उंगली से उबकाई
मंहगी उबकाई से आगे..
मेरे कई सारे दोस्त ऐसे हैं जो शराब के बेहद शौकीन हैं। कई बार जब उन्हें शराब का नशा ज्यादा हो जाता है तो वह मुंह में उंगली डालते हैं और गले की नली के पास जीभ को कुरेदते हैं। इससे उन्हें उल्टियां होती है और पेट में जो एस्ट्रा शराब होती है, वो निकल जाती है। इससे वो कुछ हलका महसूस करते हैं लेकिन फिर से पीकर भारी हो जाते हैं। जो उस वक्त नहीं पीते, लेकिन ज्यादा पीते हैं, वह उंगली वाली प्रक्रिया सुबह करते हैं। रात की बची शराब सुबह पेट से निकालते हैं। सीधे मायनों में उंगली से उबकाई या उल्टी करने का यही मतलब निकाला जाता है। यह उबकाई या उल्टी करने की प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। मैने अपने डॉटर दोस्तों से पूछा तो खुद उन्होंने बताया कि इसमें कोई खराबी नहीं है और यह खतरनाक भी नहीं है।
लेकिन कुछ और है जो खतरनाक है और जो लोग उबकाई को लेकर डॉटरों के चक्कर लगाते हैं, उन्हें शायद याद भी होगा कि डॉटर या बताते हैं। देसी भाषा में कहें तो डॉटर की सलाह यही होती है कि उंगली करने या होने से बचें। यह अप्रत्यक्ष उंगली है। खतरनाक है और कभी कभी जानलेवा भी। इसी से पेट में एसिड बनता है और ज्यादा दिनों तक होती रहे तो अल्सर होता है, लीवर फेल होता है और गुर्दे सहित दिल भी खराब हो जाता है। दरअसल उदारीकरण की देन यह उंगली सिर्फ एंटीएसिड या बीमारी अगर खराब हो गई तो उसकी दवाइयों तक ही सीमित हो चुकी है। इस पर कभी न तो कभी कोई बहस हुई और अगर हुई भी तो सुनने में नहीं आई।
कहने को तो उदारीकरण शब्द काफी उदार और मनभावन लगता है। सैकड़ों सालों से तरह तरह की समस्याओं से घिरे हम भारतीय हमेशा उदार शब्द को अच्छा मानते रहे हैं और इसकी प्रेरणा लेते और देते रहे हैं। ये शब्द कितना खतरनाक है इसका हमें अनुमान तक नहीं है। पिछली बार मैनें बताया था कि भारत में एंटीएसिड का कारोबार दवा के कुल कारोबार का बीस फीसदी यानि कि बारह हजार करोड़ रुपये सालाना का है। उदारीकरण के बाद न सिर्फ दवा व्यापार बढ़ा, बल्कि कई और चीजों में बढ़ोत्तरी हुई। मसलन विदेशी कंपनियां। यह विदेशी कंपनियां अपने साथ जो कार्य संस्कृति लाईं, वह विदेशी किसी भी मायने में नहीं थी। यह कार्य संस्कृति कुछ इस तरह की थी कि अगर किसी को दस हजार रुपये महीने दिए जा रहे हैं तो वह महीने में गिरी से गिरी हालत में दस लाख रुपये का काम जरूर करे। उसके काम से दस लाख या इसके आस पास का फायदा जरूर हो। बस यहीं से उदारीकरण की अति उदार उंगली शुरू हो गई। ये उंगली इतनी उदार थी कि हमें पता ही नहीं चला कि कब इसने चुपके से हमें कुरेदा और हम जबरदस्त एसिडिटी का शिकार हो गए। जो नाश्ता हम सुबह साढ़े सात बजे से आठ बजे तक कर लेते थे, वह दोपहर ११-१२ बजे तक हो गया। दोपहर का खाना शाम के चार बजे हो गया और रात का खाना देर रात बारह-एक बजे हो गया। मुझे याद है कि सन ९१ में जब मैं देहरादून में पढ़ता था, डिनर के लिए आए लोग बड़ी हद साढ़े नौ या दस बजे तक डिनर लेकर, डेजर्ट चखकर वापस हो लेते थे। अब देर रात लगभग एक बजे जब दफ्तर से लौटता हूं तो लोग अपने यार दोस्तों के यहां से डिनर करके लौट रहे होते हैं। उन्हें दस बजे के बाद ही छुट्टी मिलती है। लबोलुआब यह है कि उदारीकरण के बाद हमारे काम करने के घंटे भी हद से ज्यादा उदार हो गए। हम देर रात तक काम करने लगे। गजब का उदार है ये उदारीकरण।
व्यापार में असल फायदा यही है कि लोग वस्तुओं को खरीदें और लगातार खरीदते रहें। ईमानदारी के व्यापार में ऐसा होना संभव नहीं है योंकि हर चीज आवश्यक जरूरतों से नहीं जुड़ी। ऐसे में व्यापार चलाने के लिए वस्तुओं की जरूरत पैदा करनी होती है। लाखों करोड़ के दवा के व्यापार का पिछले तकरीबन अस्सी सालों से यही फंडा बन गया है। दवा की जरूरत नहीं होती लेकिन जरूरत के मुताबिक परिस्थितियां बनाई जाती हैं। एंटीएसिड की जरूरत हमें नहीं थी। साधारण खड़िया के पाउडर यानि कि डाइजीन से हमारा काम चल जाता था। डाइजीन भी उसे ही दी जाती थी, जो बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती हो। हम लोग तरह तरह के चूरन फांककर काम चला लेते थे। पूड़ी पराठां खाने पर एसिडिटी होने पर ठंडा दूध या गुनगुना पानी पी लेते थे। कम से कम हम दवा बाजार को सिर्फ एंटीऐसिड के लिए बारह हजार करोड़ रुपये सालाना तो नहीं ही देते थे। लेकिन कथित आयातित-जो कभी आयातित नहीं रहा, वर्क कल्चर के आने पर इसकी लगतार जरूरत बन गई। उदारीकरण ने हमारे पेट को इतना उदार बना दिया कि हम जेब से उदार हो गए। ये दीगर बात है कि इस उदारता के लिए हमें बाकायदा उधार भी दिया गया।
अगली किस्त में पढ़ेंगे कि उदारता से मिले उधार में हमारे पेट के या हमारे शरीर के साथ क्या उदारता दिखाई।