आबे हयात से एक पाठ
''संस्कृत की इतनी रक्षा की गई, फिर भी मनु-स्मृति जो वेदों के संपादन से कई सौ वर्ष बाद लिखी गई, उसमें और वेदों की भाषा में बड़ा स्पष्ट अंतर है और अब समय बीतने पर यह अंतर और भी अधिक हो गया है। लेकिन क्योंकि राज्य और प्रामाणिक ग्रंथों पर धर्म का चौकीदार बैठा था, इसलिए हानि का अधिक भय न था कि अकस्मात 543 ई.पू. में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक शाक्य मुनि का जन्म हुआ जो मगध देश से उठे थे। इसलिए वहीं की प्राकृत में धर्मोपदेश प्रारंभ किया, क्योंकि अधिकतर काम जनसाधारण से था और स्त्री-पुरुष से लेकर बच्चे और बूढ़े तक, सब यही भाषा बोलते थे। उनके ओजस्वी वक्तव्यों से उक्त धर्म ऐसा फैलना प्रारंभ हुआ जैसे जंगल में आग लगे। देखते-देखते धर्म, राज्य, समाज, रीति-रिवाज, धर्म-विधान सबको जलाकर भस्म कर दिया और मगध देश की प्राकृत समस्त राज-दरबार और समस्त कार्य की भाषा हो गई। प्रताप के यश से विद्या एवं कला में भी ऐसी उन्नति हुई कि थोड़े ही दिनों में अद्भुत ग्रंथों की रचना हो गई और इसी भाषा में विद्याओं एवं कलाओं के पुस्तकालय सज गए और कलाओं की रचना शालाएं खुल गईं। कहीं कोने बिचाले में जहां के राजा वेद को मानते रहे, वहां वेदों का प्रभाव रहा। अन्य राज दरबार और विद्वत परिषद सब मागधीमय हो गए। इसके व्याकरण की पुस्तकें भी रची गईं। ईश्वर की लीला देखो जो दासी थी वह रानी बन बैठी और रानी मुंह छिपाकर कोने में बैठ गई।
काल ने अपनी प्रकृति के अनुसार (लगभग 1500 वर्ष के बाद) बौद्ध धर्म को भी तिलांजलि दी और उसके साथ उसकी भाषा भी तिलांजलित हुई। शंकराचार्य के प्रताप से ब्राह्मणों का डूबा हुआ सितारा फिर से उभरकर चमका और संस्कृत की मान-मर्यादा पुन: प्रारंभ हुई। राजा विक्रमादित्य के युग में जो अाभा उसके प्रसाद स्वरूप मिली, वह आज तक लोगों की आंखों का उजाला है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि राज-दरबार और प्रतिष्ठित लोग संस्कृत बोलना प्रामाणिकता एवं गौरव का आधार मानते थे और प्राकृत जनसाधारण की भाषा थी, क्योंकि इस युग में महाकवि कालीदास ने शकुंतला नाटक लिखा है। सभा में देख लो--राजा, सामंत और पंडित संस्कृत बोल रहे हैं। कोई सामान्य-जन कुछ कहता है, तो प्राकृत में कहता है। संस्कृत और मूल फारसी अर्थात जिंदवस्ता की भाषा आर्य होने के बाद एक पितामह की संतानें हैं, किंतु समय का संयोग देखो कि ईश्वर जाने कि कितने सौ वर्ष या कितने हजार वर्ष की बिछुड़ी हुई बहनें, इस दशा में आकर मिली हैं कि ऐ-दूसरे की शक्ल नहीं पहचान सकतीं।''
पृ-3-4
आबे हयात, आब-ए-हयात, aabehayat, aabe hayat, aab-e-hayat
काल ने अपनी प्रकृति के अनुसार (लगभग 1500 वर्ष के बाद) बौद्ध धर्म को भी तिलांजलि दी और उसके साथ उसकी भाषा भी तिलांजलित हुई। शंकराचार्य के प्रताप से ब्राह्मणों का डूबा हुआ सितारा फिर से उभरकर चमका और संस्कृत की मान-मर्यादा पुन: प्रारंभ हुई। राजा विक्रमादित्य के युग में जो अाभा उसके प्रसाद स्वरूप मिली, वह आज तक लोगों की आंखों का उजाला है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि राज-दरबार और प्रतिष्ठित लोग संस्कृत बोलना प्रामाणिकता एवं गौरव का आधार मानते थे और प्राकृत जनसाधारण की भाषा थी, क्योंकि इस युग में महाकवि कालीदास ने शकुंतला नाटक लिखा है। सभा में देख लो--राजा, सामंत और पंडित संस्कृत बोल रहे हैं। कोई सामान्य-जन कुछ कहता है, तो प्राकृत में कहता है। संस्कृत और मूल फारसी अर्थात जिंदवस्ता की भाषा आर्य होने के बाद एक पितामह की संतानें हैं, किंतु समय का संयोग देखो कि ईश्वर जाने कि कितने सौ वर्ष या कितने हजार वर्ष की बिछुड़ी हुई बहनें, इस दशा में आकर मिली हैं कि ऐ-दूसरे की शक्ल नहीं पहचान सकतीं।''
पृ-3-4
आबे हयात, आब-ए-हयात, aabehayat, aabe hayat, aab-e-hayat