Monday, September 26, 2016

नई चीज शहादत-ऐ-शोहदा है

मुझे आज शहीद होना है। मैं उस जगह की तलाश में हूं, जहां जाकर मैं शहीद हो सकता हूं। मैं उस मौके की तलाश में हूं जिसके अंदर घुसकर मैं शहीद हो सकता हूं। दे ही देनी है मुझे शहादत, बस कोई बता दे कि कहां जाकर दे दूं। शहीद हो जाने का शोर तो सबने मचा लिया, लेकिन जोर से न बताना चाहे तो कान में ही फुसफुसा दे। तब तक मैं मेरी आंख में मीठा पोलियो लगवाकर बैठा हूं। मनन कर रहा हूं या नहीं, लेकिन पलक दबाकर बैठा हूं। हर तरफ से मर जाने की जो आवाजें मेरे कानों में गिर रही हैं, वो मुझे शहादत की राह पर और भी गिरा दे रही हैं। क्या असेंबली में बम फेंक दूं? कहलाउंगा शहीद? कोई फर्क है अब की और तब की असेंबली में? या उन धनपशुओं के कार्य व्यापार पर जाकर जमीनी सुरंग बिछा दूं जो सारे कामगारों का खून चूसकर उनसे पशुवत व्यवहार करते हैं? क्या ये दोनों काम मुझे शहीद का दर्जा देंगे? सरकारी नहीं हूं तो सरकारी शहीद तो कहलाउंगा नहीं। सरकारी शहीद के अलावा भी क्या कोई शहीद हुआ है? आजादी के बाद से कौन कौन गैर सरकारी शहीद हुआ है, क्या वक्त नहीं आ गया है कि उनकी शहादत का हिसाब हो? बहुत लोग कहेंगे कि जा, सीमा पे जाके मर। मैं सीमा पर मर भी जाऊं तो क्या गारंटी है कि मैं शहीद ही कहलाउंगा, शोहदा नहीं? अब जो शहीद होने को शहीदातुर लोग हैं, क्या ये सही वक्त नहीं कि उनमें और शोहदों में व्याप्त समानताएं लोगों को बताई जाएं? शोहदे कैसे होते हैं और शहीद कैसे होते हैं, क्या पीएम को मन की बात में इसका जरा भी जिक्र नहीं करना चाहिए? पीएम को शोहदों का नाम लेने में शर्म क्यूं आती है? मन तो उनका भी वही रहा है। नहीं?

मैं वादा करता हूं कि अगले तीन महीने में मैं या तो शहीद हो जाउंगा या फिर क्रांति कर दूंगा। तीन महीने बाद हिसाब लगाउंगा कि वो कौन कौन लोग थे जो क्रांति के रास्ते में डंडा लेकर खड़े थे। वो कौन कौन लोग थे, जो मेरी शहादत की राह में अंडा लेकर खड़े थे? झंडा लेके कौन कौन खड़ा था सर? सबका हिसाब होगा। क्या चंपक शहीद होते हैं? क्या शोहदे शहीद होते हैं? कौन हैं वो लोग जो यूं ही शहीद हो जाते हैं? कहां से आते हैं भारत सरकार के पास यूं ही शहीद हो जाने वाले लोग? क्यों करा देती है सरकार उन्हें बस यूं ही शहीद? जनगण देश के निवासियों, सब लोग वनवासियों हो जाओ। तुरई की सब्जी लहसुन डालके उगाओ। संकर का जमाना है, शोहदों का जमाना है, शहीदों को इनसे बचकर कैसे भी निकल जाना है। उन्हें तो लौकी से भी नहीं मतलब और शोहदे शहादत का अचार डाल रहे हैं। कौन हैं वो शोहदे जो देश को चला रहे हैं? कौन हैं वो शोहदे जो पूरी दुनिया में गंध फैलाते हुए हीं-हीं, ठीं-ठीं करके दांत दिखा रहे हैं?

शर्मिंदा शहादत जैसी भी कोई चीज होती है? शहादत शर्मिंदा होती है? या शर्म ही शहीद हो जाया करती है? देश की शर्म शहीद हो चुकी है। किसी के पास कोई आइडिया है कि शहीद हुई शर्म पर फूल कौन से रंग के चढ़ाए जाएं? आप बहाना बना सकते हैं, चाहें तो शरीर के किसी अंग पर खुजली करके शहीद शर्म के अपमान पर बयान भी जारी कर सकते हैं। कुछ नहीं तो चौराहे वाली पान की दुकान पर दांत खोदते हुए मेरे मुर्दाबाद का नारा भी लगा सकते हैं। लेकिन शहीदों को शोहदों ने इस वक्त जो बना दिया है, उसपर कोई बयान क्या जारी कर सकते हैं?

रोटी के लिए मारा जाऊं तो शहीद कहलाउंगा? बोटी के लिए मारा जाऊं तो? मोटी के लिए मारा जाऊं तो क्या पक्का शहीद कहलाउंगा? वैसे ये सब लिखने पर मुझे कोई छोड़ेगा तो है नहीं, चिकोटी के लिए मारा जाऊं तो क्या सच्चा शहीद कहलाउंगा? सरकार पर मेरा आरोप है कि उसने हम देशवासियों से शहादत का सारा हक छीन लिया है। एक बार ये हक दे के तो देखे, गली गली में शहीद न पैदा हो गए तो कहिएगा। देश में शहीद हो जाने की ऐसी बयार, ये व्यवहार आखिरी बार कब देखा? क्या कहा? चीनी हमले में? लेकिन तब तो सारे भड़बांकुरे अपनी अपनी हाफ पैंटों में नहीं घुसे हुए थे? क्या कहा? गए थे? कहां? बदरीनाथ? ओह ओह, अहा अहा। बाई दि वे, नॉर्थ ईस्ट में कितने शहीद हुए किसी के पास कोई आंकड़ा है? फर्जी ही दिखा दीजिए, न मैं बुरा मानूंगा और न ही मेरी चिकोटी। मेरी धोती तो बिलकुल बुरा नहीं मानेगी।

मुझे पूरा यकीन है कि शोहदों ने शहादत के सात रास्ते खोज अपनी पतित शर्म की पूरी बेशर्मी दिखाने का पूरा इंतजाम कर रखा है। मेरा रंग दे बसंती चोला पुराना हुआ, शोहदों को अब बसंती चाहिए वो भी बगैर चोली के। भारत माता अगर कहीं है और वो भी रात में अगर पूरे कपड़ों में निकल गई तो परमभक्त शोहदे न तो उसे छोड़ेंगे और न तो...। बाकी रॉड वॉड तो वो अपने साथ रखते ही हैं, असल चीज उनकी काम नहीं करती ना। मेरी मांग है कि देश के सारे शहीदों की कहानियों को ड्रॉप कर नवयुग के शोहदों की आदतों पर बीए सेकेंडियर की आधुनिक हिंदी में ललित निबंध अवश्य शामिल होना चाहिए। घर में नहीं दाने औ अम्मा चली भुनाने जैसी चीजें अब पुरानी हुई। नई चीज शहादत-ऐ-शोहदा है। मार्केट में एकदम नई। टिंच माल। जगह घेरते ही बिक जाने की गारंटी के साथ। 

Monday, September 19, 2016

कल्पनाकृत मन का अमृत संसार

मैं और मेरी दिलासा के साथ मेरे बाहरी
जो बाहर रहने लगा, वो बाहरी हो गया। कितने बाहर रहने लगा, कितना बाहर रहने लगा, क्यूं बाहर रहने लगा, बाहर की क्यूं रहता रहेगा, इन सारे सवालों के जवाब की तो दूर की बात, कोई इन सवालों के बारे में भी नहीं सोचता। मैं फैजाबाद में नहीं रहता। मैं बाहरी हूं। मैं दिल्ली में रहता हूं। मैं बाहरी हूं। मैं न्यूयॉर्क में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहरी ही होउंगा, मैं फैजाबाद में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहर से ही आया कहलाउंगा। मैं हर तरफ से बाहरी हो चुका हूं। मेरे जैसे कितने लोग बाहरी हो चुके हैं। हम बाहरी लोगों का कोई देश नहीं, कोई शहर नहीं, कोई मोहल्ला नहीं। हम कुछ भी करके मर जाएंगे तो भी कोई गली भी हमारी न होगी।

बाहरी हूं, हर बार फैजाबाद बाहर बाहर ही होकर आ जाता हूं। क्या नामीबिया में भी लोग मुझे बाहरी समझेंगे? हां, वहां के लोग भी मुझे बाहरी ही समझेंगे। वो कौन लोग हैं जो मुझे और मेरे जैसों को बाहरी समझते हैं? वो कौन सा अंदर है, जिसमें वो घुसकर लोगों को बाहरी बनाते रहते हैं? क्या वो कल्पनाकृत मन का वो अमृत संसार है जिसे मैं न बना पाया? क्या वो संबंधों का वो व्यापार है जिसे मैं न कर पाया? या फिर घर के अंदर होने वाले वो सारे व्यभिचार हैं, जिनके बारे में मुझे विचार तक न आया? मैं बाहरी हूं और इस हूं में शमशेर के वो सारे हूं अपनी लय के साथ उसी तरह से जुड़े हैं, जैसे मेरा बाहरी होना। शमशेर को किसने पढ़ा है? क्यूं पढ़ा है?


मेरे मोबाइल के सारे नंबर बाहरी हैं और उनमें एक भी नंबर मेरा नहीं है। मैं खुद अपने बाहर बाहर रहता हूं, अपने अंदर अभी मैं ठीक ठीक घुस नहीं पाया। अपने अंदर सबकुछ होते हुए भी सबकुछ बाहर ही होता है। तापमान से हमारा संपर्क बाहरी है। बरसात की बूंदें तो और भी बाहरी हैं। सूरज तो हमारा है ही नहीं। दुनिया कैसे बढ़ती अगर बाहरी न होते?

मैं जानता हूं कि मैं खुद को दिलासा दे रहा हूं। लेकिन यही एक चीज है जो मैं खुद को देता रह सकता हूं। मेरी दिलासाएं मुझसे बाहर नहीं, वो बाहरी नहीं।

Sunday, September 11, 2016

मिलेगा तो देखेंगे- 18

मेरा हाथ वो अपने बड़े से हाथों में लेकर कहती या शायद बुदबुदाती कि हम गांव जरूर चलेंगे। वहां नदी है, पहाड़ियां हैं, चट्टानें हैं, बकरियां हैं और ढेर सारे जंगली फूल भी। और फिर अम्मा तो वहीं है। क्या हुआ जो वो मुझे नहीं मानती? तुमको देखेगी तो मानने लगेगी। मैं हां हूं करके चुप बैठा रहता और अपने हाथ की साइज उसके हाथ से मिलाता रहता। उसकी हथेलियां मेरी हथेलियों से बड़ी थीं। मैं अपना पूरा पंजा भी फैला लेता तो भी बीस और अट्ठारह का फर्क रहता ही रहता। इस तरह से उसकी बड़बड़हाट से ऊबता मैं उसे उसकी ही हथेली दिखाने लगता या फिर उसका सबसे अप्रिय सवाल पूछता कि जब तुम्हारी अम्मा पाएंगी कि मैं तुमसे छोटा हूं तो? इस पर वो बड़ी देर तक चुप रहती। फिर कहती कि नहीं चलेंगे गांव। न अपने न तुम्हारे। और तुम्हारे गांव तो मैं कभी नहीं जाउंगी। यूपी के गांव भी भला कोई गांव होते हैं? सपाट धरती और तुम्हारी तरह उस वीराने से आए अकेले लोग। जो बचे रह गए वो दूसरों को कैसे बचकर नहीं रहने दिया जाए, इसी की जुगत में अपनी सुबहें और शाम खेत करते रहते हैं।

एक दिन मैंने उससे आखिरकार पूछ ही लिया कि उसके पास कितनी खेती है। उस दिन वो बड़े मन से मेरे लिए कढ़ी बनाकर लाई थी जो कहीं से भी नहीं कढ़ी थी। पता नहीं न कढ़ पाने की नाराजगी रही होगी या यूपी में पूछे जाने वाले सबसे आम सवाल की आम जिज्ञासा से उपजी टीस। बहरहाल, मुझे यही लगा कि खेतों में कहीं कुछ टूटा है। बोली कि उसके यहां ज्यादा खेती नहीं है। बल्कि जो भी खेत हैं वो यूंही पड़े रहते हैं, उनपर भी कोई काम नहीं हो पाया। मिलिट्री में मजदूर रहे उसके पिता ने अपनी रिटायरमेंट के बाद जितना धान तरोई उगाई, बस उतनी ही खेती वो देख पाई। अलबत्ता गांव के दूसरे लोगों को वो रोज स्कूल से जाते और आते हुए खेती करते देखती तो थी, लेकिन इस काम में उसकी कोई खास रुचि नहीं जम पाई। खेती उसे अच्छी नहीं लगती। मैंने फिर पूछा कि क्यों नहीं अच्छी लगती? वह फिर चुप हो गई।

उस दिन वो स्लीवलेस ब्लाउज और कत्थई बॉर्डर वाली हरी सूती धोती पहनकर आई थी। अपने आसपास मैं आमतौर पर इस तरह की महिलाओं को देखने का आदी नहीं हूं, लेकिन उसे देखकर न तो मुझे कोई ताज्जुब हुआ और न ही कोई हूक उठी। सबकुछ पूरी तरह से सामान्य था। मेरे कंधे तक पहुंचते बाल तेजी से गिर रहे थे। मैं उसकी कुर्सी के पास गया, नजदीक से ही एक कुर्सी खींची और अपने कंधे उसे दिखाने लगा कि देखो, कितनी तेजी से और कितने सारे बाल गिर रहे हैं। आखिर तुम कैसे इतने सालों से अपने बाल संभालती आई? मुझसे तो संभल ही नहीं रहे हैं। मैं इन्हें कटा दूंगा। वो धीमे से मुस्कुराई और अजीब तरीके से अपनी आंखों की गोलियां नचाते हुए अपने झोले में कुछ खोजने लगी। एक छोटा सा डिब्बा उसने निकाला जिसमें भुनी हुई अलसी थी। दो चुटकी अलसी उसने मुझे खाने को दी और मेरे बालों में उंगलियां फेरीं। बोली-रोज दो चुटकी अलसी खाया करो, बाल गिरना बंद हो जाएंगे। अलसी का बालों से इस तरह का संबंध मेरे लिए नया था लेकिन उसके लिए नहीं। उसके इलाके में महिलाएं अपने बालों को इसी तरह से बचाती आई हैं। 

अपराधियों से रिश्ता रखने का समाजवादी फैशन

Pic- Rediff
अखिलेश यादव ने सबक सीख लिया। लेकिन लालू जी कब सीखेंगे? या फिर समाजवादी कुनबे की पुरानी पीढ़ी का मुस्लिम समुदाय के अपराधियों से रिश्ता कभी नहीं टूटने वाला है? वह चाहे मुलायम सिंह हों या फिर लालू यादव दोनों इस मामले में एक ही जगह खड़े मिलते हैं। लालू यादव को पता होना चाहिए कि शहाबुद्दीन से उन्हें कुछ राजनीतिक लाभ भले हो जाए। लेकिन वह फायदा अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर होगा, क्योंकि इससे संघ-बीजेपी को अल्पसंख्यक तबके को अपराधी और आतंकी समर्थक समुदाय के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है। फिर उसके लिए सांप्रदायिक गोलबंदी आसान हो जाती है। लेकिन लगता है कि अपने तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत लालू और मुलायम सिंह इस चीज को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्हें बस अपने स्वार्थ से मतलब है। वैसे भी उनके लिए एक अपराधी को सरंक्षण देकर उसे अपने वश में करना आसान रहता है। क्योंकि अगर अल्पसंख्यक तबके के किसी पढ़े-लिखे और जहनी शख्सियत को अपना नेता बनाएंगे तो उसे अपने मनमुताबिक हांकने में परेशानी होगी। लेकिन आपराधिक चरित्र के व्यक्ति के लिए सत्ता का संरक्षण प्राथमिक जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए किसी भी तरह की बगावत या फिर विरोध भारी पड़ सकता है। लिहाजा अपराधियों को नेता बनाना बेहतर होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में वह कितना बीजेपी-संघ को फायदा पहुंचा रहे होते हैं यह उनको पता नहीं है।

यूपी में यही हाल मुख्तार अंसारी से लेकर अतीक अहमद तक का है। यहां पहले इनको मुलायम सिंह का गाहे-बगाहे संरक्षण मिलता रहा है। लेकिन उनके बेटे और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इन दोनों समेत दूसरे अपराधियों के प्रति एक कड़ा रुख अपना कर अपनी एक दूसरी छवि पेश की है। और इसका दूसरे तरीके से उनको फायदा भी मिलता दिख रहा है। लेकिन बिहार में लालू जी ने तो यह सबक सीखा ही नहीं। उनके पुत्र तेजस्वी का भी इससे अलग कोई रुख अभी तक नहीं दिखा है। अलग रुख हो भी सकता है। लेकिन पार्टी और सरकार में वो हैसियत नहीं है कि उसे लागू कर सकें। फिर भी उन्हें चुप रहने की जगह उसे जाहिर जरूर करना चाहिए।

शहाबुद्दीन के जेल से छूटते ही संघियों ने गदर काट दिया है। हालांकि रिहाई अदालती प्रक्रिया के जरिये हुई है। बावजूद इसके उनकी रिहाई का हर संभव तरीके से विरोध होना चाहिए। क्योंकि हत्या से लेकर अपहरण और दूसरे दर्जनों अपराधों के आरोपी को जमानत मिलने का कोई तुक ही नहीं बनता है। वह कुछ इतने घृणित और नृशंष अपराधों के आरोपी हैं जिसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता है। इसमें जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या और एक स्थानीय परिवार के तीन नौजवानों का तेजाब डालकर मौत के घाट उतारने के मसले शामिल हैं। इन अपराधों के बाद तो किसी का जीवन जेल में ही बीतना चाहिए। बावजूद इसके अगर वह छूटे हैं। तो जरूर इसके पीछे राज्य मशीनरी की कोई लापरवाही या फिर साजिश है। या यह जमानत किसी राजनीतिक दबाव का नतीजा है। और अगर राज्य इतना सक्रिय और चौकस होता तो उसके पास कई ऐसे रास्ते हैं जिसके जरिये उसे सीखचों के पीछे रखा जा सकता है। इसमें ऊपरी अदालत में अपील से लेकर दूसरे आपराधिक मामलों में जेल में रखने का विकल्प शामिल है। और ऐसा न करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सवालों के घेरे में हैं।

शहाबुद्दीन की रिहाई पर संघियों का बल्लियों उछलना बताता है कि वो कितने खुश हैं। दरअसल उनको लग रहा है कि इसके जरिये वो कितना राजनीतिक लाभ उठा सकते हैं। और अपने राजनीतिक विरोधियों को कठघरे में खड़ा सकते हैं। दरअसल वो इसी तरह के मौकों की तलाश में रहते हैं। लेकिन एक मिनट के लिए उन्हें जरूर अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्या वो गुजरात में दंगों के तमाम अपराधियों के मामले में भी इसी तरह से विरोध दर्ज करते हैं। डीपी यादव से लेकर ब्रजभूषण शरण सिंह और ब्रिजेश सिंह पर इसी तरह से गुस्सा जताते हैं। या फिर शहाबुद्दीन, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी पर ही उनको उबाल आता है। अपराधी अपराधी होता है। वह किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र या समुदाय का हो। इसलिए सबके खिलाफ एक जैसा रुख वक्त की जरूरत है। अपने-अपने तुच्छ हितों के लिए या फिर किसी भावना वश समर्थन उनके लिए आक्सीजन का काम करता है। लेकिन वह पूरे समाज के लिए बहुत घातक होता है। शायद यह बात हम सोच नहीं पाते। या फिर उतनी दूर तक निगाह नहीं जाती। वंजारा के स्वागत का समर्थन और शहाबुद्दीन के स्वागत का विरोध दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती हैं। लेखक- महेंद्र मिश्र 

Sunday, September 4, 2016

देश का पीएम किसके साथ है?

फोटो क्रेडिट- कैच न्यूज 
यह कुछ और नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का व्यापारीकरण है। राष्ट्रवाद जैसी एक पवित्र और निर्मल चीज को अब घर में ही बेचा जा रहा है। यह देश में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहा है। इसकी इंतहा तब हो गई जब देश के पीएम एक प्राइवेट कंपनी का ब्रांड अंबेसडर बनने के लिए तैयार हो गए। यह न केवल राष्ट्रवाद की भावना का अपमान था बल्कि देश के लोकतंत्र और उसकी 120 करोड़ जनता का भी, जिसने कि मोदी साहब को देश की अगुवाई के लिए चुना है। यह शासक और शासित के बीच समझौते का उल्लंघन है, जिसमें मोदी जी ने जनता के साथ विश्वासघात किया है। अमूमन तो उन्हें जिओ सिम के प्रचार के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरीके से जुड़ना ही नहीं चाहिए था और जुड़े भी तो देश की सबसे बदनाम कंपनियों में से एक रिलायंस के साथ। सार्वजनिक जीवन में जिसकी कंपनियों की साख हर क्षेत्र में गोता लगा रही है। जो अपनी पेट्रोगैस कंपनियों का घाटा देश के आम लोगों की जेब से निकालने की पुरजोर कोशिश कर रही है। जिसे भ्रष्टाचार, गमन, चोरी और धोखेबाजी के लिए ही जाना जाता है। वह जनता के साथ हो या कि सरकार के साथ। सरकारी कंपनी ओएनजीसी का 30 हजार करोड़ का रिलायंस द्वारा गबन की खबर आम है, लेकिन इस पर न कुछ सरकार बोल रही है और न ही मीडिया। मीडिया भी खैर क्यों बोलेगा? आखिर अंबानी जी ने उसे भी खरीद कर अपनी जेब में रखा ही हुआ है।

राष्ट्रवाद सर्फ अंबानी ही नही बेच रहे हैं, इसमें बाबा रामदेव से लेकर राजीव बजाज तक शामिल हैं। बाबा अपने उत्पादों को राष्ट्रवादी करार देते हैं और कहते हैं कि उनका सारा पैसा दान में जाता है। अब उनका कमाया मुनाफा कैसे दान की शक्ल ग्रहण कर लेता है और जनता को किस रूप में मिल रहा है, यह किसी की भी समझ से परे है। अलबत्ता सबसे ज्यादा कीमतों में सामानों की बिक्री और कंपनियों में सस्ती दर पर मजदूरी जनता की खुली लूट को जरूर दिखाता है। सबसे ऊपर बाबा का गुणगान। राष्ट्रवाद का इससे बड़ा नाजायज फायदा कुछ और नहीं हो सकता है। खुला सरकारी संरक्षण बाबा को हर जायज नाजायज करने की छूट देता है। इन मुनाफों से इतर बीजेपी शासित राज्यों में हजारों एकड़ जमीन का बाबा के नाम किया जाना किसी बंपर बोनस सरीखा है।

राष्ट्रवाद की खेती अकेले बाबा नहीं कर रहे हैं। तिरंगे को बेचने वालों की कतार में दूसरे भी हैं। एक और नाम राजीव बजाज का है। उन्होंने एक बाइक निकाली है। इसमें दावा किया गया है कि उसके ढांचे के निर्माण में देश के पहले पानी के लड़ाकू जहाज विक्रांत के इस्पात का इस्तेमाल किया गया है। खबर यह भी है कि आमिर खान ने इसी बिना पर उसकी एक बाइक खरीद भी ली है। अब आम और उसकी गुठली का दाम वसूलना कोई बजाज से सीखे। इसी तरह से तिरंगा बेचने वालों में कैशलेस की सुविधा देने वाली पे-टियम और ट्रैवल कंपनी ओला भी है। सब अपने-अपने मुनाफे के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर रही हैं।

दरअसल राष्ट्रवाद के इस फर्जी खेल की शुरुआत बीजेपी-संघ ने की है। उसने राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों और दूसरे तबकों का उत्पीड़न शुरू किया और देश भर में तिरंगा यात्रा (या तिरंगे की शवयात्रा?) निकालकर अब इसे एक नये परवान पर ले जाना चाहती है। जबकि सच्चाई यह है कि तिरंगे और आज़ादी की लड़ाई से इनका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब हमारे पुरखे इस तिरंगे को हाथ में लेकर कुर्बानियां दे रहे थे, तब सावरकर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक इनके नेता अंग्रेजों की गोद में बैठे हुए थे। सावरकर का अपनी रिहाई के बदले अंग्रेजों से 6 बार माफ़ी और उनके हर निर्देशों का पालन करने की शर्त इसका उदाहरण है। मुखर्जी का 1942 के आंदोलन से किनारा कर मुस्लिम लीग के साथ बंगाल में सरकार का संचालन भी उसी का हिस्सा है। संघियों के पास एक भी शख्स ऐसा नहीं है, जिसे ये अपने लिए आज़ादी की लड़ाई का हिस्सेदार बता सकें। जिस तिरंगे को गाली देते-देते इनकी उम्र बीत गई अब उसी को हाथ में पकड़कर ये राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं। इनके जैसा झूठा और फरेबी इतिहास में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। इस पूरी कवायद का लक्ष्य राष्ट्रवाद की फर्जी सर्टिफिकेट हासिल करना है। जिसका इस्तेमाल अपना वोट पक्का करने और थैलीशाहों की जेब मोटी करने में कर सकें। इस काम को वो बखूबी अंजाम दे रहे हैं। अनायास नहीं है कि मजदूरों की हड़ताल के दिन अंबानी के विज्ञापन के साथ दिखकर मोदी जी ने बता दिया कि देश का पीएम किसके साथ है।
- महेंद्र मिश्र