सरकारी फरमान - नो असहमति
सरकार का फरमान है कि देश में असहमति की कोई भी आवाज़ उठने नहीं दी जायेगी। साम्राज्यवाद की दलाल सरकार ने कार्पोरेशनों के हित में लोकतंत्र के खिलाफ, जनता के प्रतिरोधों के खिलाफ और ख़ुद देश की व्यापक जनता के खिलाफ अपनी सेना उतार दी है। यह युद्ध भी दो देशों के बीच है। इसमे एक ओर है इंडिया, जिसमें अरबपति कारपोरेट हैं, लालची मध्यवर्ग है, कारपोरेट मीडिया है, साम्राज्यवाद के टुकडों पर पलते बुद्धिजीवी हैं. दूसरी ओर है एक दूसरा देश, जिसमें अस्सी करोड़ के आसपास के आबादी 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करती है। इस आबादी को इस लोकतंत्र ने अब तक प्रताड़ना और अपमान के सिवा कुछ भी नहीं दिया है। अब यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र उनसे उनके पास जो कुछ भी है, वह सेना के बल पर उनसे छीन लेनेके अभियान पर निकला है। दो देशों के इस युद्ध में हमने अपनी जगह तय करनी है कि हम किस तरफ़ हैं। एक लेखिका ने यहाँ अपनी जगह तय करने की कोशिश की है।- रियाज़ उल हक
कंपनियों को खजाना और जनता को मौत बांटती सरकार
अरुंधती रॉय
दक्षिणी उड़ीसा की हल्की ऊंची और सपाट चोटी वाली पहाड़ियां डोंगरिया कोंध आदिवासियों के घर हैं। तब से जब उड़ीसा नाम के किसी राज्य और भारत नाम के किसी देश का अस्तित्व भी नहीं था। उन पहाड़ियों ने कोंधों का खयाल रखा। कोंधों ने उन पहाड़ियों को सहेजे रखा। उनकी पूजा की। एक जीवित भगवान की तरह। लेकिन अब बॉक्साइट के कारण उन पहाड़ियों को बेच दिया गया है। कोंध आदिवासियों को लगता है कि उनका भगवान बेच दिया गया है। वो पूछ रहे हैं कि अगर उनके देवता की जगह राम, अल्ला या ईसा मसीह होते तो क्या उन्हें बेचा जाता?
दंतेवाड़ा में अपने बच्चों के साथ एक आदिवासी औरत |
शायद, कोंधों से अहसानमंद रहने की उम्मीद की जाती है। इसलिए कि नियामगीरी पहाड़ी जो कि उनके देवता नियाम राजा (यूनिवर्सल लॉ के भगवान) का घर है, एक ऐसी कंपनी को बेची गयी है जिसका नाम है वेदांता। वेदांता मतलब हिंदू दर्शनशास्त्र की वो शाखा जो ज्ञान की सर्वोच्च प्रवृति सिखाती है। वेदांता दुनिया की सर्वाधिक बड़ी खनन कंपनियों में से एक है और इसके मालिक हैं अनिल अग्रवाल। भारतीय मूल के अरबपति जो लंदन के एक महल में रहते हैं। वह महल एक जमाने में ईरान के शाह का हुआ करता था। वेदांता उन ढेरों बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से महज एक नाम है, जिन्होंने उड़ीसा की तरफ़ रुख किया है।
अगर सपाट चोटी वाली पहाड़ियां नष्ट हुईं तो उन्हें ढकने वाले जंगल नष्ट हो जाएंगे। उनके साथ ही वहां से निकलने वाली धाराएं और नदियां सूख जाएंगी। मैदानी इलाकों को यही नदियां पानी पहुंचाती हैं। सींचती हैं। उनके सूखने से डोंगरियां कोंध बर्बाद हो जाएंगे। जंगलों में रहने वाले हज़ारों हज़ार आदिवासी ऐसे ही संकट में हैं। उनके वतन पर हमला हुआ है।
धूल और धुएं से भरे सघन आबादी वाले शहरों के कुछ वाशिंदे कहते हैं “तो क्या हुआ? विकास की कीमत किसी को तो चुकानी ही होगी।“ कुछ यह भी कहते हैं कि “इस सच का सामना करो। इन लोगों का वक़्त पूरा हो गया है। किसी भी विकसित देश, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया को देखो – उन सभी का एक अतीत था। यकीनन था। तो हम भी अपने अतीत को दफ़्न क्यों नहीं कर दें?”
इसी विचार को केंद्र में रखते हुए सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन हंट का एलान किया है। यह मध्य भारत के जंगलों में छिपे माओवादी विद्रोहियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा है। यकीनन, सिर्फ़ और सिर्फ़ माओवादी ही बग़ावत नहीं कर रहे। देशभर में कई स्तरों पर संघर्ष हो रहा है। भूमिहीन, दलित, बेघर, मज़दूर, किसान और बुनकर – आंदोलन कर रहे हैं। वो सभी निरंतर हो रहे अन्याय और तानाशाही से दुखी हैं। वो उन नीतियों से आहत हैं जो कंपनियों को उनकी ज़मीन पर कब्जा करने का हक़ देती हैं। फिर भी सरकार ने सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर माओवादियों की ही निशानदेही की है। दो साल पहले प्रधानमंत्री ने माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया। तब हालात इतने बदतर नहीं थे, जितने आज हैं। मनमोहन सिंह ने शायद सबसे अधिक बार यही बात कही है।
18 जून 2009 को मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की वास्तविक चिंता जाहिर की। संसद में उन्होंने कहा कि “अगर वामपंथी चरमपंथियों को देश के उन हिस्सों में फलने-फूलने दिया गया, जिनमें खनीज पदार्थ और दूसरी प्राकृतिक संपदाएं हैं तो निवेश का माहौल यकीनन बिगड़ेगा।”
माओवादी कौन हैं? वो प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) – सीपीआई (माओवादी) के सदस्य हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – सीपीआई (एमएल) की कई संतानों में से एक। जिन्होंने 1969 में नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया और बाद में भारतीय सरकार ने जिन्हें ख़त्म कर दिया। माओवादी मानते हैं कि भारतीय समाज में अंतरनीहित संरचनात्मक खामियों को हिंसक विद्रोह के जरिए सरकार को बेदखल करके ही दूर किया जा सकता है। बिहार और झारखंड में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) के रूप में माओवादियों ने जनसमर्थन हासिल किया। 2004 में जब आंध्र प्रदेश में कुछ समय के लिए उन पर से प्रतिबंध हटाया गया तो वारंगल में हुई उनकी रैली में पांच लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन आंध्र प्रदेश में समझौते की कोशिश बहुत बुरे मोड़ पर ख़त्म हुई। उसके बाद जो हिंसा का ख़ौफ़नाक दौर शुरू हुआ उसने उनके कई घोर समर्थकों को भी विरोधी बना दिया। आंध्र प्रदेश पुलिस और माओवादियों के बीच हुए ख़ूनी संघर्ष में पीडब्ल्यूजी का लगभग सफाया हो गया। जो बच गये वो पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में दाखिल हो गये। घने जंगलों के बीच वो उन साथी माओवादियों से जा मिले जो उन इलाकों में कई दशकों से सक्रिय थे।
जंगल में चल रहे माओवादी आंदोलन से बाहरी दुनिया के चंद लोगों का ही सीधा परिचय हुआ होगा। हाल ही में ओपन पत्रिका में छपे उनके उनके शीर्ष नेताओं में से एक कॉमरेड गणपति के इंटरव्यू से भी उन लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है जो माओवादियों को तानाशाही सोच रखने वाले दल के तौर पर देखते हैं। एक ऐसा दल जिसे असहमति बर्दाश्त नहीं।
कॉमरेड गणपति ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे यह भरोसा जगे कि अगर कभी वो सत्ता में आये तो जातियों में बंटे भारतीय समाज की उन्मादी अनेकता को संबोधित… सही तरीके से करेंगे। श्रीलंका में चले लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम को अनौपचारिक समर्थन से उनसे घोर सहानुभूति रखने वाले भी कांप उठे होंगे। न केवल इसलिए कि एलटीटीई ने अपनी लड़ाई में क्रूरतम हथकंडों का इस्तेमाल किया बल्कि इसलिए भी कि जिन तमिलों के प्रतिनिधित्व का एलटीटीई दावा करती थी, उन तमिलों पर एलटीटीई की वजह से जो विपदा पड़ी है उसे उसकी कुछ तो जिम्मेदारी लेनी ही होगी।
इस वक़्त मध्य भारत में, माओवादियों के छापामार दस्ते में ऐसे जरूरतमंद गरीब आदिवासी शामिल हैं जो ऐसी भूखमरी के कगार पर थे, जिसका जिक्र हम अफ्रीकी देशों के संदर्भ में करते हैं। ये सभी वो लोग हैं जिन्हें साठ साल की आज़ादी के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायिक जरूरतों से दूर रखा गया। ये वो लोग हैं जिनका बेरहमी से शोषण किया गया। छोटे कारोबारियों और सूदखोरों के द्वारा दोहन किया गया। पुलिस और वन विभाग के कर्मचारियों ने महिलाओं से ऐसे बलात्कार किया जैसे यह कुकर्म उनका अधिकार हो।
अगर आदिवासियों ने हथियार उठाया है तो सिर्फ़ इसलिए कि सरकार ने उन्हें हिंसा और उपेक्षा से अधिक कुछ नहीं दिया है। और अब वही सरकार उनसे उनका आखिरी सहारा – उनकी ज़मीन भी छीन लेना चाहती है। साफ़ है कि आदिवासी सरकार के इस कथन पर भरोसा नहीं करते कि वो उनका विकास करना चाहती है। उन्हें इस पर भी भरोसा नहीं कि दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनीज विकास कॉरपोरेशन (NMDC) ने जंगलों में हवाईपट्टियों जितनी चौड़ी-चौड़ी सड़कें इसलिए बनाई हैं कि उनके बच्चे स्कूल जा सकें। वो मानते हैं कि अगर उन्होंने अपनी भूमि के लिए संघर्ष नहीं किया तो वो ख़त्म हो जाएंगे। यही वजह है कि आज उनके हाथों में हथियार है।
माओवादी आंदोलन के अगुवा भले ही सरकार को सत्ता के बेदखल करने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन उन्हें अहसास है कि उनकी भूखी और कुपोषित सेना – जिनके ज़्यादातर सदस्यों ने कभी ट्रेन, बस और शहरी ज़िंदगी को क़रीब से नहीं देखा है – के लिए यह केवल अस्तित्व की लड़ाई है।
2008 में योजना आयोग की तरफ़ से नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। उस रिपोर्ट का नाम है – “उग्रवादप्रभावित इलाकों में विकास की चुनौतियां ”। इसमें लिखा है कि – नक्सली आंदोलन को भूमिहीन गरीब किसानों और आदिवासियों के बीच जनाधार वाले एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर मान्यता देनी होगी। स्थानीय लोगों के अनुभवों और सामाजिक हालात के संदर्भों में नक्सली आंदोलन के उत्थान और विस्तार को समझने की ज़रूरत है। राज्य की नीतियों और उन नीतियों पर अमल में मौजूद ग़हरी खाई उन्हीं हालत में से एक है। यह सही है कि इसकी विचारधारा… ताक़त के बल पर सत्ता हासिल करना है, लेकिन रोज़मर्रा के क्रिया कलापों में इसे सामाजिक न्याय, समानता, रक्षा, सुरक्षा और स्थानीय विकास के लिए चल रहे संघर्ष के तौर पर देखना होगा।” यह “आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे” के सिद्धांत से काफी अलग है।
माओवादी विद्रोही इन दिनों चर्चा का विषय हैं। चमकते हुए अमीर से लेकर सबसे अधिक बिकने वाले अख़बार के सनकी संपादक तक – हर कोई अचानक यह मानने को तैयार हो गया है कि दशकों से हो रहा अन्याय ही इस समस्या की जड़ है। लेकिन उस समस्या को समझने की जगह, जिसका मतलब होगा 21वीं सदी की इस सुनहरी दौड़ का थम जाना, वो इस बहस को एक नया मोड़ देने में जुटे हैं। माओवादी “आतंकवाद” के ख़िलाफ़ भावनात्मक गुस्से का इज़हार करते हुए … चीखते-चिल्लाते हुए। लेकिन वो सिर्फ़ अपने आप से बातें कर रहे हैं।
जनता जिसने हथियार उठा रखा है, वह टेलिविजन देखने और अख़बार पढ़ने में अपना वक़्त खर्च नहीं करती। “हिंसा सही है या ग़लत? अपने जवाब …. पर एसएमएस करें” – जैसे नैतिक सवालों पर वो अपना दिमाग नहीं खपाती है। वो अपने इलाकों में … अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वो मानते हैं कि अपने घर, अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई लड़ने का उन्हें पूरा अधिकार है। उनका विश्वास है कि उन्हें न्याय मिलना ही चाहिए।
अपने खुशहाल नागरिकों को इन ख़तरनाक लोगों (आदिवासियों) से सुरक्षित रखने के लिए सरकार ने इनके ख़िलाफ़ युद्ध का एलान कर दिया है। सरकारी बताती है इस युद्ध को जीतने में तीन से पांच साल लग सकते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि मुंबई हमले के बाद भी भारत सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिए तैयार है? चीन से बात करने के लिए तैयार है, लेकिन अपने ही देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता के ख़िलाफ़ युद्ध के बारे में उसका रवैया सख़्त है।
आदिवासी इलाकों में ग्रेहाउंड्स (कुत्ते की एक खूंखार प्रजाति), कोबरा (सांप की सबसे विषैली प्रजातियों में से एक) और स्कॉर्पियन (बिच्छू) जैसे डरावने नामों वाले स्पेशल पुलिस के दस्तों को नरसंहार का लाइसेंस दिया जा चुका है, लेकिन लगता है यह काफी नहीं है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और कुख्यात नगा बैटेलियन ने जंगलों में बसे गांवों में पहले से क़हर बरपा रखा है, लेकिन यह भी काफी नहीं। आदिवासियों को हथियार थमा कर सलवा जुडुम का निर्माण करना भी काफी नहीं। वो सलवा जुडुम जिसने हत्या, बलात्कार और आगजनी के बल पर दंतेवाड़ा के जंगलों में तीन लाख से भी ज़्यादा लोगों को या तो बेघर कर दिया है या फिर भागने पर मजबूर। लेकिन यह सब काफी नहीं।
शायद तभी सरकार ने आईटीबीपी और दूसरे अर्धसैनिक बलों के हज़ारों जवानों को तैनात करने का फैसला लिया है। बिलासपुर में नौ गांवों को विस्थापित करके सरकार एक ब्रिगेड मुख्यालय बनाना चाहती है। और राजनांदगांव में सात गांवों को विस्थापित करके एक एयरबेस बनाने की योजना है। जाहिर है यह फ़ैसले काफी पहले लिए गये होंगे। सर्वे किया गया होगा। जगह का चयन हुआ होगा। लेकिन युद्ध की चर्चा हाल-फिलहाल शुरू की गयी है। और अब भारतीय एयरफोर्स के हेलीकॉप्टरों को आत्मसुरक्षा के नाम पर हमले का अधिकार दे दिया गया है। देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता यही आत्मसुरक्षा का अधिकार मांग रही है लेकिन सरकार उसे यह अधिकार नहीं देना चाहती।
गोलीबारी किस पर? कोई यह बताएगा कि सुरक्षाबल… आतंकित हो कर भाग रहे आदिवासियों और माओवादियों में फर्क कैसे करेंगे? सदियों से आदिवासी तीर-कमान के साथ जंगलों में घूमते आये हैं – क्या अब उन्हीं तीर कमान के कारण उन्हें माओवादी घोषित कर दिया जाएगा?
क्या माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले अहिंसक लोग भी निशाने पर होंगे? जब मैं दंतेवाड़ा में थी, पुलिस अधीक्षक ने ऐसे 19 माओवादियों की तस्वीरें दिखाईं, जिन्हें उनके जवानों ने ढेर कर दिया था। मैंने उनसे पूछा कि मैं किस आधार पर कहूं कि ये माओवादी हैं? – उन्होंने जवाब दिया – देखिए मैडम उनके पास मेलेरिया की दवाएं और डिटॉल की बोतलें मिली हैं – ये वो सामान हैं जो यहां बाहर से आते हैं।
ऑपरेशन ग्रीन हंट आखिर किस तरह का युद्ध होगा? क्या हम कभी जान सकेंगे? पहले से ही जंगलों के भीतर से बहुत कम ख़बरें आती हैं। पश्चिम बंगाल में लालगढ़ को सेना ने घेर लिया था। जो भी वहां जाना चाहता उसे गिरफ़्तार कर लिया जाता और उसकी पिटाई की जाती। माओवादी बता कर। दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम, एक गांधीवादी आश्रम था। उसे हिमांशु कुमार चलाते थे। कुछ ही घंटों में उस आश्रम को मिट्टी में मिला दिया गया। युद्ध क्षेत्र से ठीक पहले यह एक ऐसी जगह थी जहां पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शोधार्थी और जांच टीमें ठहरा करती थीं।
इसी बीच भारत सरकार ने अपने सर्वाधिक घातक हथियार का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। रातों रात, हमारी इब्बेडिड मीडिया ने “इस्लामी आतंकवाद” के बारे में प्लांटेड, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन से भरी ख़बरों की जगह “लाल आतंकवाद” के बारे में प्लांडेट, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन भरी खबरें दिखाना शुरू कर दिया। इस रैकेट के बीच, युद्ध मैदान में घोषित और दमघोंटू चुप्पी छाई हुई है। सुरक्षाबलों का घेरा कस दिया गया है। श्रीलंका की तर्ज पर समस्या को हल करने की नीति पर अमल हो रहा है। यह अकारण नहीं है कि तमिल टाइगर्स के ख़िलाफ़ श्रीलंका के युद्ध अपराधों की जांच की मांग से जुड़े यूरोपीय प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र में भारत ने विरोध किया।
इस दिशा में पहला कदम वह प्रचार है जिसके सहारे देश में चल रहे अनगिनत आंदोलनों को एक ही नाल में ठोंक देना है। ठीक अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के सिद्धांत के तहत कि “अगर तुम हमारे साथ नहीं” तो तुम “माओवादी” हो। सोची-समझी रणनीति के तहत माओवादी ख़तरे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से सरकार को सैन्यीकरण में मदद मिलती है। (इससे माओवादियों को भी कोई नुकसान नहीं है। आखिर कौन सी राजनीतिक पार्टी ऐसी होगी जो इतनी तवज्जो मिलने पर दुखी हो?)
आतंक के ख़िलाफ़ इस नये युद्ध से राज्य को अपने ख़िलाफ़ सिर उठा रहे सैकड़ों आंदोलनों को एक साथ ख़त्म करने का मौका मिल जाएगा। इस सैन्य अभियान में माओवादियों के शुभचिंतक बता कर सभी आंदोलनकारी साफ़ कर दिये जाएंगे। मैंने भविष्यकाल (फ्यूचर टेंस) का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर में यही किया। उसे मुंह की खानी पड़ी। लालगढ़ में पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेर कमेटी (पुलिस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनसाधारण समिति) – जो कि एक जन आंदोलन है, माओवादी आंदोलन नहीं – को बार-बार सीपीआई (माओवादी) का धड़ा बता दिया जाता है। उसके नेता छत्रधर महतो को गिरफ़्तार किया जा चुका है और माओवादी बता कर ज़मानत नहीं लेने दिया जा रहा।
हम सब पेशे से चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकार्ता डॉक्टर बिनायक सेन की दास्तान जानते हैं। उन्हें दो साल तक माओवादियों को मदद पहुंचाने के झूठे आरोप में दो साल कैद में रखा गया। जब सभी का ध्यान ऑपरेशन ग्रीन हंट पर होगा तब इस युद्ध क्षेत्र से अलग भारत के दूसरे हिस्सों में देश की बेहतरी के नाम पर गरीबों की जमीन के अधिग्रहण कार्रवाई तेज़ हो जाएगी। उनकी पीड़ा बढ़ती जाएगी और उनकी चीखों को सुनने वाला कोई नहीं होगा।
युद्ध शुरू हुआ तो तमाम युद्धों की तरह इसकी अपनी गति, तर्क और अर्थशास्त्र विकसित हो जाएगी। यह ज़िंदगी की ऐसी धारा बन जाएगी, जिसका रुख मोड़ना लगभग नामुमकिन होगा। पुलिस से सेना यानी हत्या की एक क्रूर मशीन की तरह बर्ताव करने की उम्मीद होगी। अर्धसैनिक बल पुलिस की तरह भ्रष्ट और सड़ चुके सुरक्षा बल की तरह बर्ताव करेंगे। नगालैंड, मणिपुर और जम्मू-कश्मीर में हमने यह सब देखा है।
इस मध्य भारत में एक फर्क यही रहेगा कि चीजे बहुत जल्द साफ़ हो जाएंगे। सुरक्षाबलों को भी यह अहसास हो जाएगा कि उनमें और जिन लोगों के ख़िलाफ़ वो लड़ रहे हैं कोई ख़ास अंतर नहीं है। वक़्त के साथ जनता और कानून लागू करने वालों के बीच खाई गहराती जाएगी। हथियार और गोलाबारूद खरीदे और बेचे जाएंगे। वास्तव में यह अब भी हो रहा है। चाहे वो सुरक्षाबल हों या फिर माओवादी या फिर अहिंसक नागरिक… सबसे गरीब जनता… अमीरों की इस जंग में मारी जा रही है। फिर भी अगर कोई यह मान रहा है कि इस युद्ध से उसकी सेहत पर असर नहीं पड़ेगा तो उसे दोबारा सोचना चाहिए। इस युद्ध में जो भी साधन खर्च होंगे उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर ज़रूर पड़ेगा।
पिछले हफ़्ते, नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों ने दिल्ली में कई बैठकें की। मुद्दा था कि युद्ध को टालने और तनाव दूर करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। नागरिक अधिकारों के सबसे अधिक सक्रिय कार्यकर्ता डॉ बालगोपाल की कमी बहुत खली। आंध्र प्रदेश के डॉ बालगोपाल की दो हफ़्ते पहले मृत्यु हो गयी। वो हमारे दौर के सबसे साहसिक और सुलझे हुए राजनीतिक विचारक रहे हैं और उन्होंने हमारा साथ ऐसे दौर में छोड़ा है जब उनकी सबसे अधिक ज़रूरत है। फिर भी, मुझे यकीन है कि अगर वो इन बैठकों में होते और वक्ताओं की समझ, गहराई, अनुभव, ज्ञान, राजनीतिक तीक्ष्णता और मानवीय चेहरे को देखते तो उन्हें संतोष हुआ होता। भारत में नागरिक अधिकारों की हिमायत करने वाले संगठनों में शिक्षक, वकील, जज समेत विविध क्षेत्रों के लोग शामिल हैं। राजधानी में उनकी मौजूदगी से जाहिर हुआ कि हमारे टेलीविजन स्टूडियो की चमक और मीडिया के पागलपन भरे शोर के बीच भी भारतीय मध्य वर्ग का मानवीय दिल धड़कता है। अगर मैं ग़लत नहीं तो, यही वो लोग हैं जिन पर केंद्रीय गृह मंत्री ने आतंकवाद को जायज ठहराने वाला बौद्धिक माहौल तैयार करने का आरोप लगाया था। अगर वह आरोप लोगों को डराने के लिए था तो उसका असर उल्टा हुआ है।
वक्ताओं ने ढेरों मत दिये। उदारवादी से लेकर घोर वामपंथी विचार सामने आये। हालांकि वहां मौजूद किसी भी शख़्स ने खुद को माओवादी नहीं बताया, कुछ तो सैद्धांतिक तौर पर उस विचार के भी ख़िलाफ़ थे कि लोगों को राज्य की हिंसा का प्रतिरोध करने का अधिकार होना चाहिए। बहुत से लोग माओवादियों की हिंसा से असहज नज़र आये, “जनता की अदालत” जैसे सिद्धांत उन्हें हजम नहीं हुए। वो ऐसी तानाशाही के भी ख़िलाफ़ दिखे जो हिंसक विद्रोह की तरफ़ ढकेल दे और उन लोगों को हाशिए पर ठेल दे जिनके पास हथियार नहीं हैं। भले ही उन सभी ने माओवादी हिंसा को लेकर अपनी असहजता जाहिर की, लेकिन सभी इस बात पर सहमत थे कि “जनता की अदालतें” अस्तित्व में इसलिए आईं क्योंकि हमारी अदालतें आम आदमी की पहुंच से बाहर थीं। और मध्य भारत में शुरू हुआ हिंसक विद्रोह कोई पहला विकल्प नहीं है बल्कि आदिवासियों के सामने यह आखिरी विकल्प बचा था, जिनके अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया गया है।
वक्ताओं को यह अहसास था कि युद्ध जैसे बनते हालात में हिंसा के इक्का-दुक्का घृणित वाकयों के आधार पर नैतिकता का सवाल उठाने के अपने ख़तरे हैं। हर कोई सत्ता की तरफ़ से होने वाली संस्थागत हिंसा और हथियारबंद प्रतिरोध की हिंसा का मतलब समझता है। सेवानिवृत जस्टिस पी बी सावंत ने तो जनता के साथ हो रहे घोर अन्याय की तरफ़ सत्ता का ध्यान खींचने के लिए माओवादियों का शुक्रिया अदा किया।
आंध्र प्रदेश के हरगोपाल ने नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता की हैसियत से राज्य में माओवादी गतिविधियों के दौर में मिला अनुभव साझा किया। उन्होंने बताया कि 2002 के गुजरात दंगों में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद की उग्र भीड़ ने जितने लोगों की हत्या कि माओवादियों ने कभी उतने लोगों की हत्या नहीं की – आंध्र प्रदेश के ख़ूनी दौर में भी नहीं।
लालगढ़, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के युद्ध क्षेत्र से पहुंचे लोगों ने अपनी बात रखी। उन्होंने पुलिसिया क़हर, गिरफ़्तारी, हत्या, जुल्म और भ्रष्टाचार के किस्से बयां किए। उड़ीसा जैसी जगहों पर तो पुलिस खनन कंपनियों के अधिकारियों के इशारे पर कार्रवाई करती है। उन्होंने कुछ स्वंयसेवी संस्थाओं के दोहरे चरित्र को भी सामने रखा। बताया कि कैसे वो कंपनियों के हितों को पोषित करने की भूमिका निभाते हैं। उन्होंने बताया कि कैसे झारखंड और छत्तीसगढ़ में जो भी इस रैकेट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है उसे माओवादी बता कर जेल में ठूंस दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि सत्ता की यह दमनात्मक कार्रवाई लोगों को हथियार उठाने के लिए सबसे अधिक उकसा रही है।
उन्होंने सवाल उठाया कि जो सरकार विस्थापित हुए पांच करोड़ नागरिकों के एक छोटे से हिस्से को भी पुनर्वासित करने में नाकाम रही है उसने कैसे 300 स्पेशल इकोनोमिक जोन के नाम पर कंपनियों को देने के लिए 1.4 लाख हेक्टेयर जमीन तुरंत चिन्हित कर ली?
उन्होंने पूछा कि यह जानते हुए भी कि सरकार निजी कंपनियों को देने के लिए जनता को जमीन से बेदखल कर रही है, भूमि अधिग्रहण कानून में मौजूद जनहित की परिभाषा की समीक्षा से इनकार करके सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की किस अवराधारणा पर अमल किया?
उन्होंने पूछा कि सरकार जब कहती है कि “राज्य आज्ञा का पालन होना चाहिए” तो उसका मतलब यही होता है कि पुलिस स्टेशन खड़े कर दिये जाए। राज्य आज्ञा का मतलब स्कूल और क्लिनिक बनवाना क्यों नहीं है? मकान या फिर साफ पानी मुहैया कराना क्यों नहीं है? जंगल के उत्पादों के लिए उचित कीमत देना क्यों नहीं है? लोगों को पुलिस के भय से मुक्त कराना और उन्हें अकेला छोड़ देना क्यों नहीं होता है – कोई भी ऐसा कदम जिससे लोगों की ज़िंदगी थोड़ी आसान हो। उन्होंने पूछा कि आखिर राज्य आज्ञा का मतलब न्याय क्यों नहीं है?
करीब दस साल पुरानी बात है। ऐसी ही बैठकों में नई आर्थिक नीति से उत्साहित लोग विकास के मॉडल पर बहस किया करते थे। अब उन्होंने नई आर्थिक नीति का विकास मॉडल खारिज कर दिया है। पूर्णत: खारिज। गांधीवादियों से लेकर माओवादियों हर कोई इस पर सहमत है। सब एक ही सवाल से जूझ रहे हैं कि आखिर विकास के इस क्रूर तिलिस्म को तोड़ा कैसे जाए?
एक दोस्त का पुराना कॉलेज मित्र इस अनजान दुनिया के बारे में जानने की उत्सुकता के साथ ऐसी ही एक बैठक में पहुंचा। वो इन दिनों कॉरपोरेट दुनिया का बड़ा नाम है। हालांकि उसने अपनी असलियत फैबइंडिया के कुर्ते में छिपाने की कोशिश की, लेकिन खुद को अमीर दिखने (और महकने) से नहीं रोक सका। एक मौके पर वह मेरी ओर झुका और कहा “कोई इन्हें समझाए कि ये परेशान नहीं हों। यह नहीं जानते कि इनकी लड़ाई किनसे है। कंपनियां मंत्रियों, मीडिया मालिकों और नीतियां बनाने वालों को खरीद सकती हैं। अपना एनजीओ चला सकती हैं। जरूरत पड़ने पर अपनी सेना खड़ी कर सकती हैं.. ये पूरी सरकार खरीद सकती हैं। वो माओवादियों को भी खरीद लेंगे। यहां मौजूद भले लोगों को चाहिए कि वो थोड़ा सुसता कर कुछ बेहतर करने के बारे में सोचें”।
जब लोग क़त्ल किए जा रहे हों तो लड़ने से “बेहतर” क्या कुछ हो सकता है? उनके पास कोई विकल्प बचा ही नहीं है, सिवाए आत्महत्या के। ठीक वैसे ही जैसे देश के 1,80,000 किसानों ने कर्ज में डूबने के बाद अपनी जान दी। ((क्या मैं अकेली हूं जिसे यह महसूस होता है कि अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की तुलना में भारतीय व्यवस्था और मीडिया में उसके प्रतिनिधि हताशा और निराशा के माहौल में किसानों की खुदकुशी को लेकर ज़्यादा सहज हैं?))
कई साल तक छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में लोग – उनमें से कुछ माओवादी – बड़ी कंपनियों को अपने से दूर रखने में कामयाब रहे हैं। अब सवाल उठता है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट से उनके संघर्ष के तरीके पर क्या असर पड़ेगा?
यह सही है कि स्थानीय लोगों से युद्ध में खनन कंपनियों की हमेशा जीत हुई है। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि हथियार बनाने वाली कंपनियों को छोड़ दें तो तमाम कंपनियों की तुलना में खनन कंपनियों का इतिहास सबसे अधिक हिंसक और क्रूर है। वो सनकी और युद्ध उन्मादी होती हैं। जब लोग कहते हैं कि “जान देंगे पर ज़मीन नहीं देंगे” तो वो उछल पड़ती हैं। हज़ारों अलग-अलग भाषाओं और सैकड़ों देशों में इन कंपनियों ने यही बात सुनी होगी।
भारत में, उनमें से कई अब भी फर्स्ट क्लास यात्री लॉन्ज में हैं। कॉकटेल का आदेश करते हुए, सुस्त शिकारी की तरह पलकें झपकाते हुए और उस वक़्त का इंतज़ार करते हुए जब समझौतों – जिनमें से कुछ 2005 में किए गये थे – से कमाई होने लगेगी। फर्स्ट क्लास लॉन्ज में ही क्यों न हो – चार साल का इंतज़ार किसी की भी सब्र की परीक्षा लेने के लिए काफी है। वह इतना स्पेस ही देने को तैयार थे ताकि लोकतंत्रिक अनुष्ठान के सभी खोखले रीति रिवाज – (फर्जी) जन सुनवाई, (फर्जी) पर्यावरण छति मूल्यांकन, विभिन्न मंत्रालयों से (खरीदी हुई) स्विकृतियां, लंबे चले अदालती मुक़दमे – पूरे किए जा सकें। लोकतंत्र चाहे छद्म क्यों न हो उसमें वक़्त लगता है और उद्योगपतियों के लिए वक़्त का मतलब पैसा है।
आखिर हम किस तरह के पैसे की बात कर रहे हैं? अपने मौलिक और जल्द प्रकाशित होने वाली पुस्तक – आउट ऑप दिस अर्थ: ईस्ट इंडिया आदिवासीज एंड द अल्युमीनियम कार्टेल – में समरेंद्र दास और फेलिक्स पाडेल ने बताया है कि उड़ीसा में मौजूद बॉक्साइट की क़ीमत 2270 अरब डॉलर है। यह रकम भारत के सकल घरेलु उत्पाद से दोगुनी है। यह आंकड़े 2004 की क़ीमत पर आधारित हैं। वर्तमान में उसकी क़ीमत 4000 अरब डॉलर के करीब होगी।
इसमें से आधिकारिक तौर पर सरकार को सात फ़ीसदी से भी कम रॉयल्टी मिलेगी। अक्सर, खनन कंपनी जब चर्चित और मान्यता प्राप्त होती है तो भविष्य के बाज़ार को ध्यान में रखते हुए खनीज पदार्थ को निकाले बगैर पहाड़ियों का सौदा हो जाता है। वो पहाड़ियां तब भी आदिवासियों के लिए जीवन और आस्था के स्रोत और जीवित देवताओं के समान हो सकती हैं, इलाके में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने की धूरी हो सकती हैं, लेकिन इन कंपनियों के लिए उनकी हैसियत सस्ते भंडारगृह से अधिक कुछ नहीं। कंपनियों के हिसाब से तो उन पहाड़ियों से बॉक्साइट को हर हाल में निकालना होगा। यह काम शांतिपूर्ण तरीके से नहीं हुआ तो इसे हिंसक तरीके से करना होगा। यही मुक्त बाज़ार की अनिवार्य शर्त है।
यह उड़ीसा में केवल बॉक्साइट की कहानी है। इन 4000 अरब डॉलर में छत्तीसगढ़ और झारखंड से निकलने वाले उच्च कोटि के लौह अयस्क की क़ीमत जोड़ लीजिए। और यूरेनियम, लाइमस्टोन, डोलोमाइट, कोयला, टीन, ग्रैनाइट, संगमरमर, कॉपर, हीरा, सोना, क्वार्टजाइट, कोरंडम, बेरील, अकेक्सेन्ड्राइट, सिलिका, फ्लोराइट और गार्नेट समेत 28 अन्य खनीज स्रोतों की कीमत को भी जोड़िए। इस लिस्ट में पॉवर प्लांट, बड़े-बड़े बांध, हाईवे, स्टील और सीमेंट फैक्टरिया, अल्युमीनियम ढालने वाली फैक्टरियां और आधारभूत ढांचे से जुड़ी तमाम अन्य परियोजनाओं जो कि सैकड़ों समझौतों का हिस्सा हैं उनकी लागत भी जोड़िए (अकेले झारखंड में ऐसी 90 परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है)। इससे हमें और आपको वहां होने वाले ऑपरेशन और उससे जुड़ी कंपनियों की बेचैनी का मोटा-मोटी अंदाजा मिल जाएगा।
पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के हिस्सों में फैले जंगल – जिसे दंडकारण्य कहा जाता रहा है – में करोड़ों आदिवासी रहते हैं। मीडिया ने इसे लाल कॉरिडोर या फिर माओइस्ट (Maoist – माओवादी) कॉरिडोर कहना शुरू कर दिया है। कायदे से इसे एमओयूइस्ट (MoUist – MoU का मतलब मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग होता है) कॉरिडोर कहना चाहिए। यह संविधान के पांचवे सिड्यूल में आदिवासियों को दी गयी सुरक्षा के एकदम विपरीत है – जिसके तहत उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि यह क्लॉज संविधान की सुंदरता के लिए जोड़ा गया है। हल्की सी सजावट। हल्का सा मेकअप। आदिवासियों के घरों पर कब्जा करने के लिए बहुतेरी कंपनी – छोटी से लेकर दुनिया की सबसे बड़ी खनन कंपनियां – कतार में लगी हुई हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा, एस्सार, पॉस्को, रियो टिंटो, बीएसपी बिलिटॉन और वेदांता – यह फेहरिस्त काफी लंबी है।
यहां हर पर्वत, नदी और जंगल के लिए एक करार किया गया है। हम ऐसी सामाजिक और पर्यावरण इंजीनियरिंग की बात कर रहे हैं जो हमारी कल्पनाओं से परे है। और इसमें से अधिकतर गुप्त भी, जिनके बारे में किसी को कोई भनक नहीं।
किसी भी प्रकार से, मैं यह नहीं सोच रही कि दुनिया के प्राचीनतम जंगलों में एक जंगल और उसमें पलने वाले इकोसिस्टम और रहने वाले लाखों इंसानों को धीरे-धीरे नष्ट करने की इस साज़िश के बारे में कोपेनहेगन की क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में कोई चर्चा होगी। हमारे 24 घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल भी माओवादी हिंसा के बेतुके किस्सों को गढ़ने में और ख़बरों का अकाल पड़ने पर उन्हें चलाने में लगातार व्यस्त रहते हैं। लेकिन इस हिंसा के दूसरे पहलू को लेकर उनका रवैया हमेशा उदासीन बना रहता है। मैं चकित हूं कि ऐसा क्यों है?
शायद इसलिए कि वो विकास की वकालत करने वालों के दास बन गये हैं और विकास की दलील देने वाली यह लॉबी कहती है कि खनन उद्योग से सकल घरेलु उत्पाद की विकास दर में तेज बढ़ोतरी होगी और इससे विस्थापितों को रोजगार मिलेगा। उन्हें पर्यावरण को होने वाली भयावह छति नज़र नहीं आती है। अगर इस छति को रहने दें तो भी उनकी संकीर्ण दलीलों में कोई दम नहीं है। अधिकतर पैसा कंपनियों के मालिकों की तिजोरी में चला जाएगा। सरकार के हिस्से में दस फ़ीसदी से भी कम आएगा। विस्थापितों की तुलना में बहुत कम लोगों को रोजगार मिलेगा। और जिन्हें रोजगार मिलेगा वो बंधुआ मज़दूरी पर कमरतोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर रहेंगे। अपने लालच की अंतहीन गुफा खोदते हुए हम अपने पर्यावरण की कीमत पर दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था चमका रहे हैं।
जब इस खेल में लगा पैसा इतना अधिक हो तो स्टेकहोल्डर्स (लाभार्थियों) की शिनाख्त हर समय आसान नहीं होती। निजी विमानों में घूमने वाले सीईओ से लेकर सलवा जुडुम जैसे घृणित अभियान में शामिल भोलेभाले आदिवासियों तक – जो चंद हज़ार रुपयों के लिए अपने ही लोगों की हत्या और बलात्कार करते हैं और उनके घरों को जला देते हैं ताकि खनन का काम शुरू हो सके – लाभार्थियों का जाल फैला हुआ है। इन्हें अपना हित जाहिर करने की कोई जरूरत नहीं। इन्हें अपनी जगह लेने की छूट दी जा चुकी है।
क्या कभी हम यह जान पाएंगे कि इस लूट में किस राजनीतिक दल, मंत्री, सांसद, नेता, जज, एनजीओ, विशेषज्ञ और अधिकारी का प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से कितना हित जुटा है?
क्या हम जान सकेंगे कि माओवादी हिंसा के ताज़ा वाकये के बारे में ग्राउंड जीरो (युद्ध क्षेत्र) से सीधी रिपोर्टिंग करने वाले – या साफ़ शब्दों में कहें तो ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग का पाखंड करने वाले – या और अधिक साफ शब्दों में कहें तो ग्राउंड जीरो से झूठ बोलने वाले किस अख़बार और न्यूज़ चैनल का इस लूट में क्या हिस्सा है?
आखिर कैसे और कहां से भारत के चंद नागरिकों ने चोरी छिपे खरबों डॉलर स्विस बैंक में जमा कराए हैं (यह रकम भारतीय जीडीपी से कई गुना है)?
बीते आम चुनाव में खर्च हुए दो अरब डॉलर आखिर कहां से आये? चुनावी पौकेज के नाम पर सियासी दलों और नेताओं ने मीडिया को जो अरबों रुपये बांटे हैं वो कहां से आये? (अगली बार अगर आप किसी टीवी एंकर को एक स्तब्ध स्टूडियो गेस्ट से जबरन, चीखते हुए अंदाज में सवाल करते सुने कि “आखिर माओवादी चुनाव क्यों नहीं लड़ते हैं? मुख्यधारा में क्यों नहीं आते हैं?” तो यह एसएमएस जरूर कीजिएगा – “क्योंकि तुम्हारे दाम (रेट) उनकी (माओवादियों की) पहुंच से बाहर हैं।))
यह जान कर हम क्या कर सकते हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के सीईओ और देश के केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कॉरपोरेट वकील के तौर पर अपने करियर में कई खनन कंपनियों की नुमाइंदगी की है?
यह जान कर हम क्या कर सकते हैं कि चिदंबरम वेदांता के गैर कार्यकारी निदेशक थे और उन्होंने 2004 में उस पद से इस्तीफा ठीक उसी दिन दिया जिस दिन देश के वित्त मंत्री के तौर पर शपथ ली?
यह जान कर भी हम और आप क्या कर सकते हैं कि वित्त मंत्री बनने के बाद चिदंबरम ने सबसे पहले विदेशी निवेश के जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी उनमें से एक प्रस्ताव मॉरिशस की कंपनी ट्विस्टार होल्डिंग्स का था जिसने वेदांता ग्रुप की कंपनी स्टरलाइट के शेयर खरीदे?
यह जान कर भी हम क्या कर सकते हैं कि जब उड़ीसा के एक कार्यकर्ता ने वेदांता पर सरकारी नियमों को तोड़ने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया और बताया कि कैसे यह कंपनी मानवाधिकारों का हनन और पर्यावरण से खिलवाड़ कर रही है और उसकी करतूतों के कारण नॉर्वेजियन पेंशन फंड ने निवेश वापस ले लिया, तो जस्टिस कपाडिया ने यह सलाह दी कि वेदांता की जगह यह प्रोजेक्ट उसकी सिस्टर कंपनी स्टरलाइट को दे दी जाए? जस्टिस कपाडिया ने बेपरवाह अंदाज में भरी अदालत में कहा कि उनके पास भी स्टरलाइट कंपनी के शेयर्स हैं। यही नहीं उन्होंने स्टरलाइट कंपनी को जंगल में खनन की इजाजत दे दी – यह जानते हुए भी कि सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति ने यह कहते हुए खनन की छूट नहीं देने की सलाह दी थी कि उससे जंगल तबाह हो जाएंगे। पानी के स्रोत सूख जाएंगे और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने से वहां का पूरा जनजीवन संकट में पड़ जाएगा। जस्टिस कपाडिया ने यह मंजूरी इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए दी।
हम इस सत्य को जान कर भी क्या कर सकते हैं कि ज़मीन खाली कराने के लिए सलवा जुडुम जैसे हिंसक ऑपरेशन की औपचारिक शुरूआत 2005 में हुई, टाटा के साथ हुए करार के चंद दिनों बाद? और बस्तर में जंगल वेलफेयर ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना भी तभी की गयी?
हम इस सत्य को जान कर भी क्या कर सकते हैं कि अब से दो हफ़्ते पहले, 12 अक्टूबर को लोहनडिगुडा, दंतेवाड़ा में टाटा स्टील के दस हज़ार करोड़ रुपये की परियोजना की मंजूरी के लिए जरूरी जन सुनवाई कलेक्टर के दफ़्तर में हुई। बस्तर से भाड़े पर पचास लोग लाए गये। इलाके को सील कर दिया गया और उसके बाद कलेक्टर ने जन सुनवाई को कामयाब बता दिया और बस्तर की जनता को इस सहयोग के लिए धन्यवाद दिया?
हम यह जानकार भी क्या कर सकते हैं कि जब प्रधानमंत्री ने माओवादियों को सबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा बताया तब उस इलाके से जुड़ी कई कंपनियों के शेयरों के भाव अचानक तेजी से चढ़ गये?
खनन कंपनियां हर हाल में यह युद्ध चाहती हैं। यह एक पुराना हथियार है। उन्हें उम्मीद है कि हिंसा का असर इतना व्यापक होगा कि जिन लोगों ने उन्हें इस इलाके में दाखिल होने से रोक रखा है वो अपने घर छोड़ कर जाने को मजबूर हो जाएंगे।
वास्तव में यह होगा या इससे माओवादियों की ताक़त बढ़ जाएगी यह भविष्य में पता चलेगा।
इस तर्क को पलटते हुए पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री डॉ अशोक मित्रा ने एक लेख लिखा है – द फेंटम एनिमी। उसमें डॉ मित्रा ने कहा है कि माओवादी जिन ख़ौफनाक़ सीरीयल हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं वो छापामार युद्ध की किताबों से सीखे गये पुराने हथकंडे हैं। उन्होंने बताया है कि माओवादियों ने अपनी गुरिल्ला सेना का गठन कर लिया है जो भारतीय राज्य से लोहा लेने के लिए तैयार है। माओवादी जो उपद्रव फैला रहे हैं यह राज्य को उकसाने की एक चाल है ताकि गुस्से में सरकार कुछ ऐसे क्रूर कदम उठाए जिससे आदिवासियों का गुस्सा और भड़के। डॉ मित्रा के मुताबिक माओवादी को उम्मीद है कि आदिवासियों का यह गुस्सा एक विद्रोह की शक्ल अख्तियार करेगा। यकीनन यह “दुस्साहसी” बताने का वही घिसापिटा आरोप है जो वामपंथी विचारधारा के कई धड़े पहले से माओवादियों पर मढ़ते रहे हैं।
अशोक मित्रा एक पुराने कम्युनिस्ट हैं। पश्चिम बंगाल में साठ और सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका रही है। उनके मत को सीधे खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि आदिवासियों के संघर्षों का इतिहास माओवाद के जन्म से बहुत पुराना है। इसलिए उन्हें चंद माओवादी विचारकों की कठपुतली करार देना उन्हें नुकसान पहुंचाने के बराबर है।
अगर हम मान लें कि डॉ मित्रा लालगढ़ लालगढ़ के हालात पर चर्चा कर रहे हैं, अभी तक, उसके खनीज संपदा पर चर्चा नहीं हुई है। ((हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लालगढ़ में हिंसा तब भड़की जब राज्य के मुख्यमंत्री जिंदल स्टील प्लांट की फैक्टरी का उद्घाटन करने पहुंचे। और जहां स्टील की फैक्टरी लगाई जा रही हो क्या लौह अयस्क उससे बहुत दूर होगा?)) लोगों के गुस्से का रिश्ता वहां मौजूद भीषण गरीबी और दशकों से पुलिस और सीपीएम के हथियारबंद गिरोहों की दमनात्मक कार्रवाई से है। पश्चिम बंगाल में तीस साल से अधिक समय से सीपीएम की सरकार है।
तब भी, सिर्फ तार्किक नज़रिये से हम यह सवाल नहीं पूछें कि हजारों हजार की संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बल लालगढ़ में क्या कर रहे हैं और यह मान लें कि माओवादी दुस्साहसी हैं – तो भी यह पूरी तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा होगा।
वास्तविक समस्या यह है कि भारत का चमत्कारिक विकास उड़ान अब धरती पर आ गिरा है। इस उड़ान के लिए हमने पर्यावरण और सामाजिक लिहाज से बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। और अब, नदियां सूख रही हैं, जंगल ख़त्म हो रहे हैं, भू जल स्तर गिर रहा है और लोगों को यह अहसास होने लगा है कि उन्होंने प्रकृति के साथ जो किया है अब वही उनके साथ होगा। पूरे देश में उथल-पुथल है। सरकार के दावों पर लोगों को यकीन नहीं। अचानक ऐसा लगने लगा है कि दस फीसदी की विकास दर और लोकतंत्र दोनों एक साथ नहीं चल सकते।
पहाड़ियों से बॉक्साइट हासिल करने के लिए, जंगल से लौह अयस्क निकालने के लिए, भारत के 85 फीसदी आबादी को गांव से बाहर निकाल कर शहरों में ठूंसने के लिए (चिदंबरम ने कहा है कि यह उनका सपना है कि देश की 85 फीसदी आबादी शहरों में रहे)) भारत को एक पुलिस स्टेट बनना होगा। सरकार को सैन्यीकरण करना होगा। सैन्यीकरण को जायज ठहराने के लिए उसे एक दुश्मन की ज़रूरत है। माओवादी वही दुश्मन हैं। हिंदू कट्टरपंथियों के लिए मुसलमान जो हैसियत रखते हैं, कॉरपोरेट कंट्टरपंथियों के लिए माओवादियों की हैसियत वही है? (अगर कंट्टरपंथियों की कोई जमात होती है तो… शायद यही वजह है कि आरएसएस इन दिनों पी चिदंबरम के गुणगान में जुटा है?)
अगर कोई यह सोच रहा है कि राजनांदगांव एयरफोर्स बेस का निर्माण, बिलासपुर में ब्रिगेड हेडक्वार्टर, गैरकानूनी गतिविधि विरोधी कानून, छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट और ऑपरेशन ग्रीन हंट जंगलों से कुछ हज़ार माओवादियों को बाहर निकालने के लिए हैं तो वह बहुत बड़ी ग़लती कर रहा है। ऑपरेशन ग्रीन हंट से जुड़ी हर बहस में मुझे आपातकाल की आहट नज़र आती है। (यहां बड़ा सवाल यह है कि – अगर कश्मीर की छोटी सी घाटी को कब्जे में रखने के लिए 6 लाख सैनिकों की ज़रूरत पड़ रही है तो दंडकारण्य के विस्तृत पहाड़ी और जंगली इलाकों में कितने सैनिकों की ज़रूरत होगी?))
इसलिए हाल ही में गिरफ़्तार किए गये माओवादी नेता कोबाड गांधी का नार्को टेस्ट कराने की जगह बेहतर होगा कि उनसे बात की जाए।
इस बीच, इस साल के आखिर में कोपेनहेगन में होने वाले क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने जा रहे लोगों में से क्या कोई यह सवाल उठाएगा कि – क्या हम बॉक्साइट को उन्हीं पहाड़ियों में नहीं छोड़ सकते हैं?
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