहले जहां वह काम करते थे, वहां पर उनकी एक बूढ़ी मालकिन हुआ करती थी। साल दो साल तो ठाकुर साहब मालकिन की गोद में ऐसा खेले कि हर आता जाता इंसान मालकिन को इतनी अजीब नजरों से देखना शुरू कर दिया। आखिर मालकिन कब तक सहती। वह भी उम्र के इस ढलान पर आकर सहने सुनने की क्षमताएं वैसे भी कम ही होती जा रही हैं। किसी तरह खुदा-खुदा करते हुए उनकी मालकिन ने उनकी नौकरी दूसरी जगह सेट की।
दूसरी जगह आने के बाद ठाकुर साहब ने क्या क्या किया, उसकी एक भरी पूरी लंबी लिस्ट है। काफी कुछ तो पहले बता ही दिया, ठाकुर साहब के जो कर्म हैं और जिन कर्मों के चलते वह अब पूरी तरह से तिमिर कुमार बनकर प्रसिद्ध हो चुके हैं, वह आइंदा भी बताने पर मजबूर करते ही रहेंगे। तिमिर विल बैक। तिमिर इज ऑन।
मोरी गेट से लेकर लक्ष्मी नगर और पंजाबी बाग तक चक्कर लगा लेने के कई दिनों बाद जब ठाकुर साहब को नौकरी मिली, तब भी उनके मुंह से वही डायलॉग निकला। लेकिन नौकरी ऐसी चीज होती नहीं और कैसी चीज होती है, ये ठाकुर साहब नहीं जानते थे। नौकरी में क्या-क्या काम करने होते हैं, ये भी उन्हें नहीं पता होता। नतीजा ये निकला कि कुछ दिन ठाकुर साहब ने कूड़ा नाली खड़ंजा विभाग में काम किया तो विभाग वालों ने यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि भई, ठाकुर साहब रहेंगे तो उन लोगों से कुछ न हो पाएगा। दोष ठाकुर साहब का नहीं, पुराने काम करने वालों का ही है, जिनके काम करने के लच्छन ही नहीं हैं।
असल में हुआ यह कि जब ठाकुर साहब को कूड़े का खाता दिया गया तो उसमें वह खड़ंजा बिछाने लगे और जब नाली विभाग पकड़ाया गया तो उसमें वह कूड़ा भरने लगे। साथ के लोग जब उनसे कहते कि नाली को नाली की ही तरह लो तो वह धमकी देते कि जो कुछ भी वह कर रहे हैं, वह 220 फीसद सही कर रहे हैं। अगर किसी ने बार बार उन्हें गलत कहा तो वह मैनेजमेंट से शिकायत करेंगे कि उनके साथ रंगभेद किया जा रहा है। उनके बिहार से होने की वजह से उनसे गलत व्यवहार किया जा रहा है। अब बाकी के लोगों को अपनी इज्जत बचानी थी सो सभी ने समवेत यही कहा कि उन सभी को एकदम काम नहीं आता। खैर, मैनेजमेंट समझदार था सो ठाकुर साहब को दूसरे विभाग में भेजा गया।
इधर ठाकुर साहब बुरी तरह से फुंके हुए थे। 'काम उन्हें नहीं आता तो तबादला मेरा क्यों' का सवाल उन्हें लगातार जलाए जा रहा था। उनका काला रंग दिनों दिन और सुर्ख होता जा रहा था। 'सोफी और उसके संसार' के बारे में उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था और 'स्लीमेन की अवध डायरी' के बारे में सुना तक नहीं था। फैज और फिराक को वह एक ही मानते थे। बावजूद इसके, उनका पढ़ने लिखने वाले विभाग में तबादला किया गया जो पढ़-पढ़कर अपनी रिपोर्ट ऊपर दिया करता था जिससे कंपनी की नीतियां बनती और बिगड़ती थीं। पढ़ने लिखने से सख्त दुश्मनी रखने वाले ठाकुर साहब ने जब देखा कि यहां तो उनकी दाल नहीं गलनी है तो बड़े परेशान हुए। जब उन्हें कुछ पढ़ने को दिया जाता तो उनके पेट में दर्द होने लगता और जब लिखने को कहा जाता तो उनकी नाक बहने लगती।
मीटिंग वगैरह में भी जब लोग क्या पढ़ें-क्यों पढ़ें और क्या लिखें-क्यों लिखे के सवालों से जूझ रहे होते तो वह व्हाट्सएप्प पर दरभंगा में सरसों के तेल का भाव पूछ रहे होते। कई दफे तो चप्पल के टूटे फीते और लौंग का भी भाव पूछते पकड़े जाते तो बताते कि लौंग को वह रात में अपने बारह दांतों के बीच बनी जगह में फंसाकर सोते हैं। शायद ये रात में दांतों में लौंग फंसाकर सोने का ही नतीजा निकला कि विभाग में उन्होंने सभी से सीधे मुंह बात करना बंद कर दी। जिससे भी बात करते, मुंह टेढ़ा करके ही बात करते। इसके चलते कोई भी बात करते, टेढ़ी ही करते। सीधी बात और सीधी चाल उन्होंने दरभंगा स्थित अपने घर की दुछत्ती पर रखकर बंद करके रख दी और भूल गए। आखिरकार यह लोग भी कब तक बर्दाश्त करते, सो उन्होंने भी मैनेजमेंट को बोल दिया कि भई, हमीं लोग नाकाबिल हैं, हमें न तो पढ़ना आता है, न लिखना। इसलिए हमारा ट्रांसफर साफ सफाई विभाग में कर दिया जाए।
मैनेजमेंट समझदार था सो चुपचाप ठाकुर साहब को उठाकर डाक-तार विभाग में बैठा दिया। वहां बैठकर ठाकुर साहब प्रतिदिन चिट्ठियां पढ़ते। पढ़ते-पढ़ते और भी कुढ़ते जाते। मन ही मन बुदबुदाते कि उनके जैसा महान, हर वाद का वादी, राष्ट्रीय रंग से लैस क्या दुनिया में ये दो कौड़ी की चिट्ठियां पढ़ने आया है। अपनी इसी सुपतित कुढ़न के चलते इस बार तो उन्होंने नए विभाग में पहुंचते ही सभी काम करने वालों पर रंगभेद का आरोप लगा दिया। फिर क्या था, एक के बाद एक, सभी की पेशियां मैनेजमेंट के सामने होने लगीं। सभी लोग सहम गए क्योंकि जहां वह काम करते थे, वहां भले ही झूठ-मूठ ही क्यों न लगाया जाए, लेकिन ऐसा आरोप बर्दाश्त नहीं किया जाता था। सभी ने अपनी सफाई में अपनी बात रखी। पिछले विभागों में काम करने वालों के बयान भी दर्ज हुए।
मैनेजमेंट समझदार था। सभी लोगों के बयान सुनने और सारे सबूतों को देखने के बाद उसने अपना फैसला खुद ही मुल्तवी कर लिया। डाक-तार विभाग में काम करने वालों को एक दूसरे कमरे में ले जाया गया और उनसे प्रार्थना की गई कि वह किसी तरह से भी अपना काम चलाएं, लेकिन ठाकुर साहब को बिलकुल डिस्टर्ब न करें। विभाग वाले भी समझदार थे, मैनेजमेंट का इशारा उन्होंने हाथो-हाथ लिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है, लगभग सारे विभाग ठाकुर साहब नाम का नाम पूरी तरह से भूल चुके हैं। वह अब इशारों इशारों में उन्हें तिमिर कुमार ही बुलाते हैं। एक तो थोड़ा दिमाग का तेज निकला तो उसने तिमिर कुमार के नाम से ठाकुर साहब के दरभंगा वाले पते पर तिहत्तर चिट्ठियां भेज दीं। बच इसलिए गया क्योंकि उनपर कहीं भी उसका नाम नहीं था।
हालांकि वो तो बच गया, लेकिन ठाकुर साहब के कुंठित कोप के भागी आए दिन डाक बाबू और तार बाबू बनने लगे। कुछ दिन पहले डाक बाबू ने ठाकुर साहब से सिर्फ यह पूछने की हिमाकत कर दी कि छतरपुर वाली चिट्ठियां कहां रखी हैं, तो हाल ये हुआ कि जैसे पूरे दफ्तर में कोई तीन बैल जोतकर हेंगा चला दे। तार बाबू बड़ी-बड़ी आंख लिए टपर-टपर कभी इधर ताकें, कभी गहरी सांस छोड़ें तो कभी उधर ताकें। बीच-बीच में नाक और कान में उंगली भी करते रहें। उस दिन की बात बताते हुए आज भी तार बाबू बोलते हैं कि 'क्या बोलें, बोलती ही बंद हो गई थी भैया। भगवान किसी को कैसा भी दिन दिखाए लेकिन ऐसे आदमी के बगल बैठने का दुर्भाग्य न दे जैसा कि डाक बाबू को दे रहा है। हमको भी दे ही रहा है, लेकिन अब है तो काट रहे हैं।'
कुछ दिन पहले डाक बाबू ने दफ्तर में बाकायदा घोषणा की कि उनकी आवाज चली गई है। पूछा गया कि कहां चली गई है तो उनका कहना था कि कहां चली गई है पूछने से पहले पता करना होगा कि आ कहां से रही है और आती कहां से है। एक वो दिन है और एक आज का दिन है, क्या दिन और क्या रात, किसी को नहीं पता कि डाक बाबू की आवाज आती कहां से है। चली जाने का सबको पता है।
वैसे ठाकुर साहब जैसे लोग हर कहीं हर किसी को मिल ही जाते हैं। उनके बारे में बताने से पहले मेरे सामने सवाल था कि उनके बारे में कुछ बताया जाए या न बताया जाए। उनके बारे में कुछ भी बताना उनको चंद चीकट शब्दों में ही सही, लेकिन अमर कर देगा। उनके बारे में न बताया तो जाने कितनों की आवाज मर जाएगी या मरी रहेगी। इसलिए मैंने तय किया कि उनके बारे में बता ही दिया जाए। इसबीच ठाकुर साहब की तहकीकात में मुझे कुछ एक ऐसी खबरें और पता चलीं, जिनसे यह साबित हुआ कि ठाकुर साहब के दिल पर भी वही रंग चढ़ा है जो उनके अगवाड़े और पिछवाड़े चढ़ा हुआ है।
उनके पहले के एक दोस्त ने मुझे बताया कि दिल्ली आने के तुरंत बाद से ही उनकी नौकरी सेट नहीं हुई। अलबत्ता वह कुछ और ही सेट करने लगे। पहले जहां वह काम करते थे, वहां पर उनकी एक बूढ़ी मालकिन हुआ करती थी। साल दो साल तो ठाकुर साहब मालकिन की गोद में ऐसा खेले कि हर आता जाता इंसान मालकिन को इतनी अजीब नजरों से देखना शुरू कर दिया। आखिर मालकिन कब तक सहती। वह भी उम्र के इस ढलान पर आकर सहने सुनने की क्षमताएं वैसे भी कम ही होती जा रही हैं। किसी तरह खुदा-खुदा करते हुए उनकी मालकिन ने उनकी नौकरी दूसरी जगह सेट की।
दूसरी जगह आने के बाद ठाकुर साहब ने क्या क्या किया, उसकी एक भरी पूरी लंबी लिस्ट है। काफी कुछ तो पहले बता ही दिया, ठाकुर साहब के जो कर्म हैं और जिन कर्मों के चलते वह अब पूरी तरह से तिमिर कुमार बनकर प्रसिद्ध हो चुके हैं, वह आइंदा भी बताने पर मजबूर करते ही रहेंगे। तिमिर विल बैक। तिमिर इज ऑन।
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