Sunday, March 9, 2008

बेल्कुल ठीयिक

बेल्कुल ठीयिक ... असल मे है तो वैसे ये बिल्कुल ठीक लेकिन मेरठ मे आजकल ये लफ्ज एक बड़े तबके की जुबान पर कुछ ऐसे ही आ रहा है। बिल्कुल ठीक को ये तबका बेल्कुल ठीयिक बोल रहा है। हो सकता है की टाइपिंग मे वो बात ना आ रही हो, लेकिन बिल्कुल ठीक को कुछ उसी तरह से बोला जा रहा है। दरअसल इसके पीछे की जो कहानी है, लगता है प्रकाश झा की कोई फ़िल्म चल रही है। मेरठ के एस एस पी हैं ज्योति नारायण। बिहार से हैं, और उनके बोलने की टोन भी बिहारी ही है। यहाँ की कमाऊ और नॉन कमाऊ, दोनों तरह के रिपोर्टरों से एक बात सुनने को मिलती है की एस एस पी साहब बड़े इमानदार हैं। हो सकता है की वो ऐसे ही हो, लेकिन मुझे नही लगता की वो ठीक वैसे ही होनेगे जैसा की पुलिस वाले या फ़िर रिपोर्टर्स कहते हैं। ऐसा होना सम्भव ही नही है। आप नही खायेंगे तो आप बाहर कर दिए जायेंगे। ऐसा ही सिस्टम है। बहरहाल ये जो बेल्कुल ठीयिक है, ये उनका तकिया कलाम है। हफ्ते मे दो तीन दिन मुझे भी क्राइम देखना होता है तो एस एस पी से बात करनी पड़ती है। मुझसे भी वो यही तकिया कलाम बोला करते हैं। अब इन कप्तान साहब के तकिया कलाम की ये हालत है की पुलिस डिपार्टमेंट के बाकी लोगों मे जो लग हैं, वेस्ट यू पी के हैं । भाषा उनकी उसी तरह है जैसी की वेस्ट यू पी की होती है। लेकिन सब के सब आजकल बिहारी मे बात कर रहे हैं। कल रात मैं अपने क्राइम रिपोर्टर के साथ आबू लेन जा रहा था। रस्ते मे एस एस पी के घर के सामने उन्ही के एक हवलदार मिल गए। कोई उभास जैसा नाम था उनका। लगे बिहारी मे बात करने। आमतौर से फिल्म मे बिहारी स्टाइल की बोली का मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन यहाँ तो बात कुछ और ही थी। हवलदार साहब बिहारी टोन मे बात करके ख़ुद को एस एस पी टाइप का कोई जीव मान रहे थे। ये मजाक नही था। ये था एक मोडल और उसके पीछे का असर। बात फ़िर से वही से शुरू हुई के एस एस पी इमानदार हैं और कुछ एक पुलिस वालों के लिए रोल मोडल भी । लेकिन फ़िर भी मैं कहता हूँ की एस एस पी इमानदार नही है, बेईमान भी नही । बस यू ही काट रहा है अपनी जिंदगी को। शायद ऐसी हो किसी बात ने हमारे क्राइम रिपोर्टर सचिन त्यागी पर कोई असर किया होगा और वो बुरी तरह से उनका फैन बन गया । लेकिन बात तो फ़िर से वही अटक जाती है ... ठाकरे परिवार बिहार और बिहारियों के पीछे हाथ पैर धोकर और नहाकर पडा हुआ है। एक बार काफी हाउस पर भूपेन ने लिखा था ....
भले ही अघाये हुए आलोचक
इस भूमिका के लिए
कोई पुरस्कार दे दे
पर वो शर्म कहां जायेगी
जो अब चेहरे पर नहीं दिखती

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

BUpen jI ke Sabdo me...
यही सही है-

भले ही अघाये हुए आलोचक
इस भूमिका के लिए
कोई पुरस्कार दे दे
पर वो शर्म कहां जायेगी
जो अब चेहरे पर नहीं दिखती