Thursday, July 12, 2012

जेल में सितारों के बिना एक दुनिया

सीमा आजाद: साथी तुम संघर्ष करो। 

सबसे पहला धन्‍यवाद हाशिया वाले रेयाज भाई का कि उन्‍होंने न जाने कैसे सीमा जी का यह आलेख जुगाड किया। दूसरा अनुरोध अंधी-गूंगी-बहरी हो चुकी सरकार से कि एक बार फिर से सीमा आजाद के बारे में विचार करे। सीमा हमारे समय की महत्‍वपूर्ण मील का पत्‍थर हैं और इस विश्‍वास के साथ उनका यह आलेख यहां प्रस्‍तुत कि एक पत्‍थर तो तबियत से उछाला हमने... 

याद करें बचपन की. वे कौन सी यादें हैं जो हमें अभी भी रोमांचित करती हैं- गर्मी की उमस भरी रात में छत पर लेटना और अपनी ज़मीनी दुनिया भूल कर चांद-सितारों की दुनिया की सैर करना. सच, ये तारों भरा आकाश हम सब को आश्‍चर्य से भर देता था. जब गर्मी के बाद बरसात के आगमन की पूर्व सूचना देने वाले बादल के टुकड़े इस काले-काले आसमान में चक्‍कर लगाते हों तो यह और भी रहस्‍यमय हो जाता था. इन बादलों में हम न जाने कितनी आकृतियां देखा करते थे. आसमान में कभी-कभी इंद्रधनुष दिख जाता था तो हमारे लिए बहुत बड़ा कौतूहल हो जाता.


पर क्या आप कल्‍पना कर सकते हैं कि एक ऐसी दुनिया है जहां के बच्‍चे रात के आसमान व चांद-तारों की चमक से अनजान हैं. इंद्रधनुष ही नहीं चांद का दर्शन भी उनके लिए एक आश्‍चर्यजनक घटना है. जी हां, ऐसी भी एक दुनिया है. यह दुनिया है जेल की. यहां बच्‍चे शाम ढलते अपनी माताओं के साथ बैरक के अंदर बंद कर दिए जाते हैं. फिर सुबह सूरज निकलने के बाद ही इन्‍हें बैरक से बाहर निकाला जाता है. मेरा ध्‍यान इस बात की ओर तब गया जब एक दिन सुबह बैरक खुलने पर जेल में ही पैदा हुई ढाई साल की 'खुशी' बहुत तेज़ी से दौड़ते हुए मेरे पास आई. उसके छोटे से चेहरे की आंखें आश्‍चर्य से फैली हुई थीं. होंठ गोल हो गए थे और उसके नन्‍हे हाथ जिस ओर इशारा कर रहे थे वहां पश्चिम के आसमान में गोल सा चांद डूब रहा था. उसने तो न कभी सूरज देखा था न चांद. इसलिए उसके लिए ये बेहद आश्‍चर्यजनक चीज़ थी. मैंने उसे बताया कि वह चंदा मामा हैं. फिर वह हमेशा आकाश की ओर हाथ उठा कर पूछती है 'छीमा मामा'? सामान्‍य तौर पर जो बात वह रोज़ के अनुभव से जान सकती थी वह मेरे लिए समझाना असंभव था.



ये जेल के बच्‍चे हैं. इनकी माताएं किसी न किसी आरोप में जेल काट रही हैं. इनकी दुनिया इतनी सिमटी है जिसकी कल्‍पना बाहर की दुनिया के लोग तो नहीं ही कर सकते. जेल के अधिकारी भी नहीं करते. इसी कारण उन्‍हें इसका अहसास नहीं होता कि वे इन बच्‍चों का कितना महत्‍वपूर्ण समय छीन रहे हैं. थोड़ा बहुत समझने वाला कोई भी व्‍यक्ति यह समझ सकता है कि बच्‍चों को स्‍वस्‍थ तरीके से विकसित होने के लिए उसका उसके आसपास की दुनिया से संपर्क कितना ज़रूरी है. यह संपर्क उस बच्‍चे के स्‍कूल जाने से भी कई गुना ज्‍यादा ज़रूरी है. बाहरी दुनिया से संपर्क कितना ज़रूरी है. क्‍योंकि यही अनुभव संसार, उससे उपजी कल्‍पनाएं किसी बच्‍चे के दिमाग के विकास के लिए बेहद ज़रूरी है. पर जेल में बच्‍चों से इस अनुभव संसार को छीन कर उनके साथ जुर्म किया जा रहा है. मैं आपको कुछ उदाहरण देती हूं जिससे आपको भी इसका अहसास होगा.



जेल में रहने वाला किशन जो 6 साल का होने पर मां के साथ जेल आया था, वह चिन्‍टू (जो जन्म से ही जेल में है) से बता रहा था कि माता-पिता भगवान से बड़े होते हैं. चिन्‍टू ने पूछा कि माता-पिता क्‍या होते हैं? किशन ने बताया- 'मम्‍मी और पापा'. चिन्‍टू ने थोड़ा शर्माते हुए पूछा- 'पापा क्‍या होते हैं?' किशन ने उसे डांटते हुए कहा- 'धत् साले, पापा नहीं जानते?' चिन्‍टू चुप हो गया. यह सुन कर उसके बड़े भाई पिन्‍टू (उम्र 8 वर्ष) ने कहा, 'हमें पता है कि पापा क्‍या होता है. जो लोग मर्दाने में रहते हैं यानी मर्द लोग. न सीमा दीदी?' आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मुझे यह समझाने में कितनी मुश्किल आई होगी कि पापा क्‍या होते हैं.



जेल में रहने के कारण ये बच्‍चे बिल्‍ली-चूहा के अलावा किसी जानवर के बारे में नहीं जानते. कभी-कभी ये बच्‍चे अदालत जाने के लिए या मुलाकात के लिए जाने के लिए बाहर निकलते हैं तो रास्‍ते में दिखने वाले कुत्‍ता, गाय, भैंस, घोड़ा हर जानवर को आश्‍चर्य से देखते हैं और सबको बिल्‍ली ही बताते हैं.



हम बचपन से अपनी मां को खाना बनाते हुए देखते आए हैं. उन्‍हें सब्‍ज़ी काटते देखना बहुत सामान्‍य सी बात है. बल्कि जब हम थोड़ा बड़े हुए तो मां की तरह खाना बनाने का खेल भी खेला करते थे. पर महिला जेल में चूंकि खाना पुरुष बैरक से बन कर आता है इसलिए बच्‍चे इस स्‍वाभाविक घरेलू काम के बारे में कुछ भी नहीं जानते. थोड़ा बड़े बच्‍चे यहां गिरफ्तारी, अदालत और रिहाई का खेल खेलते हैं. जो बच्‍चा जज बनता है वह सभी को रिहाई दे देता है. इस खेल में सिपाही या पुलिस का चित्रण बहुत खराब होता है और कोई बच्‍चा सिपाही नहीं बनना चाहता.



इससे भी ज्‍यादा बुरा यह है कि ये बच्‍चे सब्जि़यों को नहीं पहचान सकते. जेल में सब्‍ज़ी में आलू की सब्‍ज़ी, मूली का साग, चौलाई और शलजम की सब्‍ज़ी ही बन कर आती है. इसलिए ये बच्‍चे इनके अलावा किसी दूसरी सब्‍ज़ी का स्‍वाद नहीं जानते. न ही किसी साबुत सब्‍ज़ी को पहचानते हैं. इन बच्‍चों ने चूंकि काम के नाम पर अपनी माताओं को केवल झाड़ू लगाते ही देखा है, इसलिए ये बच्‍चे नीम की टहनी बटोर कर उसका झाड़ू बना कर झाड़ू लगाने का खेल खेलते हैं.



नैनी सेंट्रल जेल में दो तरह के बच्‍चे हैं. एक वे जो जन्‍म से ही अंदर हैं या जब से उन्‍होंने होश संभाला है वे अंदर हैं. दूसरी तरह के बच्‍चे वो हैं जो बाहर की दुनिया से वाकिफ़ हैं. इन दोनों तरह के बच्‍चों के बीच होने वाली बातचीत कभी-कभी बहुत रोचक होती है. जैसे पिन्‍टू एक दिन अपने छोटे भाई को छोले-भटूरे के बारे में बता रहा था. उसने उसे लखनऊ की आदर्श जेल में कभी खाया था. वास्‍तव में, चिन्‍टू-पिन्‍टू की मां पहले लखनऊ की आदर्श जेल में थीं. यहां बच्‍चों को पढ़ने के लिए बाहर स्‍कूल भेजा जाता था. पिन्‍टू भी स्‍कूल जाता था इसलिए उसका अनुभव संसार थोड़ा ज्‍यादा बड़ा है. पिन्‍टू, चिन्‍टू को बता रहा था कि भटूरा बड़ा गोल और मुलायम होता है जो खाने में बहुत अच्‍छा होता है. उसने बताया कि उसने वहां पराठा भी खाया है. चिन्‍टू उसकी ओर ऐसे देख रहा था जैसे उसका भाई कितनी बड़ी बात बता रहा हो.



अभी एक महीना हुआ जब चिन्‍टू-पिन्‍टू के बाबा उन दोनों को अपने साथ लिवा ले गए. मैं कई दिन तक मानसिक रूप से उनके साथ खास तौर पर चिन्‍टू के साथ रही. क्‍योंकि जन्‍म के बाद सात साल का होने के बाद उसने बाहर की दुनिया में कदम रखा था. उसे तो अदालत के बहाने भी बाहर आने-जाने का मौका नहीं मिलता था. मैं कल्‍पना करती रही कि कैसे चिन्‍टू पहली बार अपने बाबा की उंगली पकड़े ट्रेन में बैठा होगा. पहली बार उसने सड़क पर भागती-दौड़ती मोटरगाड़ी देखी होगी. खेत-खलिहान देखा होगा. घर पर हर तरह के व्‍यंजन आश्‍चर्य के साथ खा रहा होगा और रात में छत पर लेट कर तारों भरा आसमान देख रहा होगा. जन्‍म के पूरे सात साल बाद!



नैनी सेंट्रल जेल में ऐसे बच्‍चों की कुल संख्‍या 15 से 25 के बीच है. यह संख्‍या घटती-बढ़ती रहती है. इन बच्‍चों से इनका बचपन, इनका अनुभव संसार छीन लिया गया है क्‍योंकि इनकी मां ने कोई जुर्म किया है या झूठे आरोप में फंसी हैं. सरकार भले ही सबको अनिवार्य शिक्षा का दावा करती हो पर इन बच्‍चों के लिए कोई शिक्षा व्‍यवस्‍था नहीं है. तिहाड़ जेल के बारे में मैंने पढ़ा है कि वहां बच्‍चों के क्रेच हैं. लखनऊ की आदर्श जेल के बारे में मैंने पिन्‍टू से सुना कि वहां बच्‍चे स्‍कूल जाते हैं. पर नैनी सेंट्रल जेल के बारे में ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है. इन बच्‍चों की दुनिया इतनी छोटी है कि ये जिस तरफ भी देखते हैं एक ऊंची सी दीवार सामने दिखती है. ऊपर जो छोटा सा आसमान है उसे भी बड़े-बड़े पेड़ों ने ढंक लिया है. ऐसा लगता है कि जैसे ये बच्‍चे भी हमारे साथ एक बड़े से कुएं में कैद हैं. रात में ये कुआं और भी संकरा हो जाता है. बच्‍चों की कल्‍पना को उड़ान देने वाले, उनमें रंग भरने वाले उद्दीपक इस दुनिया से नदारद हैं. फिर ये बच्‍चे ही हैं जो हर हाल में खेलते हैं, खिलखिलाते हैं और हमें भी हंसने के लिए मजबूर करते हैं.

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