Tuesday, November 3, 2015

प्रस्‍थान आने की जगह खाली करता है

कौन कि‍धर है, कहां है, क्‍या कर रहा है, क्‍यों क्‍या कर रहा है जान लेने की हद से जि‍तने कदम हो सकते हैं उतना दूर खड़ा मैं बार बार भुलाने को तैयार होता हूं कि कौन आखि‍र कोई है ही क्‍यों जबकि उसे कुछ भी न होना था। प्रस्‍थान एक कुछ भी न होने का स्‍पेस भी तैयार करता है। प्रस्‍थान आने की जगह खाली करता है।

अंदर घुसने पर लगता है कि मैं वही नि‍वाड़ उधड़ी खाली होने को मजबूर कर दी गई कुर्सी हूं जो होते हुए दि‍खते हुए और जगह छेंकते हुए भी नहीं है तो सिर्फ इसलि‍ए कि वो कि‍सी काम की नहीं रह गई है। होती जरूर अगर नि‍वाड़ पूरी बि‍नी होती। उसकी एक एक नि‍वाड़ टूटकर नीचे झांक रही है और कम से कम मुतमईन है कि वो नीचे नहीं पहुंच सकती। उसे अपना टूटकर अलग होकर लटकना और कहीं न पहुंच पाना खूब याद है।

सोचता हूं आज गांजा पि‍यूं। कम पि‍या है, जि‍तना भी पि‍या है, नशा ठीक से याद नहीं। नशे की भी अपनी अलग अलग यादें होती हैं। शराब की अलग तो एल्‍प्रॉक्‍स की अलग। नशे की जि‍तनी गोलि‍यां हैं, उनमें उतनी ही तरह का नशा है। नशा जो गीला कर दे, नशा जो सबकुछ सुखा दे, नशा जो बहा दे, नशा जो तैरा दे, नशा जो उड़ा दे, नशा जो आराम दे। इतना ही नहीं है नशा। नशा है, इसीलि‍ए इतना ही हो भी नहीं सकता।

बस इतना सा होना चाहता हूं। बस इतना सा कि‍ कोई मुझे देख न सके न सुन सके। देखता रहूं सबको। सुबह नींद से उठते बेरुखे चेहरों को। देखकर भी अनदेखी करने वाली आंखों को। रंग में होकर भी बेरंगी दि‍खती परछाइयों को। लय में होती हुई रोती रूबाइयों को। अपने होने को लि‍ख देने से बचना चाहता हूं। इसके लि‍ए मुझे कूकर की सीटी का बहाना काफी है।

वैसे भी भावनामि‍श्राएंडकाल्‍मपुरपब्‍लि‍केशन की सारी रात चलती मशीनें एक भी हर्फ छापकर नहीं नि‍कालतीं, बस चलती रहती हैं।

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