Monday, October 14, 2024

संसार का पहला लॉन- कैसे लॉन हमारे दिमाग, फिर घर में घुसे

 मकान बनवाते वक्त मकान के सामने की सजावट के लिए सबसे आसान उपाय अगर आज किसी के दिमाग में आता है तो वो लॉन है। घर के सामने चाहे चार हाथ का लॉन ही क्यों न हो, लेकिन हो। कई घरों में मैंने 2X4 फीट के भी लॉन देखे हैं। और तो और, अब तो लॉन के मारे लोग भले मल्टिस्टोरी इमारतों में रहते हों, अपनी बाल्कनी में ही प्लास्टिक की घास लगवाकर उसे लॉन लुक देने की कोशिश करने लगे हैं। मेरे एक परिचित ने तो अपनी लगभग पूरी छत पर ही लॉन बना रखा है, क्योंकि उनका घर तीन मंजिला इमारत पर है, जिसमें वो सबसे ऊपरी मंजिल पर रहते हैं। लॉन किस तरह से हमारे दिमाग में उगा है, इसके बारे में युवाल नोआ हरारी कुछ काम की बातें बताते हैं।

चैंबर्ड कैसल का लॉन- संसार का पहला लॉन
अपनी किताब होमो डेयस में युवाल नोआ हरारी वो कहते हैं कि पाषाण युग के शिकारी-संग्रहकर्ता अपनी कन्दराओं के प्रवेश द्वार पर घास की खेती नहीं करते थे। ऐसा कोई चारागाह नहीं था, जो एथेनियाई एक्रोपोलिस, रोमन कैपिटोल, यरुशलम के यहूदी देवस्थल या बीजिंग के निषिद्ध नगर आने वाले आगन्तुकों का स्वागत करता। निजी आवासों और सार्वजनिक इमारतों के प्रवेश- द्वार पर लॉन विकसित करने का विचार मध्य युग में फ़्रांसीसियों तथा अंग्रेज़ कुलीनों के क़िलों में जन्मा था। शुरुआती आधुनिक युग में इस आदत ने गहरी जड़ें जमाईं, और यह अभिजात वर्ग की ख़ास पहचान बन गई।

सुव्यवस्थित लॉन ज़मीन की और ढेर सारे काम की मांग करते थे, ख़ासतौर से उससे पहले के दिनों में, जब घास काटने की मशीनें और पानी का छिड़काव करने वाले स्वचालित उपकरण नहीं हुआ करते थे। बदले में, वे कोई मूल्यवान चीज़ नहीं उपजाते थे। आप उन पर जानवरों तक को नहीं चरा सकते थे, क्योंकि वे घास को खाते और उसको रौंद देते। ग़रीब किसान लॉनों पर अपनी क़ीमती ज़मीन और वक़्त बर्बाद नहीं कर सकते थे। इसलिए सामन्ती क़िलों के प्रवेश-द्वार पर विशुद्ध घास के मैदान प्रतिष्ठा के ऐसे प्रतीक हुआ करते थे, जिनकी नक़ल कोई नहीं कर सकता था। वह आने-जाने वालों के सामने पूरी दबंगई के साथ यह दावा करता था : 'मैं इतना धनवान और ताक़तवर हूं, और मेरे पास खेत जोतने वाले इतने दास हैं कि मैं इस हरियाले वैभव को जुटाने में सहज समर्थ हूं'। लॉन जितना ही बड़ा और स्वच्छ होता था, उतना ही वह राजवंश शक्तिशाली होता था। अगर आप किसी ड्यूक के घर जाते और उसके लॉन को बुरी हालत में देखते, तो आप समझ जाते कि वह ड्यूक मुश्किल हालात से गुज़र रहा है।

यह बेशक़ीमती लॉन अक्सर महत्त्वपूर्ण उत्सवों और सामाजिक कार्यक्रमों के आयोजनों का स्थल हुआ करता था, बाक़ी सारे समय दूसरे लोगों के लिए सख्त रूप से प्रतिबन्धित होता था। आज दिन तक, असंख्य महलों, सरकारी इमारतों और सार्वजनिक स्थलों पर लगे साइनबोर्ड लोगों को 'घास से दूर रहने की' सख्त हिदायत देते हैं। मेरे पूर्व ऑक्सफ़ोर्ड कॉलेज में समूचा अहाता विशाल, आकर्षक लॉन से निर्मित हुआ करता था, जिस पर हमें साल में सिर्फ़ एक दिन चलने या बैठने की इजाज़त हुआ करती थी। अन्य दिनों में बेचारे उस छात्र की शामत आ जाती थी, जिसने घास के उस पवित्र मैदान को अपने पैरों से गन्दा कर दिया होता था।

शाही महलों और सामन्ती क़िलों ने लॉनों को प्रभुत्व के प्रतीक में बदल दिया। जब परवर्ती आधुनिक काल में राजाओं को राजगद्दी से हटा दिया गया और सामन्तों के सिर क़लम कर दिए गए, तो नए राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री लॉन रखने लगे। संसदें, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रपति भवन और अन्य सार्वजनिक इमारतें स्वच्छ हरी पत्तियों की अनेक कतारों में उत्तरोत्तर अपनी शक्ति की उद्घोषणा करती गईं। इसी के साथ-साथ लॉनों ने खेलों की दुनिया को भी जीत लिया। हज़ारों सालों से मनुष्य बर्फ से लेकर रेगिस्तान तक हर तरह के कल्पनीय मैदानों में खेलते आ रहे थे, लेकिन पिछली दो सदियों में वास्तविक महत्त्वपूर्ण खेल, जैसे कि फुटबॉल और टेनिस घास के मैदानों में खेले जाते रहे हैं। बशर्ते, ज़ाहिर है, आपके पास पैसा हो। रियो डि जनेरियो के फ़ावेलाओं (झुग्गियों) में ब्राजीलीय फुटबॉल की भावी पीढ़ी रेत और मिट्टी पर कामचलाऊ गेदों से खेल रही है, लेकिन समृद्ध उपनगरों में रईसों के बेटे उत्तम तरीक़े से तैयार लॉनों का आनन्द लेते हैं 1

इस तरह मनुष्यों ने लॉन को राजनैतिक शक्ति, सामाजिक हैसियत और आर्थिक समृद्धि से जोड़ लिया। आश्चर्य की बात नहीं कि उन्नीसवीं सदी में उभरते हुए बूर्चा वर्ग ने पूरे उत्साह के साथ लॉन को अपनाया। शुरू में अपने निजी आवासों पर इस तरह की विलासिता सिर्फ़ बैंककर्मियों, वकीलों और उद्योगपतियों के बूते की ही बात हुआ करती थी, लेकिन जब औद्योगिक क्रान्ति ने मध्य वर्ग का विस्तार किया और घास काटने की मशीनों तथा पानी के छिड़काव के स्वचालित उपकरणों को जन्म दिया, तो लाखों परिवार अचानक घरेलू लॉनों का रख-रखाव करने में समर्थ हो गए। अमेरिकी उपनगरों में स्वच्छ और सुव्यवस्थित लॉन रईस आदमी की विलासिता से मध्यवर्ग की ज़रूरत में बदल गए।

यह तब हुआ, जब उपनगरीय गिरजाघरों की पूजन-पद्धति में एक नए अनुष्ठान का योग हुआ। गिरजाघर में इतवार की सुबह की उपासना के बाद बहुत सारे लोग समर्पित भाव से अपने लॉनों की घास काटने छांटने लगे। सड़कों पर चलते हुए आप तत्काल किसी भी परिवार के लॉन के आकार और ख़ासियत से उस परिवार की समृद्धि और हैसियत का निश्चय कर सकते थे। जॉनेस परिवार किसी मुसीबत में फंसा है, इस बात को जानने का उनके घर के सामने के हिस्से के उपेक्षित पड़े लॉन से ज़्यादा पक्का संकेत और कुछ नहीं हो सकता। संयुक्त राज्य अमेरिका में घास आज मक्का और गेहूं के बाद सबसे व्यापक फ़सल है, और लॉन उद्योग (पौधे, खाद, घास काटने की मशीनें, पानी छिड़कने के उपकरण, माली) सालाना अरबों डॉलर का व्यापार करता है।

लॉन पूरी तरह से यूरोपीय या अमेरिकी जुनून नहीं रहा। जिन लोगों ने कभी वैली का भ्रमण नहीं किया, वे भी संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति का लुआख़ भाषण सुनने वाइट हाउस के लॉन में जाते हैं, हरे स्टेडियमों में महत्त्वपूर्ण फुटबॉल खेल खेले जाते हैं, और घास को काटने छांटने की बारी किसकी है, इस बात को लेकर होमर तथा बार्ट सिम्पसन आपस में झगड़ते हैं। सारी दुनिया के लोग लॉनों को सत्ता, पैसे और प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं। इसलिए लॉन दूर-दूर तक और हर तरफ़ फैल चुके हैं, और मुस्लिम दुनिया का दिल जीतने की तैयारी में हैं। क़तर का नया-नया स्थापित म्यूज़ियम ऑफ़ इस्लामिक आर्ट ऐसे भव्य लॉनों से घिरा हुआ है, जो हारून अल-रशीद के बग़दाद से ज़्यादा लुई चौदहवें के वर्साइल की याद दिलाते हैं। इनका आकल्पन और निर्माण एक अमेरिकी कम्पनी द्वारा किया गया था, और उनकी 100,000 वर्ग गज़ में फैली घास अरब के रेगिस्तान के बीचोंबीच - हरी बनी रहने के लिए ताज़ा पानी की अतिविशाल मात्रा की मांग करती है। इस बीच, दोहा और दुबई के उपनगरों में मध्यवर्गीय परिवार अपने लॉनों पर गर्व करने लगे हैं। अगर वहां सफ़ेद चोगे और काले हिजाब दिखाई न देते होते, तो आप आसानी-से ऐसा सोच सकते थे कि आप मध्य पूर्व की बजाय मध्यपश्चिम में कहीं पर हैं।

लॉन का यह संक्षिप्त इतिहास पढ़ चुकने के बाद, अब आप जब अपने सपनों का मकान तैयार करने की योजना बना रहे होंगे, तब आप मुमकिन है कि सामने के परिसर में लॉन बनाने के बारे में दो बार सोचें। बेशक, आप अभी भी यह करने के लिए स्वतन्त्र हैं, लेकिन आप उस सांस्कृतिक बोझ को झटककर अलग करने के लिए भी स्वतन्त्र हैं, जो यूरोपीय सामन्तों, पूंजीपति मुग़लों और सिम्प्सनों ने आपको वसीयत में दिया है। 

Wednesday, September 25, 2024

ये सांप है या प्रकृति का वरदान?


ये प्रयागराज के बड़े हनुमान मंदिर के पास पानी में तैरता आया पनडुब्बी सांप है (पानी में बैरियर वाली)। इलाहाबाद निवासी रवींद्र मिश्रा ने इसे एक जीव विज्ञानी ग्रुप पर शेयर किया है। जीव विज्ञानी इसे चेकर्ड कीलबैक के नाम से बुलाते हैं। लेकिन हम लोग इसे पनडुब्बी कहते थे। इस तस्वीर में इसका सफेद हिस्सा बहुत साफ दिख रहा है और इसपर बने चेक भी एकदम साफ दिख रहे हैं। गांव-गिरांव के तालाबों में यह अक्सर काले या स्लेटी रंग का दिखता है और पानी के बाहर इसकी गरदन बस एकाध फुट ही दिखती है।
हम लोग इसे पनडुब्बी सांप इसलिए कहते थे कि जैसे ही यह हमें आता देख, झट से डुबकी मार दे। अक्सर यह तालाब में कछुए की तरह भी सिर निकाले तैरता दिखता था, लेकिन कछुए की बहुत ही गंदी नकल करता था, तो हम लोग पकड़ पा जाते थे कि पनडुब्बी ही है। वैसे यह तालाब में ही नहीं रहता था। यह पानी से भरे धान के खेतों में भी दिखता था। चूंकि धान के खेत उथले होते हैं तो वहां यह कछुए की तरह ही तैरता था। कभी-कभार हममें से कुछ दोस्त इसकी कछुए वाली चालबाजी में गच्चा भी खा गए, और उन्होंने इसे कछुआ समझकर पकड़ने की कोशिश की। बदले में मिला एक तेज वार। पनडुब्बी काफी कटखन्ना होता है, तुरंत काटता है। बस गनीमत यही होती है कि इसमें जहर नहीं होता और गांव-जुआर के लोग यह बखूबी जानते हैं। माना जाता है कि उनके लार में थोड़ा सा जहर होता है, क्योंकि काटने पर अक्सर खुजली होती है और थोड़ी सूजन होती है।

वैसे तो दुनिया में तरह-तरह के सांप पाए जाते हैं, पानी में रहने वाले भी। समुद्री पानी में जितने भी तरह के सांप पाए जाते हैं, लगभग सभी जहरीले होते हैं। कई तो इतने कि घंटे भर में अगर इलाज ना मिला तो जान निकलने में देर नहीं लगती। लेकिन पनडुब्बी धरती नाम के गोले में बस इसी ओर मिलता है। इसी ओर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में। थोड़ा बहुत यह जावा, सुमात्रा, म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया, लाओस, दक्षिणी चीन, इंडोनेशिया और मलेशिया में भी पाया जाता है, लेकिन थोड़ा बहुत ही।
पनडुब्बी घासफूस नहीं खाता, और वैसे भी कोई सांप घासफूस नहीं खाता। सापों की देह की बुनावट ही कुछ ऐसी है कि उन्हें हाई प्रोटीन आहार चाहिए होता है। तो अपने कीलबैक महाराज मछलियों और मेंढक का सेवन करते हैं, चर्बी सहित। साहब बेहतरीन तैराक हैं और हमला करने में मगरमच्छ की कॉपी करते हैं, मतलब धीमे धीमे चुपचाप आना और अचानक झपट्टा मारना। लेकिन जब इस पर हमला होता है तो यह अपने शरीर को चपटा कर लेता है और फुफकारने जैसी आवाज़ें निकालता है ताकि दुश्मन को डराया जा सके। इसके चपटे शरीर के कारण यह बड़ा और खतरनाक दिखाई देता है, जिससे दुश्मन डर कर पीछे हट जाए। लेकिन अगर कोई इसे अच्छे से जानता हो तो वह शायद ना डरे।
और अगर कोई इससे ना डरे तो ये बेचारा खुद डर जाता है। फिर यह तेजी से भागने की कोशिश करेता है और आमतौर पर पानी में कूद जाता है, जहां यह आसानी से तैर सकता है और शिकारियों से बच सकता है। यह एक नंबर का नाटकबाज होता है और अपने आप को बड़ा दिखाने, फुफकारने और छिपने का प्रयास करता है ताकि खतरे से बच सके। इसमें कोई बेजा बात नहीं है। इंसान भी तो यही करता है, चाहे वो किसी का भी नुकसान ना कर पाए।
चेकर्ड कीलबैक के इवोल्यूशन पर केंद्रित कोई विस्तृत शोध नहीं है। यानी यह सांप कैसे बना, इसकी देह पर चेक्स कैसे बने, इसने पानी में रहना कैसे शुरू किया, इसने चपटा होना कैसे डिवेलप किया- इस तरह की बातों के सीधे-सीधे कोई जवाब हमारे सामने नहीं हैं। अगर किसी को इन सवालों के जवाब चाहिए, तो शायद पूरी एक उम्र लगानी होगी और वो हम भारतीयों के पास है नहीं। हम तो अभी तक कुत्तों को नहीं समझ पाए हैं, सांप तो बहुत दूर की चीज है। भले ये सांप-सपेरों का देश कहा जाता हो दुनिया भर में, लेकिन सांपों को लेकर हमारे यहां किसी भी लेवल की जागरूकता नहीं है।

ये सब तो बतकुच्चन है, असल बात ये है कि एक दूसरा रास्ता है जो कीलबैक चिचा के इवोल्यूशन से जुड़े कुछ मिलते जुलते जवाब दे सकता है। कीलबैक न सिर्फ तालाब के पानी या धान के खेतों में घुलमिल जाता है, बल्कि आप इसे ध्यान से देखेंगे और इससे मुलाकात और मुकालात करने वाले अच्छे से जानते हैं कि ये झाड़-झंखाड़ और घास में भी छुपे हुए होते हैं। ऐसे में हमें चलना होगा सांपों के छलावरण और प्राकृतिक चयन पर हुए शोधों की तरफ, जो इस सांप के इवोल्यूशन की समझ को बेहतर बनाते हैं।
इन अध्ययनों में से एक थोड़ा ध्यान खींचता है और सवाल के सबसे पास पहुंचता है। इसके मुताबिब सांपों का रंग और पैटर्न का कनेक्शन उनकी प्रजनन सफलता के साथ भी है। जिन सांपों के पास बेहतर छलावरण होता है, वे न केवल शिकारियों से बचने में सक्षम होते हैं, बल्कि वे बेहतर तरीके से शिकार भी कर पाते हैं। यह उन्हें अधिक समय तक जीवित रहने और प्रजनन करने का अवसर देता है, जिससे उनके अनुकूल जीन पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते हैं। इस प्रकार, चेकर्ड कीलबैक जैसे सांपों का चेक पैटर्न केवल सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता को भी बढ़ाता है​।
चेकर्ड कीलबैक में कई गोल दांत होते हैं, जो फिसलन वाली मछलियों को पकड़ने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं, लेकिन आसानी से खून बहने का कारण बन सकते हैं। यह बताता है कि इसका इवोल्यूशन धरती से पानी की ओर भी हो सकता है। वैसे भी सांपों की इवोल्यूशन थ्योरी यह भी इशारा करती ही है कि सांपों के पूर्वज टेट्रापोड्स (चार पैरों वाले सरीसृप) थे, जो जमीन पर चलते थे। वैज्ञानिकों का मानना है कि सांपों के पूर्वज स्क्वामेट्स (Squamates) नामक सरीसृप वर्ग से थे, जिनमें छिपकलियां और सांप दोनों शामिल हैं। सांपों का विकास समुद्री और जमीन दोनों प्रकार के जीवन से जुड़ा रहा है, और वे धीरे-धीरे अपने चार अंगों को खोते गए और एक लंबा, बिना अंग वाला शरीर विकसित किया।
सांपों के विकास को समझने के लिए कई फॉसिल्स (जीवाश्म) का अध्ययन किया गया है। सबसे पुराने सांपों के फॉसिल्स में अंगों के अवशेष पाए गए हैं, जो बताते हैं कि उनके पूर्वज चार पैरों वाले जीव थे। यह भी देखा गया है कि सांपों का विकास छिपकलियों के समान हुआ है, जिनसे वे अपने शरीर के अंग खोकर अलग हुए। समय के साथ कुछ सांपों ने समुद्र और जलाशयों में जीवन के लिए खुद को अनुकूलित किया, जबकि अन्य ने जमीन पर रहना पसंद किया।
जैसे-जैसे उनके पर्यावरण के अनुसार सांपों की आदतें बदलती गईं, उनके शरीर में भी बदलाव आते गए। जमीन पर रहने वाले सांपों ने अपनी त्वचा के रंग और पैटर्न को इस तरह विकसित किया, जिससे वे अपने परिवेश में छिप सकें और शिकारियों से बच सकें। वहीं पानी में रहने वाले सांपों ने लाखों वर्षों के इवोल्यूशन के दौरान तैरने की क्षमता को विकसित किया। इस अनुकूलन ने उन्हें जल निकायों में शिकार करने और शिकारियों से बचने में मदद की।

भारत में चेकर्ड कीलबैक (Xenochrophis piscator) तो है ही, ओलिव कीलबैक (Atretium schistosum) भी है जो नदियों, तालाबों और झीलों के पास पाया जाता है। इसका आहार मुख्य रूप से जलीय जीव होते हैं, और यह तैरने में कुशल होता है। डार्क-बेलीड मार्श स्नेक (Gerarda prevostiana) भी मिलता है जो मुख्य रूप से पश्चिमी घाट और भारत के तटीय क्षेत्रों में रहता है। यह जलीय शिकारियों से बचने और कीचड़ भरे इलाकों में तैरने में सक्षम होता है। एशियाई वाटर स्नेक (Homalopsis buccata) भी है जो भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में ताजे पानी के स्रोतों के पास पाया जाता है। यह धीमी गति से बहने वाली नदियों और तालाबों में मछलियों और अन्य छोटे जलीय जीवों का शिकार करता है। फॉरस्टेन्स कैट स्नेक (Boiga forsteni) भी है जो तैरने में सक्षम तो होता ही है, पेड़ों पर चढ़ने में माहिर होता है। यह सांप पानी में भोजन की तलाश में उतर सकता है।
मैं जानता हूं, मगर चलते चलते बस एक आखिरी सवाल। पनडुब्बी इस संसार में है क्यों? चेकर्ड कीलबैक हमारे साथ रह क्यों रह रहा है? दरअसल चेकर्ड कीलबैक सांप प्रकृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। इसके व्यवहार और शिकार संबंधी आदतें इसे पारिस्थितिकी तंत्र का एक आवश्यक हिस्सा बनाती हैं। यह मुख्य रूप से मछलियों, मेंढकों, और छोटे जल जीवों का शिकार करता है। यह इन प्रजातियों की आबादी को नियंत्रित करता है, जिससे पानी के निकायों में शिकार-शृंखला संतुलित रहती है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र में अन्य प्रजातियों को भी जीवित रहने का मौका मिलता है।
इसके बिना, इन प्रजातियों की आबादी अनियंत्रित रूप से बढ़ सकती है, जिससे जल निकायों की जैव विविधता प्रभावित हो सकती है​। चेकर्ड कीलबैक छोटे जल जनित कीड़ों और उनके लार्वा को खाता है, जो कृषि क्षेत्रों में एक तरह के कीट होते हैं। यह सांप इन कीटों की संख्या कम करता है, जिससे फसलों को नुकसान कम होता है और कीटनाशकों पर निर्भरता घटती है। इस प्रकार, यह सांप प्राकृतिक कीट नियंत्रण के रूप में कार्य करता है और हमारी धान की पैदावार बढ़ाता है। आगे से अगर आप चावल का एक कौर भरें तो एक बार कीलबैक यानी पनडुब्बी चिचा का भी शुक्रिया अदा करें।

सबसे बड़ी बात यह कि सबसे ज्यादा कुर्बानियां भी पनडुब्बी के ही हिस्से में आई हैं। यह सांप न केवल शिकार करता है, बल्कि खुद भी बड़े पक्षियों और अन्य शिकारियों के लिए भोजन का स्रोत है। चील हो, बगुला हो या फिर मगरमच्छ या घड़ियाल ही क्यों न हो, सबको इसका स्वाद पसंद है। यह चक्र है जो कि पारिस्थितिक तंत्र की विविधता को बनाए रखने में मदद करता है, क्योंकि यह अन्य शिकारियों के लिए भोजन के रूप में काम करता है, जिससे उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक संतुलन बना रहता है​।
अंत में, यह हमारा सफाईकर्मी भी है क्योंकि यह वहां भी रहता है, जहां पानी के निकाय होते हैं। यह पानी में रहने वाले छोटे मृत या बीमार जीवों को खाकर पानी को साफ रखने में मदद करता है। इसके परिणामस्वरूप, जलाशयों की स्वास्थ्यवर्धक स्थिति बनी रहती है और अन्य जलीय जीवों के लिए अनुकूल पर्यावरण सुनिश्चित होता है​। मेरे ख्याल से इतना प्रकृति की इस महान पनडुब्बी को सलाम करने के लिए काफी होगा।

Saturday, August 17, 2024

849 वॉर्निंग | सोती रही सेबी-'अडानी' बुच!

अडानी की जेबी बनकर सेबी सरगना बनी माधबी बुच के खिलाफ हिंडनबर्ग रिसर्च ताजे खुलासे के बाद सुप्रीम कोर्ट में इसी हफ्ते एक नई याचिका डाली गई है। सुप्रीम कोर्ट से ये मांग की गई है कि उसने सेबी को जांच करने में कितना भी टाइम लगाने की छूट दे रखी है, उसे तुरंत वापस ले और अडानी पर लगे आरोपों की जांच पूरी करने के लिए एक टाइट टाइम लाइन दे। 3 जनवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने सेबी को तीन महीने की मोहलत दी थी। यह मोहलत कब की बीत चुकी है और इंडियन इन्वेस्टर्स की जिल्लत शुरू हो चुकी है। याचिका दायर करने वाले एडवोकेट विशाल तिवारी ने याचिका में कहा है कि हिंडनबर्ग की नई रिपोर्ट ने लोगों और निवेशकों के मन में शक पैदा कर दिया है। अब सेबी के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह पेंडिंग इन्वेस्टिगेशन खत्म करे और रिपोर्ट दे। यह जनहित और उन निवेशकों के हित में है, जिन्होंने 2023 में अडानी ग्रुप में अपने करोड़ों रुपये गवां दिए हैं। सेबी की रिपोर्ट जानने का उनको अधिकार है।

बता दें कि 2023 में हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद अडानी में पैसा लगाने वालों ने लाखों करोड़ रुपये गवां दिए थे। वहीं इस बार सेबी पर रिपोर्ट आने के बाद फिर से अडानी के शेयरों में 17 पर्सेंट से अधिक की गिरावट चल रही है और आम लोगों के 53 हजार करोड़ से भी अधिक डूब चुके हैं। वैसे जनवरी में अपने फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने माना था कि रिकॉर्ड में इस बात के पुख्ता सबूत हों कि सेबी की जांच पहली नजर में सेवापानी जैसी दिखे तो वह जांच को उससे वापस ले सकता है। संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को ये अधिकार है। यह फैसला सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की तीन जजों की बेंच ने 3 जनवरी 2024 को सुनाया था। तब सुप्रीमकोर्ट ने कहा था कि अगर सेबी की रिपोर्ट में फेवर दिखता है तो वह जांच एसआईटी को दे देगा। हालांकि अपने फाइनल फैसले में उसने सेबी को अडानी मामले की जांच से हटाने से इनकार कर दिया था। संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार का प्रयोग सुप्रीम कोर्ट ने तभी करने को कहा था कि जब ये साबित हो जाए कि सेबी की रिपोर्ट में सेवापानी है और ये आई तो खुद जस्टिस ही फेल हो जाएगा। दरअसल, अदालत ने कहा था कि सेबी की जांच लोगों में भरोसा बढ़ा रही है। इतनी बड़ी जांच करने के लिए अदालत ने सेबी की पीठ भी थपथपाई थी। तब सेबी ने 24 में से 22 जांच पूरी कर ली थी। बाकी की दो जांचों में वह "बाहरी एजेंसियों/संस्थाओं" से इनपुट का इंतजार कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट में जांच की स्थिति पर यह अंतिम रिपोर्ट थी। इसके बाद से सेबी ने क्या किया, सेबी की मुखिया अडानी बुच ने इस मसले पर क्या किया, किसी को कुछ नहीं पता, अलबत्ता पिछले तीन चार दिनों में लोगों के 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक डूब चुके हैं। वहीं नई याचिका डालने वाले एडवोकेट विशाल तिवारी ने अपनी याचिका में मोदी और सेबी दोनों से हालात पर रिपोर्ट मांगी है। उन्होंने पूछा है कि क्या मोदी और सेबी ने कोर्ट की स्पेशलिस्ट कमिटी की उन सिफारिशों पर कार्रवाई की है, जो कमेटी ने सेबी ढांचे को मजबूत करने के लिए करी थीं? उन्होंने जुलाई में आए इलेक्शन रिजल्ट के बाद शेयर बाजार में आई गिरावट और निवेशकों को हुए घाटे पर भी मोदी और सेबी से डीटेल्ड रिपोर्ट मांगी है। यह याचिका एडवोकेट तिवारी ने फिर से 13 अगस्त को लगाई है, अखबारों में यह 13 अगस्त को खबर छपी थी। लेकिन इससे भी बड़ी खबर ये कि यही याचिका उन्होंने 5 अगस्त को भी लगाई थी। हिंदुस्तान टाइम्स के आर्थिक अखबार मिंट में खबर है कि तब सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने तिवारी के एप्लीकेशन को रजिस्टर्ड ही नहीं किया था, उल्टे मुंह मना कर दिया था और न सिर्फ मना कर दिया था, बल्कि इसे "पूरी तरह से गलत" बताया था। सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने कहा था कि इसमें कोई उचित कारण प्रस्तुत नहीं किया गया है। रजिस्ट्रार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने सेबी की जांच के लिए कोई टाइट टाइम लाइन नहीं बनाई थी, जैसा कि एडवोकेट तिवारी दावा कर रहे हैं। रजिस्ट्रार ने यह भी बताया कि कोर्ट ने स्पेशलिस्ट कमिटी की सिफारिशों या चुनाव के बाद निवेशकों को हुए नुकसान के बारे में रिपोर्ट देने के लिए कोई खास डायरेक्शन जारी नहीं किए हैं। रजिस्ट्रार साहब के इतने दावों के बावजूद निवेशकों को चुनाव और हिंडनबर्ग का ताजा खुलासा मिलाकर एक लाख करोड़ से ऊपर का नुकसान हो चुका है। कुल मिलाकर अब बात इस पॉइंट पर आकर टिक गई है कि क्या अडानी की जेबी सेबी मुखिया पक्षपात कर रही हैं या नहीं? और क्या अपने अडानी रिलेशन के बारे में उन्होंने सेबी या फिर सुप्रीम कोर्ट की बनाई स्पेशलिस्ट कमेटी बताया था या नहीं बताया था? यह स्पेशलिस्ट कमेटी सुप्रीम कोर्ट ने मई या जून 2023 में बनाई थी। इस स्पेशलिस्ट कमिटी की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अभय मनोहर सप्रे ने की थी। बाकियों में बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व जज जेपी देवधर, सीनियर एडवोके सोमशेखर सुंदरेसन, बैंकर ओपी भट्ट, केवी कामथ के साथ साथ नंदन नीलेकणी भी शामिल थे। सेबी को इस कमिटी को बताना था कि वह अडानी ग्रुप के खिलाफ आरोपों की जांच किस तरह कर रही है।
इस बारे में इकोनॉमिक टाइम्स में एक खबर मिलती है जो सूत्रों के हवाले से बताती है कि बुच ने दिल्ली में पैनल से मुलाकात की और इस कमिटी को उनकी ब्रीफिंग सबसे पहली और इम्पॉर्टेंट ब्रीफिंग थी और इसके बाद उन्होंने कहा कि अब जब तक जरूरी न हो, वो कमेटी के सामने हाजिर नहीं होंगी। वकील विशाल तिवारी का कहना है कि यह साफ है कि बुच या सेबी ने स्पेशलिस्ट कमिटी के साने ये खुलासे नहीं किए हैं क्योंकि उनकी रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस बात का संकेत देता हो। तिवारी को लगता है कि कमिटी के सामने फैक्ट रखे ही नहीं गए।" अब जरा इस कमिटी का भी हाल जान लीजिए। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिकाकर्ता जो कि लॉ स्टूडेंट हैं अनामिका जायसवाल, उन्होंने हितों के टकराव के आधार पर स्पेशलिस्ट कमिटी के दो मेंबरानों के खिलाफ अदालत में आपत्ति जताई थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि भट्ट और सुंदरेसन के अडानी ग्रुप के साथ प्रफेशनल रिलेशंस हैं। हालांकि लोया से लेकर अडानी तक, हर केस की तरह इस केस को भी सुप्रीम कोर्ट ने निराधार बताते हुए खारिज कर दिया था। जायसवाल की वकील नेहा राठी ने स्क्रॉल डॉट कॉम को बताया कि स्पेशलिस्ट पैनल ने अपनी रिपोर्ट में सेबी के ढेरों फेल्योर का खुलासा किया है और यह भी इशारा किया है कि अडानी ने शेयर मार्केट में हेरफेर किया है। कमिटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि सेबी अप्रैल 2016 से 13 विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की जांच कर रहा था, जो अडानी ग्रुप की कंपनियों में में पैसा लगा रहे थे और फिर भी फायदा उठाने वालों की पहचान नहीं कर पाया। सवाल उठता है कि सेबी पहचान नहीं कर पाया, या उसने पहचानने की कोशिश ही नहीं की? हिंडनबर्ग रिपोर्ट और संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग परियोजना साफ साफ इन निवेशकों और अडानी ग्रुप के बीच का रिलेशंस खोलते हैं जो कम से कम कानून का उल्लंघन तो बताता है। स्पेशलिस्ट कमिटी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि डीआरआई ने जनवरी 2014 में सेबी को अडानी ग्रुप के घोटाले के बारे में बताया था, जिसमें बिजली के इक्यूपमेंट्स के एक्सपोर्टे का दाम अधिक बताया गया था। यह कुल 6,278 करोड़ रुपये की हेराफेरी थी, इसके सबूत सीडी में दिए गए थे, फिर भी सेबी अपने अंग विशेष में दही जमाए रही। स्पेशलिस्ट कमिटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जनवरी 2023 में हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद भी, सेबी ने अडानी एंटरप्राइजेज के आईपीओ को तब जारी होने दिया, जब तक अडानी ने उनको खुद ही वापस नहीं ले लिया। रिपोर्ट में एक और बहुत ही बड़ी बात कही गई है। अप्रैल 2018 और दिसंबर 2022 के बीच अडानी ग्रुप को लेकर 849 ट्रेडिंग अलर्ट जारी हुए। इसके बावजूद सेबी सोई रही। बड़ी बात ये कि इन अलर्ट में से 603 प्राइस वॉल्यूम मूवमेंट के थे और 246 संदिग्ध अंदरूनी व्यापार के थे। एक दो नहीं, बल्कि साढ़े आठ सौ वॉर्निंग जारी होने के बावजूद सेबी ने तब तक कोई जांच शुरू नहीं की, जब तक कि भारतीय लोगों के एक डेढ़ लाख करोड़ स्वाहा नहीं हो गए। इतना ही नहीं, सेबी ने अडानी के लिए अपने ही नियम बदल डाले। खास तौर से विदेशी निवेशकों और सेबी के खुद के लिस्ट की गई लाइबिलिटीज और उसे पब्लिश करने के नियम तब बदल डाले। इन सब चीजों ने अडानी का रास्ता और आसान बनाया, ऐसा सुप्रीम कोर्ट की स्पेशलिस्ट कमिटी की रिपोर्ट कहती है। इतनी थू-थकार होने के बावजूद सेबी ने आज की तारीख तक अडानी पर अपनी जांच पूरी नहीं की है, जबकि स्पेशलिस्ट कमिटी ने मई 2023 में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। मजे की बात ये कि सुप्रीम कोर्ट भी आराम से उसे बार बार तारीख देता जा रहा है, देखिए कैसे। 2 मार्च , 2023 को अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने सेबी को दो महीने के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश दिया था। अप्रैल में, सेबी ने अडानी की लिस्टेड, अनलिस्टेड और बरमूडा ट्रायंगल का का हवाला देते हुए छह महीने और मांगे। मई में, सुप्रीम कोर्ट ने इसे 14 अगस्त, 2023 तक का वक्त दे दिया। फिर सेबी ने सुप्रीम कोर्ट से 15 दिन और मांगे। इस साल 3 जनवरी को बिना सेबी के फाइनल रिपोर्ट दिए ही सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने उसी तरह से अडानी घोटाले पर आदेश जारी कर दिया, जैसे कि लोया केस में किया था। लोया केस में भी यही साहब थे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़। जनवरी वाले फैसले में फिर से सेबी को तीन महीने की मोहलत दे दी गई। फिर याचिकाकर्ता बार बार सुप्रीम कोर्ट से मांग करते रहे कि जांच का क्या हुआ, और सुप्रीम कोर्ट याचिकाएं खारिज करता रहा। इस पूरे वक्फे में निवेशकों के डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपये स्वाहा हो गए।

Sunday, January 29, 2023

दस देवता और मटन पुराण AS05

 आठ बजे अन्नप्राशन की पूजा शुरू होनी थी, मगर बिद्यापुर से आते-आते खुद पंडित दिजेन भट्ट लेट हो गए। बालीकोरिया से बिद्यापुर तीन चार किलोमीटर का ही फासला है, मगर दिजेन बाबू को अपने जुगाड़ी के साथ बालिकोरिया पहुंचने में ही साढ़े आठ या शायद नौ से ऊपर हो गए। वो आए, फिर केले का तना छीलकर उसे परत दर परत काटकर कामचलाऊ बरतन टाइप के बनाए गए। प्रसाद तैयार किया गया। 

यहां पूजा कोई सी भी हो, प्रसाद में रात के भिगोए चने, मूंग ही मिलते हैं, गन्ने का मौसम हुआ तो कटा हुआ गन्ना भी। इधर दिजेन बाबू चौकी पूरने में लगे थे। जैसे अपनी ओर सत्यनारायण की पूजा में चार कोनों पर केले का छोटा पौधा गाड़कर बीच में एक चौकी बनाई जाती है, इधर भी यही किया गया। मगर अपने यहां भगवान की फोटो या मूर्ति रखी जाती है, असम में इस चौकी पर भगवदगीता रखी जाती है। भगवतगीता असमिया में थी। डॉ सदानंद और उनका परिवार स्वयं को संकरदेव का वंशज कहता है। 

सिद्धार्थ
देवताओं के सामने बैठे US में रहने वाले सिद्धार्थ

सिद्धार्थ ने बताया कि उनके परिवार में मूर्तिपूजा हमेशा से चली आ रही है। बल्कि लोकल दुर्गापूजा में दुर्गा की प्रतिमा इन्हीं के परिवार से जाती है। संकरदेव कायस्थ थे, इसलिए यह लोग भी कायस्थ हैं। संकरदेव की सबसे बड़ी जगह नगांव है, जो अपर असम और लोअर असम के ऐन बीच में है। वहीं मेरी साली यानी मेरी ससुराल पक्ष के लोग नामधारी हैं। 

तकरीबन दो दशक पहले तक नामधारियों में मूर्ति पूजा बिलकुल नहीं होती थी। बल्कि संकरदेव और उनके बाद माधवदेव ने यह पंथ ही इसलिए शुरू किया कि इस तरह की चीजों से हिंदू धर्म को निजात मिले और इसे वे लोग भी मान पाएं, जो हिंदू नहीं थे। अभी भी अधिकतर नामघरों में आपको कोई मूर्ति देखने को नहीं मिलेगी। बस गीता, एक जलता दिया और अपनी ओर बजने वाले नगाड़े का एक सेट।  हां, शंकर भगवान की फोटो जरूर अधिकतर नामघरों में देखने को मिलती है। 

थाईलैंड या म्यांमार की ओर से असम में जो लोग शिफ्ट हुए, वे हिंदू नहीं थे, मगर अब लगभग वे सभी खुद को हिंदू ही कहते हैं। संकरदेव और उनके शिष्य रहे माधवदेव के समय और दोनों के काफी बाद तक यह लोग नामधारी हुए, नाम ग्रहण किया, मगर पिछले डेढ़-दो दशकों में बहुत सारे नामधारियों ने मूर्ति भी ग्रहण कर ली है। 

दिजेन बाबू के जुगाड़ी ने केले के तने काटकर उन्हें परत दर परत अलग किया और उनके कुल आठ सेट बनाए। यहां पुजारी के हेल्पर को जुगाड़ी कहते हैं। इन आठ सेटों से मैंने अंदाजा लगाया कि यहां आठ देवता या तो बैठेंगे या फिर आठ देवताओं को भोग लगेगा। मगर दिशाएं तो दस हैं, तो देवता भी दस होने चाहिए थे! मैंने जुगाड़ी बाबू से अपनी जिज्ञासा बताई। वह बोले, आपने सही पकड़ा है। देवता दस ही हैं, मगर एक परत पर एक साथ हमने तीन देवता बैठाए हैं, और बाकी सब पर एक-एक विराजमान हैं। 

पूजा और प्रसाद की इतनी मालूमात मेरे लिए काफी थी, इससे ज्यादा मुझे अगवान-भगवान में कोई रुचि भी नहीं। बल्कि उससे अधिक रुचिकर मुझे हर हाल में भोजन ही लगता है। दुनिया में ऐसे बहुतेरे हैं जो पकाने से लेकर खाने तक अपना गम गलत करने में लगे रहते हैं। अब मैं घर की बाड़ी की ओर बढ़ा। बाड़ी यानी घर का पीछे का हिस्सा। यहीं तालाब किनारे गूले खुदे थे, कड़ाह खदबदा रहे थे। 

खाना पकाने वाले थे बापधन बाबू, जो कॉलेज रोड पर अब अपनी दुकान चलाते हैं। बापधन बाबू ने पहले नलबाड़ी कॉलेज की कैंटीन से अपना काम शुरू किया था। इनके हाथ का खाना कॉलेज के शिक्षकों को अच्छा लगा तो अब लगभग सभी शिक्षक अपने यहां होने वाले समारोहों में खाना इन्हीं से तैयार कराते हैं। जैसा कि पहले बताया, बापधन बाबू चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरी घंटों (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनाने में लगे थे। आमतौर पर बैंगन भाजा गोल होता है, एक टिक्की की तरह। मगर यहां पतले-पतले बैंगनों को बीस से कई हिस्सों में काट लिया गया था, ऐसे कि जैसे कोई फूल। फिर उसे बेसन में डुबोकर तला जा रहा था। 

चूंकि मटन मुझे पसंद है, इसलिए मैंने बापधन बाबू से पूछा कि असमी मटन कैसे बना रहे हैं? मुझे उनके गूले के आसपास रेडीमेड मसाले दिख रहे थे। रेडीमेड मसाले तो अब मेरी ओर यानी अवध में भी खूब शुरू हो चुके हैं, वरना टीन ऐज तक मैं ऐसे भी ब्रह्मभोजों की व्यवस्था में शामिल रहा हूं, जिनमें पूरी तरह से घर में बने मसाले ही यूज किए जाते हैं। अब अगर किसी को पूरी और कद्दू की सब्जी बनानी हो, तो वैसे भी मसालों की बहुत जरूरत नहीं पड़ती। 

अवध का आदमी ब्रह्मभोजों में यही जीमता रहा है, मगर इन दिनों वह भी रेडीमेड मसाला होने की कगार पर है। बापधन बाबू ने बताया कि हमारे यहां मटन में पपीता जरूर पड़ता है। एक तो यह मटन जल्दी गलाता है, दूसरे पचाने में भी मदद करता है। हम असमी लोग खाने पर जितना ध्यान देते हैं, उतना ही ध्यान पचाने पर देते हैं। केला और पपीता हमारी राष्ट्रीय दवाई है। मैं बोला, आप तो यह कम से एक पूरा बकरा पका रहे हैं, मगर किलो भर के हिसाब से मुझे बताइए, कैसे कौन सी चीज? 

वह बोले, तेल डाला, आधी चम्मच चीनी डाली, फिर प्याज डालकर लाल होने तक भूनी। फिर अदरक-लहसुन डाला और इसे इसकी महक खत्म होने तक भूना। अब नमक-हल्दी मिलाकर मटन डाला और जब तक इसका पानी सूख न जाए, भूनते रहना है। मसाले हम लोग बहुत कम यूज करते हैं। एक किलो मटन है तो बस आधा चम्मच जीरा और इतना ही धनिया पाउडर। एक चम्मच मीट मसाला, रंग के हिसाब से कश्मीरी मिर्च। यह सब एक कटोरी में पानी मिक्स करके एक गिलास अतिरिक्त पानी के साथ डाला। इसे तब तक भूनेंगे, जब तक कि मीट का रंग सही न लगने लगे। जब रंग सही लगे तो एक गिलास पानी और डालना है। 

मैंने कहा, यह तो आपका अभी का तरीका हुआ और फिर मैंने उनको अपने गांव का पारंपरिक तरीका बयान किया। अब बापधन बाबू ने जाकर असल राज खोला। बोले, सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि हम तीखा और खट्टा कैसे यूज करते हैं। तीखे में अगर काली मिर्च पड़ेगी तो हरी मिर्च नहीं पड़ेगी। हरी पड़ेगी तो भूत झोलकिया नहीं पड़ेगी। भूत झोलकिया संसार की सबसे तीखी मिर्चों में से एक है। मैंने पूछा, भूत झोलकिया किस हिसाब से आप लोग डालते हैं? उन्होंने बताया, अगर बहुत तीखा खाने वाले हैं तो किलो भर में पूरी एक मिर्च भी डाल देते हैं। 

बता दूं कि पूरी एक मिर्च डेढ़ इंच से ऊपर की नहीं होती और अपनी ढेंपी पर पौन इंच का व्यास लिए होती है। अगर कम तीखा खाने वालों की दावत है तो इस मिर्च का पांचवां हिस्सा डालते हैं। आज की दावत में बापधन बाबू ने काली मिर्च का इस्तेमाल किया था। वैसे काली मिर्च हर मौके पर एक सेफ साइड मानी जाती है। ज्यादा हो भी जाए, तो भी जीभ या तलुओं को उतनी नहीं लगती, जितनी कि हरी या भूत झोलकिया। 

वहीं खट्टे में अगर आम डाला तो इमली, अमरख या फिर आंवला नहीं पड़ेगा। आज के खट्टे में उन्होंने अमरख का इस्तेमाल किया था। अमरख से असमिया लोग बहुत पहले से पीलिया जैसी बीमारी भगाते रहे हैं। बहरहाल, पारंपरिक असमी मटन में नमक हल्दी मिले मटन का पानी सुखाने के बाद पपीता डालना है। पांच दस मिनट बाद काली मिर्च डाली और ऐसे कौरा कि मटन के हर ओर काली मिर्च लग जाए। एक गिलास पानी डाला। असमी मटन में पानी बहुत कम डालते हैं। मटन को इतना गलाते हैं कि वह खुद ही अपनी ग्रेवी तैयार कर ले। 

असमिया मटन पुराण से निपटने के बाद मैं घर के सामने पूजा स्थल पर पहुंचा। पूजा शुरू हो चुकी थी और सिद्धार्थ अपनी चौकी पर बैठ चुका था। पता चला कि अभी यह पूजा कम से कम दो-तीन बजे तक चलेगी। भास्कर को अपने भांजे को पहला अन्न चखाना था, सो वह भी उपवास पर था। उपवास के चलते वह मेरा तांबूल चबाने में साथ भी नहीं दे पा रहा था, और मैं लगातार बोर ही हो रहा था। वह तो शुक्र रहा कि डॉ सदानंद लगातार मुझे अपने दोस्तों से मिलवाते रहे, वरना इस तरह से तो मेरा वहां वक्त काटना मुश्किल था। 

मैं अपने घर में होने वाली पूजाओं से भी दूर रहता हूं, और इसी तरह से बोर होता रहता हूं। एक बजे के लगभग खाना शुरू हो गया। पहली पांत में लगभग पचास-साठ लोगों ने खाया। भूख तो मुझे भी लगी थी लेकिन घर का आदमी होने के चलते पहली पांत में खा लेना बेजा बात समझी जाती। मगर दूसरी पांत तक न मुझसे इंतजार हुआ और न मेरी सास से बर्दाश्त हुआ। हम दोनों दूसरी पांत में बैठ गए। बापधन बाबू ने वाकई खाना बेहद लज्जतदार बनाया था। यह पहली बार था कि घर हो या होटल, मैंने बहुत खाया। पपीते का हलवा तो जबरदस्त था और बैंगन भाजा के तो कहने ही क्या। मेरी सास ने सबसे ज्यादा तारीफ असमिया स्टाइल वाले मटन की बांधी। 

खाने के बाद हमने तांबूल खाया। यह तांबूल सिद्धार्थ की बाड़ी का था और मुंह में रखते ही ऐसे घुल रहा था कि बनारसी पान क्या घुलेगा। आमतौर पर पेड़ से तांबूल तोड़ने के बाद इसे महीने दो महीने जमीन में गाड़कर सड़ाया जाता है, फिर इसे छीलकर इसमें से सुपारी निकाली जाती है। मगर यह ताजा टूटा तांबूल था। पेड़ से ताजे टूटे तांबूल का स्वाद और मजा दो महीने तक सड़े तांबूल और सूखी सुपारी से कहीं ज्यादा अच्छा होता है। मैंने एक के बाद एक कई तांबूल दबा लिए। असम पहुंचने के कई दिनों बाद भरपेट खाना खाया था तो नींद भी लगी थी। एक कमरे में जाकर मैं सो गया। शाम को हम सब वापस गुवाहाटी निकल लिए। सब इतने थके थे कि रास्ते में कहीं रुके भी नहीं। 


नलबाड़ी किस्सा समाप्त, अब मेघालय, फिर काजीरंगा शुरू होगा।

अहोमों की शादी, नामधारियों का उत्सव AS04

 
जैसे अपने यहां, मने ईस्ट यूपी में ब्रह्मभोज की शुरुआत गूला खोदने से होती है, ऐन वैसे ही यहां भी खाना बनाने वास्ते आग दहकाने के लिए गूले खोदे गए, फिर आग जलाने से पहले इनकी पूजा हुई। अग्नि पूजा कहीं न कहीं हम सारे भारतीयों को एक सी तपिश देती है। यूपी में आमतौर पर मेरी ओर, यानी फैजाबाद-सुल्तानपुर की ओर दो गूले खोदे जाते हैं, या फिर महज एक। पूरी-सब्जी एक साथ बनेगी, या फिर एक ही चूल्हे यानी गूले पर एक के बाद एक बनेगी। दावतों के चूल्हे को गूला शायद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह जमीन में अंदर गोल आकार में खोदा जाता है। वैसे भी गूला शब्द गोला के ज्यादा पास है। 

यहां भी इन्हें गूला ही कहते हैं। मगर यहां एक साथ तीन गूले खोदे गए। एक पर लगातार पानी गरम होता रहा, और बाकी दोनों पर पकवान पकते रहे। जैसे अब अपनी ओर गूलों के साथ-साथ एकाध गैस के चूल्हे भी रहने लगे हैं, यहां भी एक चूल्हा गैस का था। मने चार चूल्हे जले, जिनमें चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरीघंटो (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्सवेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनी। इन सबको जीमने के बाद आखीर में भुनी हुई सौंफ के साथ घर के पेड़ों से तोड़े तांबूल और घर में ही उगाए गए पान के पत्ते। 

अपनी ओर जिस तरह से गांव भर की महिलाएं पूरी बेलने और मर्द पिसान मर्दने आते हैं, मैं देखना चाहता था कि गांव के बाकी लोग इस भोज में क्या प्रबंध करते हैं। बदकिस्मती से गांव से आया पहला प्रबंधक वही दिखा, जिसके बारे में रात ही ताकीद कर दी गई थी कि इससे दूर रहो। यानी नबाज्योति। मुझे याद आया, मेरी ओर भी वही लोग सबसे कुशलता से ऐसी दावतों का प्रबंधन संभालते हैं, जिनके बारे में दावत देने वाले बहुत अच्छी राय नहीं रखते। फिर मामला अगर पटीदारों का हो, तो और भी चुभता हुआ होता है। 

मगर मुझे यह बात बेहद अच्छी लगती है। यह हमारे समाज के उन लोगों का अहिंसक प्रदर्शन है, जो कहीं न कहीं यह चाहते और मानते हैं कि सब एक ही घर या कबीले के हैं और भले उन्होंने कुछ अच्छा न किया हो, मगर आज तो अच्छा करके दिखा रहे हैं। जैसे ही मैं गूलों की ओर से मुख्य पूजास्थल पर आया, नबाज्योति बाबू मुझे ही ताड़ते मिले। वह तो अच्छा हुआ कि मुझे तुरंत मेरी साली के ससुर (मेरी साली ने ताकीद की है कि मैं उन्हें अपने रिश्ते का ससुर लिखने की जगह उसी का ससुर लिखूं) यानी डॉ सदानंद का साथ मिल गया, वरना फिर से मुझे कल रात वाली बातें सुनने को मिलतीं- दूर रहो उससे। 

डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे शहर के लोगों से मिलवाना शुरू किया। बहुत लोग थे, बीस से अधिक। मुझे सबके नाम तो नहीं याद, मगर सिद्धार्थ के मामा प्रभाष दत्ता और बुआ इला दत्ता जरूर याद हैं। जैसे ही बुआजी ने यह सुना कि मैं जबसे असम आया हूं, तांबूल पर तांबूल चबाए जा रहा हूं, झट उन्होंने दावत दे डाली कि हमारे पेड़ों के तांबूल खाकर देखो, ऐसे तांबूल पूरे असम में कहीं नहीं मिलेंगे। बुआजी, मेरी शिकायत नोट करिए, बल्कि उसी पोटली में बांधिए, जिसमें कि मुझे शक है कि जरूर आपके घर का तांबूल बंधा था... 

बुआ से मिल ही रहा था कि डॉ सदानंद मुझे गेट की ओर खींच ले गए। वहां उनके चार दोस्त आए थे। उन्होंने उन सबसे मेरा परिचय कराया कि मैं उनकी बहू की बड़ी वाली बहन से ब्याहा हूं और इससे भी बड़ा मेरा परिचय यह है कि मैं अयोध्या से आया हूं, और मेरा घर अयोध्या में बन रहे नए राम जन्म भूमि मंदिर के पांच किलोमीटर की रेंज में है। 

आपस में परिचय चल ही रहा था कि मेरे सलिया ससुर बोले, मोदीजी ने तो मंदिर बनवा दिया! मैं भी तपाक से बोला, मोदी जी ने नहीं बनवाया। यह तो आपके असमिया भाई गोगोई ने बनवाया। उसी ने तो सुप्रीम फैसला दिया था। वह फैसला न देता तो क्या मोदी और क्या कोई दूसरी पार्टी मंदिर न बनवा पाती। इसी बीच उनके एक दोस्त ने कहा, मगर गोगोई साहब भी तो कई दिक्कतों में फंसे थे? 

मैंने कहा, हां, फंसे तो थे, मगर यह सब राजकाज का मामला है। आपने चाणक्यनीति पढ़ी है? उसमें यह सारे टंट-घंट दिए हुए हैं। वैसे एक तरह से डॉ साहब का कहना सही है ही कि मोदी जी ने मंदिर बनवा दिया। मगर कायदे कानून के हिसाब से मेरा बयान यही होगा कि गोगोई जी ने मंदिर बनवा दिया। मेरा यह कहना था कि मेरे सलिया ससुर के चार के चारों दोस्तों ने, जो मेरे से उम्र में और नहीं तो कम से कम बीस साल बड़े होंगे, मेरी पीठ ठोंकी, और बोले, यह सही कह रहा है। 

इसके बाद तो हाजरीन, मैं कहूं तो क्या ही कहूं। मेरे सलिया ससुर यानी डॉ सदानंद ने वहां आए ढेरों मेहमानों को खोज-खोज कर मुझसे मिलवाया। मैं थोड़ा इंट्रोवर्ड हूं तो कुछेक मौकों पर छुप भी जाता कि अभी डॉक्टर साहब फिर किसी से मुलाकात कराने लगेंगे। कुछ ही देर में तीन तल्ले मकान के हरेक कमरे में यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर साहब को मैं बहुत पसंद आया हूं और वो ब्रह्मभोज में आने वाले लगभग सभी लोगों से मुझे ही मिलवा रहे हैं। 

चूंकि मैं भी वहीं किसी तल्ले में था तो अलट-पलटकर यह खबर मेरे भी कानों में गूंजी। रश्क हुआ। कम से कम एक अनजान असमिया तो मुरीद हुआ! भले गोगोई साहब के नाम पर हुआ, मगर हुआ तो सही। जो लोग मुझे ठीक से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जुडिशरी की हिस्ट्री में मैंने बहुत कायदे से गोगोई साहब की क्लास लगाई है। मेरी चलती तो मैं उनको जेल कराकर ही मानता। मगर यह बात मैं वहां छुपा गया। कहीं कहीं खुद को ठीक से जानने न देना भी बहुत जरूरी होता है। रिश्तों में तो यह बात और भी कड़ाई से लागू होती है, खासकर इन दिनों के दिनों में। 

इस ओर पंडित जी अपना आसन लगा चुके थे। हमें बताया गया था कि सात-आठ बजे से पूजा शुरू हो जाएगी, मगर अब तो दस बजे को थे। मैं पूजा की जगह पर पहुंचा। मेरे सलिया ससुर नामधारी हैं, खुद मेरी भी ससुराल नामधारी है। बोरगोहनों की पारंपरिक शादी नामघर में ही होती है। बेहद सादा शादी समारोह। जिस तरह से अपने यहां हवन होने के पहले से लेकर हवन होने के बाद तक वर-वधु को धुंआ होना पड़ता है, ऐसा कोई चक्कर नामघरों में नहीं है। बोरगोहेन अहोम हैं और इनकी शादी को चक-लॉन्ग कहा जाता है। 

इसमें 101 दिए जलाए जाएंगे। फिर पुरखों को याद किया जाएगा, जिसके बाद पुरानी वाली थाई में दूल्हा-दुल्हन कुछ मंत्र बोलेंगे। अगर किसी की औकात सौ दियों की ना हो, तो वह एक दिया जलाकर भी इन मंत्रों के साथ वह शादी कर सकता है, जिसके बारे में मुझे नहीं पता कि कानूनी मान्यता है या नहीं, मगर पारंपरिक और सामाजिक मान्यता पूरी है। बहरहाल, इतने से ही इनकी शादी पूरी हो जाती है, जिसके बाद दूल्हा-दुल्हन सहित मेहमान रोभा में जाते हैं। रोभा इनकी शादी में सजे पंडाल को कहते हैं। गुवाहाटी के जिस पहले होटल में मैंने असमिया थाली खाई थी, उसका नाम भी राभा ही था। मगर राभा यहां की कम्युनिटी है और रोभा मतलब पंडाल।

भास्कर ने भी इन्हीं दियों और मंत्रों के साथ शादी की थी और उसकी जिद यह थी कि यह शादी बिहू के दिन ही हो। बिहू के दिन में असल में असमिये पूरी तरह से पगला जाते हैं। असल में इस पागलपन की जड़ प्रेम और परंपरा का मिलाजुला वह वृक्ष है, जिसके वाकई पूरे राज्य को एक कर रखा है। जैसे अपनी ओर किसी और जाति या फिर गोत्र में शादी करने पर कत्ल हो जाते हैं, यहां ऐसा बिलकुल नहीं होता। 

यहां तो बिहू होता है और आप जिस किसी से भी प्रेम करते हैं, बिहू के वक्त उससे कैसे भी करके शादी कर सकते हैं। पूरे समाज में इतनी हिम्मत नहीं कि इस वक्त हुई शादी पर एक भी सवाल उठा सके। मसलन, बोरगोहनों में आपस में शादी नहीं होती, मगर जाखलोबंधा में मेरी फुफेरी सास ने यह परंपरा तोड़ी और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया। सब खुशी-खुशी दोनों शादी में शामिल हुए। 

अहोम राजाओं ने चाहे जो किया हो, या चाहे जो ना किया हो, असम को बिहू जैसे प्रेम करने के मौके देकर इसे वाकई दुनिया से एकदम अलहदा और अनोखा राज्य तो बना ही दिया है। अपने यूपी या बिहार में प्रेम करने के क्या ऐसा कोई भी उत्सव हैं? उत्तराखंड में? हरियाणाा में? दिल्ली में? राजस्थान में? कहीं हो ऐसा उत्सव तो कोई बताए? 

... जारी