Wednesday, September 14, 2011

उंगली से उबकाई

मंहगी उबकाई से आगे..
मेरे कई सारे दोस्त ऐसे हैं जो शराब के बेहद शौकीन हैं। कई बार जब उन्हें शराब का नशा ज्यादा हो जाता है तो वह मुंह में उंगली डालते हैं और गले की नली के पास जीभ को कुरेदते हैं। इससे उन्हें उल्टियां होती है और पेट में जो एस्ट्रा शराब होती है, वो निकल जाती है। इससे वो कुछ हलका महसूस करते हैं लेकिन फिर से पीकर भारी हो जाते हैं। जो उस वक्त नहीं पीते, लेकिन ज्यादा पीते हैं, वह उंगली वाली प्रक्रिया सुबह करते हैं। रात की बची शराब सुबह पेट से निकालते हैं। सीधे मायनों में उंगली से उबकाई या उल्टी करने का यही मतलब निकाला जाता है। यह उबकाई या उल्टी करने की प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। मैने अपने डॉटर दोस्तों से पूछा तो खुद उन्होंने बताया कि इसमें कोई खराबी नहीं है और यह खतरनाक भी नहीं है।
लेकिन
कुछ और है जो खतरनाक है और जो लोग उबकाई को लेकर डॉटरों के चक्कर लगाते हैं, उन्हें शायद याद भी होगा कि डॉटर या बताते हैं। देसी भाषा में कहें तो डॉटर की सलाह यही होती है कि उंगली करने या होने से बचें। यह अप्रत्यक्ष उंगली है। खतरनाक है और कभी कभी जानलेवा भी। इसी से पेट में एसिड बनता है और ज्यादा दिनों तक होती रहे तो अल्सर होता है, लीवर फेल होता है और गुर्दे सहित दिल भी खराब हो जाता है। दरअसल उदारीकरण की देन यह उंगली सिर्फ एंटीएसिड या बीमारी अगर खराब हो गई तो उसकी दवाइयों तक ही सीमित हो चुकी है। इस पर कभी न तो कभी कोई बहस हुई और अगर हुई भी तो सुनने में नहीं आई।
कहने
को तो उदारीकरण शब्द काफी उदार और मनभावन लगता है। सैकड़ों सालों से तरह तरह की समस्याओं से घिरे हम भारतीय हमेशा उदार शब्द को अच्छा मानते रहे हैं और इसकी प्रेरणा लेते और देते रहे हैं। ये शब्द कितना खतरनाक है इसका हमें अनुमान तक नहीं है। पिछली बार मैनें बताया था कि भारत में एंटीएसिड का कारोबार दवा के कुल कारोबार का बीस फीसदी यानि कि बारह हजार करोड़ रुपये सालाना का है। उदारीकरण के बाद न सिर्फ दवा व्यापार बढ़ा, बल्कि कई और चीजों में बढ़ोत्तरी हुई। मसलन विदेशी कंपनियां। यह विदेशी कंपनियां अपने साथ जो कार्य संस्कृति लाईं, वह विदेशी किसी भी मायने में नहीं थी। यह कार्य संस्कृति कुछ इस तरह की थी कि अगर किसी को दस हजार रुपये महीने दिए जा रहे हैं तो वह महीने में गिरी से गिरी हालत में दस लाख रुपये का काम जरूर करे। उसके काम से दस लाख या इसके आस पास का फायदा जरूर हो। बस यहीं से उदारीकरण की अति उदार उंगली शुरू हो गई। ये उंगली इतनी उदार थी कि हमें पता ही नहीं चला कि कब इसने चुपके से हमें कुरेदा और हम जबरदस्त एसिडिटी का शिकार हो गए। जो नाश्ता हम सुबह साढ़े सात बजे से आठ बजे तक कर लेते थे, वह दोपहर ११-१२ बजे तक हो गया। दोपहर का खाना शाम के चार बजे हो गया और रात का खाना देर रात बारह-एक बजे हो गया। मुझे याद है कि सन ९१ में जब मैं देहरादून में पढ़ता था, डिनर के लिए आए लोग बड़ी हद साढ़े नौ या दस बजे तक डिनर लेकर, डेजर्ट चखकर वापस हो लेते थे। अब देर रात लगभग एक बजे जब दफ्तर से लौटता हूं तो लोग अपने यार दोस्तों के यहां से डिनर करके लौट रहे होते हैं। उन्हें दस बजे के बाद ही छुट्‌टी मिलती है। लबोलुआब यह है कि उदारीकरण के बाद हमारे काम करने के घंटे भी हद से ज्यादा उदार हो गए। हम देर रात तक काम करने लगे। गजब का उदार है ये उदारीकरण।
व्यापार
में असल फायदा यही है कि लोग वस्तुओं को खरीदें और लगातार खरीदते रहें। ईमानदारी के व्यापार में ऐसा होना संभव नहीं है योंकि हर चीज आवश्यक जरूरतों से नहीं जुड़ी। ऐसे में व्यापार चलाने के लिए वस्तुओं की जरूरत पैदा करनी होती है। लाखों करोड़ के दवा के व्यापार का पिछले तकरीबन अस्सी सालों से यही फंडा बन गया है। दवा की जरूरत नहीं होती लेकिन जरूरत के मुताबिक परिस्थितियां बनाई जाती हैं। एंटीएसिड की जरूरत हमें नहीं थी। साधारण खड़िया के पाउडर यानि कि डाइजीन से हमारा काम चल जाता था। डाइजीन भी उसे ही दी जाती थी, जो बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती हो। हम लोग तरह तरह के चूरन फांककर काम चला लेते थे। पूड़ी पराठां खाने पर एसिडिटी होने पर ठंडा दूध या गुनगुना पानी पी लेते थे। कम से कम हम दवा बाजार को सिर्फ एंटीऐसिड के लिए बारह हजार करोड़ रुपये सालाना तो नहीं ही देते थे। लेकिन कथित आयातित-जो कभी आयातित नहीं रहा, वर्क कल्चर के आने पर इसकी लगतार जरूरत बन गई। उदारीकरण ने हमारे पेट को इतना उदार बना दिया कि हम जेब से उदार हो गए। ये दीगर बात है कि इस उदारता के लिए हमें बाकायदा उधार भी दिया गया।

अगली किस्त में पढ़ेंगे कि उदारता से मिले उधार में हमारे पेट के या हमारे शरीर के साथ क्या उदारता दिखाई।

Sunday, September 4, 2011

चाहिए एक दीवार

बचपन में जब अम्मा डांटतीं या मारती थीं, तो हम किसी स्टोर में खुद को बंद कर लेते थे या फिर छत पर चले जाते थे। वहां जाकर घंटो उसी बात को सोच सोच कर रोते रहते थे कि अम्मा हमसे प्यार नहीं करती हैं तभी तो मारा। और या या कहकर मारा। अम्मा ने हमें ये नहीं सिखाया कि भगवान के सामने जाकर रोने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। हालांकि अम्मा को खुद जब रोना होता था तो वह भगवान के सामने जाकर रो लेती थीं। इसके लिए वह रोजाना स्पेशल टाइम निकालती थीं जिसे पूजा कहते थे। अम्मा कम से कम पौन घंटे तो पूजा करती ही थीं। इस बीच वो भगवान से जो भी बातें करती थीं, किसी को नहीं बताती थीं। जब वो पूजा कर रही होती थीं तो कोई उनके पास या उस कमरे में नहीं जाता था। दरअसल रोना नितांत व्यक्तिगत क्रिया है। मानव स्वभाव रहा है कि अगर वह रोए तो कोई सुने ना और किसी न किसी से जरूर रोए। भले ही वो भगवान हो, आसमान हो या फिर स्टोर के बंद कमरे की दीवारें हों। रोने के लिए आखिरकार सबसे मुफीद जगह कौन सी होती होगी?
मंदिर में भीड़ रहती है तो वहां लोग रोने की जगह गाने लगते हैं। इस तरह से गाना भी एक तरह का रोना ही माना जाएगा योंकि हम अपनी भड़ास गाने के रूप में निकालते हैं। मंदिर में सामूहिक रूप से गाई जाने वाली आरती हो या फिर मस्जिद में लगाई जाने वाली अजान, चाहे गुरुद्वारा ही यों न हो, आखिर ये सब सुर में यों नजर नहीं आते हैं। रोना बेसुरा होता है जबकि गाने में सुर का समावेश बहुत जरूरी होता है। भगवान की परिकल्पना हमने एक ऐसी वस्तु के रूप में की जो कभी जवाब नहीं देता है। और जो जवाब नहीं देता है, और जिसके सामने हम रो सकते हों, वह भले ही मूर्ति के रूप में हो, अदृश्य हो या किसी किताब की शल में, रहती एक दीवार ही है। एक शून्य दीवार जिसे हम अपना अंतरंग दोस्त मानते हैं और ये भी विश्र्वास रखते हैं कि ये दोस्त हमारे अतिव्यक्तिगत बातों को किसी से कहेगा नहीं। इसलिए हर तरह से, हर तरह की बातों से उसके सामने रो सकते हैं और यदि समूह में हों तो गा सकते हैं। अजीब बात है कि रोने के लिए हमने मंदिर-मस्जिद और पता नहीं या या बना दिए, लेकिन अभी तक एक ऐसा दोस्त नहीं बना पाए, जिससे हम रो सकें। वैसे यह मानव स्वभाव भी है कि वह अनजानी चीजों पर ज्यादा विश्र्वास करता है बनस्बित जानी हुई चीजों के। हमें दिक्कत होती है तो हम तर्क नहीं करते। हमें दुख होता है तो उसके कारणों की तलाश नहीं करते। सारी चीजों के लिए एक ऐसी चीज पर निर्भर हो जाते हैं जो प्रतिक्रिया ही नहीं कर सकती।
बहरहाल, आजकल रोने की, मतलब पूजा करने की नई शैली विकसित हो रही है। पिछले दो तीन सालों से देख रहा हूं कि सामूहिक पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि ये शैली जैनियों से ली गई है जहां पीढ़ा या मूढ़ा लगाकर एक लाइन से महिलाएं या पुरुष बैठते हैं और पूजा करते हैं। ये अलग बात है कि भगवान महावीर एकांत में ही ध्यान-जिसे अब पूजा कहते हैं, किया करते थे। यही शैली गणेश, विष्णु लक्ष्मी, राम और शिव जैसे भगवानों पर भी अपनाई जा रही है। एक पीढ़े पर उक्त भगवान की तस्वीर रखी और लाइन से बैठ गए। पूजा हो रही है, तिलक लगाया जा रहा है, पंडित बता रहा है कि अ धूप बाी जलाइए तो अब अक्षत छिड़किए। दीवार का स्वरूप बदल रहा है, स्टोर रूम में लाइन लग रही है, छत पर भीड़ इकठ्‌ठा हो रही है। मजे की बात तो यह कि बेसुरे मंत्रों के बीच पूरे मनोयोग से रोया जा रहा है। इससे आत्मिक शांति मिलती है। दरअसल जी भरके रो लेने के बाद शांति या हलका महसूस करना लाजमी है। लेकिन चूंकि दीवार चाहिए, इसलिए दीवार का कोई नाम भी होना चाहिए।