Friday, May 23, 2014

रबर का राष्‍ट्रीय हि‍तवाद बनाम एक चड्ढी की खरीद

ये कोई बहुत ज्‍यादा रात की बात हो तो बात और है पर ज्‍यादा रात की बात नहीं, बस यही कोई आठ बजने के आसपास की बात है तो वो और बात नहीं है जो बहुत ज्‍यादा रात होने पर होती। वैसे यहां अभी नया नया ही आया हूं तो ईमानदारी से ये भी नहीं बता सकता कि ज्‍यादा रात होने पे आखि‍र बात क्‍या होती। इसलि‍ए प्‍लीज लोड न लें और आगे आराम से अपने दि‍माग की दही कराएं। लोड ले भी लेंगे तो भी दही ही होनी है, दूध न बनने का।

अब क्‍या बताएं कि क्‍या क्‍या न हुआ आठ बजे रात। ज्‍यादा कुछ बता दें तो पता चले कि सरकार ही सरकने लगेगी और उसके बाद की जो ऊटपटांग हरकतें शुरू होंगी, वो बर्दाश्‍त करें या कम बता कर ही काम चला लें। नत्‍थू हलवाई नहीं है हमारे यहां कि शाम आठ बजे गरम गरम कचौरि‍यां नि‍कालेगा और हम भर दोना चापेंगे। नत्‍थू तो न सही कल्‍लू हलवाई भी नहीं। लोहा छीलती मशीनें और कटते गर्म लोहे से नि‍कलती भभक के बीच बच गई गली से गुजरते हुए इधर उधर देखने पर अगर कुछ नजर आया तो बस कटता लोहा ही मि‍ला। थोड़ा आगे बढ़े तो पता चला कि सिर्फ लोहा ही नहीं कटता हमारी गली में, रबर भी खूब कटता है। रबर की महक बहुत ही मीठी होती है। पांच मि‍नट तक सूंघने के बाद खटाक से नाक में जो कसैलापन भरती है कि नाक में उंगली करने का जो राष्‍ट्रीय या अंर्तराष्‍ट्रीय हि‍तवाद रहा होगा, अगरचे कभी रहा होगा, वो भी पनाह मांगेगा। न सिर्फ पनाह मांगेगा, बल्‍कि जब हेने ओने न जाने केने केने ये पाजी टोएगा तो भी चुप्‍प पटाए मुंह दबाए नाक भींचे भागने के अलावा कोई दूसरा चारा अगर बच जाए त समझि‍ये कौनो बात है।

वैसे हम कह रहे हैं कि इसे हमारी मजबूरी न समझी जाए, और अगर समझ भी ली जाए तो भी हमारे हि‍तवाद से ही जोड़ कर समझी जाए क्‍योंकि हम रबर की उस मीठी महक से भागे और ऐसा भागे कि अब सुबह ही उसका मुंह देखेंगे। वो तो गनीमत रही कि आगे थोड़ा हरा धनि‍या, लहसुन और प्‍याज वगैरह दि‍ख गए तब कहीं जाकर नाक में सांस आई। उससे पहले तो यही लग रहा था कि सांस की जगह नाक में कोई चप्‍पल ठूंस के बैठा है और कंधे पे हाथ रखके बजोरी कह रहा है कि सूंघो... सूंघो-सूंघो क्‍योंकि अब सूंघना ही तुम्‍हारी नि‍यति है। खैर, कंधे पे सवार उस जबर रबर को कि‍सी तरह से उतारने के बाद लहसुन की दुनि‍या में पहुंचे, जेब में हाथ डाला तो सांप सूंघ गया। पांच रुपय्या का लहसुन के लि‍ए पांच सौ का नोट बुश्‍शर्ट की अगलकी जेब में लहालोट हुआ जा रहा था। मजबूरी में आगे बढ़े कि कहीं तुड़ा लें लेकि‍न ईमानदारी से कह रहे हैं कि अगर पाने की लालसा न हो तो पांच सौ का नोट उसमें मौजूद गांधी से ज्‍यादा चि‍ढ़ाता लगता है। हमें ही नहीं, सबको लगता है चाहे मनोरमा मउसी से पूछ लो या फि‍र नैहर गई रामजीत राय की ब्‍याहता बेबी कुमारी राय से भी। पतित लोगों से भी पांच सौ रुपये के नोट के बारे में सलाह ली जा सकती है और अगर ज्‍यादा कुछ करना हो तो इतनी सारी सर्वे कंपनि‍यां हैं, उन्‍हें भी पांच सौ के नोट पर लगाया जा सकता है। हम बता रहे हैं कि इन सबका रि‍जल्‍ट वही होगा जो हमारे साथ रात में हुआ। रात क्‍या, मने शाम को हुआ।

आखि‍रकार उसपर हमारी नजर ठहर ही गई। वो मुझे देख रही थी और मैं उसे। ये एकदम उस वक्‍त की बात है जब मैं चौराहे पर बरतन मांजने वाला झाबा देख रहा था, तभी अचानक उसपर नजर गई। कैसी तो लाल पीली नीली थी। कभी इधर लहराए तो कभी उधर। मने रात की मंद बयार में उसके प्‍यार का खुमार इस तरह से मेरे सि‍र पर चढ़के बोलने लगा कि आखि‍रकार हम उस तक पहुंच गए। मगर उसका बाप जो था, वो दूसरों को बनि‍यान सरकाने में बि‍जी ठैरा। लेना हो त लीजि‍ए नहीं त हमको बेचने का इतना दरकार नहीं है। ''एक दाम लगाते हैं दूसरा बताने के लि‍ए भी जेब में नहीं रखते चाहें तो झारा ले लीजि‍ए ना हमारा।'' उधर बापजान बनि‍यान में बि‍जी ठैरे तो हमने लपक कर अपनी ललछौंआ का हाथ पकड़ा। मुलायमि‍यत महसूस की तो लगा कि यही तो है जि‍सका हम पि‍छले एक साल से एक लाल चड्ढी पहनके इंतजार कर रहे हैं। बापजान से पूछा तो बताए कि तीस की एक चड्ढी पड़ेगी। हम कहे कि दो दे दो। और हम दो चड्ढी लेकर बाजार से जब चले तो दि‍माग आसमान में इस कदर उड़ा कि लहसुन यादे ना रहा। चड्ढी का खुशी में रात 12 बजे जब दाल नि‍काले तो वहीं सि‍र पकड़ के बैठ गए कि हाए... लहसुन। काश तुम्‍हें ले लि‍ए होते...

(यार अब और नी हो रही। इत्‍ती देर से दि‍माग की दही कर रहा हूं। बात तो बस इतनी है कि लहसुन खरीदने गए थे तो दो चड्ढी लेकर आ गए।  )

2 comments:

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