Tuesday, May 15, 2007

जिन्हे सुदर्शन छाती फुलाके हिंदू कहते हैं

संघ,सुदर्शन और साम्प्रदायिकता- आख़िरी
उच्च वर्ण के लोगों द्वारा बनाए गए ऐसे ही जानवरों की समानता के लिए ही बुद्ध ने अपनी पदयात्रा शुरू की थी। उद्देश्य था एक समतामूलक समाज की स्थापना। और फिर एक समय तो ऐसा आया जब भारत के अधिकांश भूभागों पर बौद्ध राजाओं का शासन था। जिसे जे.सी.मिल ने हिंदू काल कहा है उसमे से ज्यादातर बौध्ध्काल ही है और मिल ने जानबूझकर इसे हिंदुकाल कहा जिससे भारत मे यह स्थापित हो सके कि यहाँ पहले तो हिंदू थे और बाद में उन्हें भगाकर मुस्लिम शासक बन गए। जिनके अत्याचारों से अगर किसी ने मुक्ति दिलाई तो वह अंग्रेज थे। यह जान लें कि उस समय तक इस महाद्वीप का मुख्य व्यापार स्थल (हालांकि उस समय तक व्यापार व्यवस्था इतनी टाईट नही हो पायी थी) कुरुक्षेत्र और उसके आस पास का इलाका था। तो यह अभूतपूर्व खोज थी लोहे के भंडारों का उड़ीसा और बिहार के क्षेत्रों मे पाया जाना। ये उस समय की सबसे बड़ी खोज थी जिसने इस महाद्वीप की धुरी ही बदल कर रख दीं। अब तक की सारी सांस्कृतिक, राजनितिक गतिविधियों के केंद्र बदलने लगे और खिसक कर उसी तरफ चले गए जिस तरफ लोहा पाया गया। यही वह वक्त था जब भारत में हर चीज़ की व्यवस्थित प्रगति शुरू हुई। व्यापार, शिक्षा, दर्शन,गणित , विज्ञानं,भाषा और साहित्य जैसे क्षेत्रों के व्यवस्थित विकास का यही युग . इस बात पर एक बार फिर से याद कीजिये कि बौद्ध धर्म को अपनाया किसने था? वही जो शूद्र थे, वो नही जो ब्राह्मण थे। वो नही जिन्हे सुदर्शन छाती फुलाकर कहते हैं कि हिंदू हैं। बहरहाल , शूद्रों ने बौद्ध धर्म ग्रहन करने के बाद काफी प्रगति की. उनकी इस अप्रत्याशित प्रगति से कथित हिंदू खेमे मे बौखलाहट आनी स्वाभाविक थी और वह शुरू भी हो गयी। मनु स्मृति जैसे अमानवीय किताबों और महाभारत जैसे विभ्रमी ग्रंथों मे कुछ लचीलापन लाने की बात सोची जाने लगी जिससे कि लोग हिंदू धर्म के प्रति आकर्षित होन और शासक वर्ग की तरफ होने वाला उच्च कुलीन पलायन रूक सके। यही वह समय था जब गीता जैसे अंतर्विरोधी ग्रंथ की परिकल्पना की गयी।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

भाई क्या कहना चाहते हो कुछ स्पष्ट नही हो पाया।

"महाभारत जैसे विभ्रमी"
"गीता जैसे अंतर्विरोधी ग्रंथ की परिकल्पना की गयी।"
आप प्रमाण दे कि गीता मे अंतर्विरोध है और महाभारत मे विभ्रम है?

हमे उसकी ज्यादा जान कारी नही है ना इसी लिए पूछ रहे हैं।

Srijan Shilpi said...

यह सही है कि समतामूलक समाज की स्थापना संबंधी बौद्ध धर्म का लक्ष्य वर्चस्वशील वर्णाश्रमवादी सवर्णों को शुरु से ही नागवार गुजरा था। आदि शंकराचार्य ने भारत से बौद्ध धर्म का उन्मूलन करने के लिए आजीवन अथक परिश्रम किया और काफी हद तक वह सफल भी रहे। अपने मूल स्थल से बहिष्कृत होने के बावजूद बौद्ध धर्म चीन, तिब्बत, जापान आदि दक्षिए एशिया के कई देशों में फलता-फूलता रहा। लेकिन महाभारत और गीता के संबंध में ऐसा कहा जाना उपयुक्त नहीं लगता। हां, मनुस्मृति, शंकराचार्य रचित कुछ ग्रंथ और गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस वर्णाश्रम व्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं और समतामूलक समाज के आदर्श का विरोध करते हैं।