Thursday, September 20, 2007

मुम्बई से लौटते उदास चेहरों की दास्ताँ

प्रभात
बीस साल हुए जब प्रभात बरेली मे अमर उजाला के दफ्तर गए फोटोग्राफर बनने और बन गए अखबारनवीस । बरेली संस्करण मे सम्पादकीय के सभी विभागों मे काम किया, रिपोर्टिंग से लेकर रविवारीय पन्ने के संपादन तक। लेकिन, फोटोग्राफी की लत थी कि बढती ही गई । जितना घूमा या फिर लिखा, उसके मूल मे वजह तसवीरें उतारना ही रहा। आजकल दैनिक जागरण के नए अखबार आई नेक्स्ट के लिए काम कर रहे हैं । बजार के लिए उन्होने ये लेख अपनी किताब "आज के दौर की अखबारनवीसी " से दिया है ।



मुम्बई से आने वाली रेलगाड़ियों मे इन दिनों फैज़ाबादियों की तादाद बढ़ गई है। गर्मियों की शुरुआत के साथ पूर्वांचल लौटने वाले यों भी ज्यादा होते हैं। ब्याह - गौने के दिन जो शुरू होने वाले हैं। मगर इन चेहरों पर उत्साह का कोई उल्लास नही, सफ़र की थकान भी नही, सब कुछ छीन लिए जाने की उदासी दिखती है। मुम्बई पुलिस इन दिनों नाईट क्लबों -बियर बार को लेकर अचानक सख्त हो गई है। रोज़ रोज़ छापे , गिरफ्तारियां , नए नए कायदे-निर्देश। इन बंधनों ने उनसे उनकी रोज़ी छीन ली। तारून के बेलगरा, तकमीनगंज,मामगंज, और रसूलाबाद जैसे इलाकों से मुम्बई गए तमाम कुनबे लॉट आये हैं। मुम्बई के नई 'नैतिकता' के मारे इंसानी चहरे , नाचने गाने के बहाने सनातन इंसानी फितरत मे अपनी बेहतरी तलाशते चिचुक गए चहरे। हाथ, गले और उँगलियों की सुनहरी चमक उनकी पेशानी की रेखाओं पर कोई असर नही डालती। कल क्या होगा, किसी को अंदाज़ नही। अब देखा जाएगा दो चार महीने बाद।

बेलगरा बाज़ार से आगे जाती सड़क के किनारे खडे सेमल के उंचे पेड़ों से उतरकर आँचल फैलाती शाम , साईकिल के कैरियर पर बैठी वह युवती एक झटके से उतरकर घर के सामने पडी चारपाई पर बैठ जाती है। सवालिया निगाहों से ताकती है और फिर दूसरी तरफ मुह करके पान की पीक थूकती है। उस घर को देखकर एकबारगी किसी को अंदाज़ नही होगा कि मुम्बई की चकाचौंध भरी दुनिया से भी इसका कोई नाता हो सकता है। मगर सच तो यही है। माया मुम्बई मे रहती हैं अपनी बेटी खुशबु के साथ। गहनों से लदी स्थूलकाय महिला मीना हैं, उनकी बहन। थोड़े संकोच के साथ शुरू हुई पूरी बातचीत मे मुम्बई के कारोबार की असलियत अप्रत्यक्ष रुप से बनी रही। शुरुआत की माया की बुआ रामवती ने जो एक जमाने मे थियेटर कम्पनी मे अभिनय करती और गाती भी थी। बनारस मे बाकायदा उस्ताद शुकरुल्ला से तालीम और फिर थियेटर की बाइज़्ज़त नौकरी। मगर तब का ज़माना और था, रियासतें थीं , जमींदार थे सो ऎसी तंगी नही थी। माया मुम्बई मे हाजी अली के पास एक बियर बार मे काम करती थी। काम यानी डांस। पिछले महीने किसी होटल मे किसी नेता को पीट दिया गया और फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ। कार्निवल बार, जहाँ वह काम करती थी, बंद हो गया। काम के बारे मे पूछने पर बताती हैं कि नाच गाना और क्या। कभी किसी ने पूछ लिया कि जूस पीने चलोगी तो चले जाते हैं। वहीँ हज़ार पांच सौ दे देता है। फिर होटल मे बुलाता है। यही है कुल जिंदगी। फारस रोड पर चिक्कलबाड़ा की एक चाल, जिसमे एक ही कमरे मे बाथरूम और रसोई सब कुछ और बार की जगमग रातें। यहाँ लौट आने पर मुम्बई बहुत याद आता है उन्हें। क्या मुम्बई की सुबह ! 'कहॉ का सवेरा बाबू। रात भर तो हाड तोड़ते -जागते हैं , कब सुबह हो जाती है पता ही नही चलता। फिर लौटकर दिन भर सोते हैं' बताती हैं माया। उन्हें अफ़सोस है कि अपनी बेटी के लिए कुछ नही कर पाई । फिरोजी रंग की पोशाक मे घर के अन्दर बाहर घूमती वह किशोरी भी उनके साथ बार मे जाने लगी थी। हाव भाव मे ग्राम्य परिवेश से अलग होने की अभिजात किस्म की झलक। पुलिस ने कह दिया है कि २१ साल से कम की युवतियाँ अब बार मे डांस नही करेंगी। सो उसका आसरा भी गया। यों और करे भी तो क्या, उसे पढ लिखा नही पाई। बेटा है जो यहीं रहकर पढता है।

बताती हैं कि एक भाई को पढ़ाया लिखाया , दूसरे भाई-भाभी और बहन को भी देखती है। ये सब यहीं गाँव मे ही रहते हैं। कई बार मन करता है कि कुछ और जमीन खरीदकर यहीं गाँव मे ही रह जाएँ मगर हो नही पाता। यह मुम्बई की कशिश है जो बार बार खींच ले जाती है। माया को पछतावा है , मुम्बई से लौट आने का नही, इस पेशे मे आने का। कहती हैं कि अब न तो पैसा है और ना ही इज़्ज़त रह गई है इस पेशे मे। फिर भी यही क्यों ! माया का जवाब बाक़ी सारे सवालो को खामोश कर देता है। ' इस पेशे मे सबको तलाश है एक एसे शख्स की जो अपना लेगा, ढ़ेर सारा पैसा देगा और अपना नाम भी। इज़्ज़त की इसी जिंदगी की तलाश मे जाने कितनी जिंदगियां गर्क हो जाती हैं। मगर आस है कि पीछा ही नही छोडती।' यह सेलयुलायड का 'चांदनी बार' नही, जिंदगी है, जहाँ विडम्बनाएँ हैं , विद्रूपता है और विरोधाभास ऐसे कि फिल्मी कहानी फिस्स हो जाए ।

1 comment:

Unknown said...

काफी ढूंढने पर बड़ी मुश्किल से लिखा। प्रभात जी का लिखा जो एक बार पढ़ ले बार-बार पढ़ना चाहता है। शब्दों की बुनावट ही ऐसी कमाल की होती है। खैर, इस लेख में उर्दू और फारसी के अल्फाज न देखकर थोड़ी निराशा भी हुई। शायद लेख काफी पहले लिखा गया हो। हां, प्रभात जी से उम्मीद थी कि माया की पेशेगत मजबूरियां उससे जानने के बाद वह इस मुद्दे पर अपनी समझदारी की झलक देकर अपने उत्सुक पाठकों की समझ भी बढ़ाते। अखबारनवीसी पर लिखी किताब में अखबारी रिपोर्ट की तरह तटस्थ रहने के सरल रास्ते से होने के लालच में वह माया की नगरियों में इस पेशे के उभरने, फैलने के ऐतिहासिक कारणों पर भी बात करते। एक लेखक के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक-ऐतिहासिक घटनाओं और ज्वलंत सवालों पर तटस्थ बना रहना कब तक चलेगा। रामधारी सिंह दिनकर कह गए थे- समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध...