Saturday, September 29, 2007

घुघूती और अजित जी, वे जनता से कटे हुए लोग हैं...

मेरे कटरा बी आर्ज़ू पर की गयी पोस्ट पर जो प्रतिक्रियाएं आयीं, मुझे लगा कि उनके जवाब में एक पोस्ट ही दे मारा जाये. हाज़िर है. पहले प्रतिक्रियाएं, जिनके जवाब देने की कोशिश की है मैंने.

Mired Mirage said...

कोई भी तंत्र हो यदि जनता, विशेषकर पत्रकार सजग न रहें तो इससे पहले कि हम समझें और संभले हमारे अधिकार छीन लिए जाएँगे । ऐसे में लेखक हमें पहले से ही आगाह कर सकते हैं ।
यह पुस्तक पढ़ी नहीं है, अवसर मिलते ही पढ़ूँगी ।
घुघूती बासूती


अजित said...

ठीक कहते हैं। मैं राही साहब के समूंचे गद्य साहित्य का भी प्रशंसक हूं। कटरा बी आर्ज़ू का जवाब नहीं। आपने जो जो बातें रेखांकित की हैं सब से सहमत हूं। कहां गए ऐसे लोग ? अब क्यों नहीं ऐसा लिखा जाता ?

आप सबकी प्रतिक्रियाएं जान कर अच्छा लगा. हां, मैं प्रतिक्रिया बहुत देर से दे रहा हूं.
घुघूती जी
लेखक-पत्रकार तभी घटनाओं के बारे में पहले से बता सकते हैं जबकि वे समाज के तमाम अंतर्द्वंद्वों को साफ़-साफ़ समझ सकते हों, चीज़ों को आपस में जोड़ कर देखने की उनके पास नज़र हो और घटनाओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करने की समझ हो. कई लेखक ऐसे रहे हैं कि उन्होंने कमाल की भविष्यवाणियां की हैं. नहीं मैं ज्योतिषवाली भविष्यवाणी की बात नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य की दिशा के बारे में कह रहा हूं. इसमें जैक लंडन का नाम शायद सबसे पहले लिया जायेगा. उन्होंने 1908 के अपने उपन्यास आयरन हील में जिस तरह की घटनाओं का ज़िक्र किया है वे बाद में, 1936 तक और उसके बाद तक घटीं. अगर आप देखें तो सोवियत क्रांति, लेनिन जैसे नेता, हिटलर जैसे फ़ासिस्ट और अमेरिकी खुफ़िया पुलिस के गठन जैसी अनेक परिघटनाएं बाद में जो घटीं, उनके बारे में साफ़ साफ़ ज़िक्र आयरन हील में किया गया है. यह किसी चमत्कार के ज़रिये नहीं हुआ और न ही आयरन हील एक फैंटेसी है. यह बेहद यथार्थवादी उपन्यास है. एक कम्युनिस्ट क्रांति इसका विषय है. इसी तरह शोलोखोव के उपन्यास एंड क्वायट फ़्लोज़ द डोन के बारे में भी कहा जा सकता है, जिसमें सोवियत संघ के विघटन के सूत्र आसानी से तलाशे जा सकते हैं.
अजित भाई
आपके सवाल का जवाब भी शायद इसी में है. मुझे लगता है कि हमारे देश के अधिकतर समकालीन फ़िक्शन लेखकों के पास वह नज़र या समझ ही नहीं है, भले ही उनके साथ वामपंथी या प्रगतिशील या कम्युनिस्ट होने का टैग लगा हुआ हो. टैग लगा लेने से कोई वही नहीं हो जाता. एक और बात है कि हमारे यहां केवल सांप्रदायिक नहीं होने या इसका विरोधी होने भर से लेखक को वाम या प्रगतिशील लेखक मान लिया जाता, भले ही उसके सोच में सामंती तत्व बने हुए हों और वह उतनी सूक्ष्मता से न सोच-देख पाता हो. भ्रम इसलिए भी बनता है. इसके अलावा हिंदी लेखक जगत में एक बडी़ कमी यह है कि लेखक किसी आंदोलन से जुडे़ हुए नहीं हैं. वे पूरी तरह जनता के संघर्षों से कटे हुई हैं. उन्हें कई बार ज़मीनी हालात का पता भी नहीं होता और वे सिर्फ़ दिल्ली और दूसरे शहरों में बैठ कर बस लिखते रहने को अपने आप में एक महान कार्य समझते हैं. ऐसे में जो हो सकता है वही उनके साथ हो रहा है. न उनके पास वैसी रचनाएं हैं और पाठक.

हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली : भगत सिंह और आज का भारत

दखलवाले मित्र चंद्रिका ने हमें यह आलेख बहुत पहले भेजा था. हमने सोचा था कि इसे 28 को पोस्ट किया जायेगा. पर पटना में बारिश ने इस तरह के रंग दिखाये कि दिन-दिन भर या तो बिजली गायब रही याइंटरनेट कनेक्शन ठीक से काम नहीं कर पाया. इसलिए इसमें देर हुई. फिर भी, चंद्रिका ने जो सवाल उठाये हैं, वे मौजूं हैं और हमें उन पर सोचने की ज़रूरत है.

चंद्रिका
हर बार की तरह इस बार भी 28 सितंबर को भगत सिंह का जन्म दिवस मनाया जायेगा. स्कूलों में बच्चे भगत सिंह की तरह हैट पहन कर आयेंगे, जिस पर लिखा रहेगा 'आइ मिस यू भगत सिंह,! उनकी प्रतिमा के बगल में लाल झंडे टांग कर नेता चिल्लाते हुए बतायेंगे कि भगत सिंह ने संसद में बम क्यों फोड़ा, दूसरे दिन कुछ और सेज परियोजनाओं की मंजूरी पर हस्ताक्षर किये जायेगें. विचार-गोष्ठी में यह बताया जायेगा कि भगत सिंह आम जनता की आजादी चाहते थे, कुछ लोगों को नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार किया जायेगा, अखबारों में छपेगा कि भगत सिंह, छुआछूत, धर्म, जाति की संकीर्णता को दूर करना चाहते थे, नीचे के कालम में किसी दलित को मंदिर में घुसने के कारण पीट-पीट कर मार डालने की खबर रहेगी. जन्म दिवस मनाने के बाद भगत सिंह की प्रतिमा को किसी कमरे में रख दिया जायेगा और गांधी के जन्म दिवस की तैयारी शुरू कर दी जायेगी. यह एक परंपरा रही है.

दुनिया के सामने भगत सिंह का जो चेहरा जाने-अनजाने में रखा गया है वह किसी जुनूनी व मतवाले देशभक्त का है. भगत सिंह के विचार, उनके दर्शन को लोगों से दूर रखा गया पर वक्त ने देश को उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहां भगत सिंह के विचार और प्रासंगिक होते दिख रहे है. जिस आम जन की बात भगत सिंह करते थे वह मंहगाई, गरीबी, भूख से पीड़ित होकर अपने को हाशिये पर महसूस कर रहा है. वह देश में बनाये गये कानूनों, नियमों की पक्षधरता को देखते हुए उनके प्रतिरोध में खड़ा हो रहा है.
देश को अंगरेजी सत्ता से मुक्त होने के 60 साल बाद भी देश का आम जन उस आजादी को नहीं महसूस कर पर रहा है, जो भगत सिंह, पेरियार, आंबेडकर का सपना था. आज वे स्थितियां, जिनका भगत सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय आकलन किया था, लोगों के सामने हैं. आंदोलन के चरित्र को देखते हुए भगत सिंह ने कहा था कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आजादी की लडाई लड़ी जा रही है, उसका लक्ष्य व्यापक जन का इस्तेमाल करके देशी धनिक वर्ग के लिए सत्ता हासिल करना है. यही कारण था कि देश का धनिक वर्ग गांधी के साथ था. उसे पता था कि जब तक देश को अंगरेज़ी सत्ता से मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक बाजार में उसका सिक्का जम नहीं सकेगा. आखिरकार हुआ भी वही, जिसे भगत सिंह गोरे अंगरेजों से मुक्ति व काले अंगरेजों के शासन की बात करते थे. आज आम आदमी इस शासन तंत्र में अपनी भागीदादी महसूस नहीं कर रहा है. उसके लिए आज भी अंगरेजों द्वारा दमन के लिए बने नियम-कानून नाम बदल कर या उसी स्थिति में लागू किये जा रहे हैं. आजादी के 60 वर्ष बाद सरकार को एफ़्स्पा, पोटा, राज्य जन सुरक्षा अधिनियम जैसे दमन कानूनों की जरूरत पड़ रही है, क्योंकि जन प्रतिरोध का उभार लगातार बढ़ रहा है.
आजादी के बाद कई मामलों में स्थितियां ओर भी विद्रूप हुई हैं. जहां 42 में केरल के वायनाड जिले में इक्का-दुक्का किसानों की मौतें होती थीं, वहां आज स्थिति यह है कि देश के विभिन्न राज्यों में हजारों हजार की संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. आज भी देश में कालाहांडी जैसी जगह है, बल्कि काला हांडी से एक कदम ऊपर देश की एक बड़ी आबादी है, जो जीवन की मूलभूत जरूरतों से जूझ रही है. जो इसलिए भी जिंदा रखी गयी है ताकि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये वह सस्ते में श्रम को बेच सके. इसके बावजूद आज एक बड़े युवा वर्ग के लिए करने को काम नहीं है. इस कारण वह किसी भी तरह का अपराध करने को तैयार है. भारत एक बड़ी युवा संख्या की विकल्पहीन दुनिया है.
ऐसी स्थिति में यह बात सच साबित होती है कि भगत सिंह जिस आजादी की तीमारदारी करते थे वह आजादी देश को नही मिल पायी है. भगत सिंह देश, दुनिया को लेकर एक मुकम्मल समाज बनाने का सपना देखते थे, जिसमें वे अंतिम आदमी को आगे नहीं लाना चाहते थे, बल्कि सबको बराबरी पर लाना चाहते थे. जहां जाति, धर्म, भाषा के आधार पर समाज का विभाजन न हो. वे शोषण व लूट-खसोट पर टिके समाज को खत्म करना चाहते थे, वे किसी प्रकार के भेदभाव को खारिज करते थे. उनका मानना था कि दुनिया में अधिकांश बुराइयों की जड़ निजी संपत्ति है. इस संपत्ति को शोषण व भ्रष्टाचार के जरिये जुटाया जाता है, जिसकी सुरक्षा के लिए शासन की जरूरत पड़ती है. यानी निजी संपत्ति के ही कारण समाज में शासन की जरूरत पड़ती है.
एक लंबे अरसे तक भगत सिंह को आतंकी की नजर से देखा जाता रहा, जिसको भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श करते हुए कहा कि मैं आतंकी नहीं हूं. आंतकी वे होते हैं, जिनके पास समस्या के समाधान की क्रांतिकारी चेतना नहीं होती. क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति ही आतंकवाद है, पर क्रांतिकारी चेतना को हिंसा से कतई नहीं जोड़ा जाना चाहिए, हिंसा का प्रयोग विशेष परिस्थिति में ही करना जायज है, वरना किसी जन आंदोलन का मुख्य हथियार अहिंसा ही होनी चाहिए. हिंसा-अहिंसा से किसी व्यक्ति को आतंकी नही माना जा सकता. हमें उसकी नीयत को पहचानना होगा, क्योंकि यदि रावण का सीताहरण आतंक था तो क्या राम का रावण वध भी आतंक माना जाये? अपने अल्पकालिक जीवन के दौरान भगत सिंह ने कई विषयों पर लिखा, पढ़ा व सोचा समझा, और यह कहते गये कि-
हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली.
ये मुस्ते खाक है फानी रहे, रहे न रहे...

Thursday, September 20, 2007

मुम्बई से लौटते उदास चेहरों की दास्ताँ

प्रभात
बीस साल हुए जब प्रभात बरेली मे अमर उजाला के दफ्तर गए फोटोग्राफर बनने और बन गए अखबारनवीस । बरेली संस्करण मे सम्पादकीय के सभी विभागों मे काम किया, रिपोर्टिंग से लेकर रविवारीय पन्ने के संपादन तक। लेकिन, फोटोग्राफी की लत थी कि बढती ही गई । जितना घूमा या फिर लिखा, उसके मूल मे वजह तसवीरें उतारना ही रहा। आजकल दैनिक जागरण के नए अखबार आई नेक्स्ट के लिए काम कर रहे हैं । बजार के लिए उन्होने ये लेख अपनी किताब "आज के दौर की अखबारनवीसी " से दिया है ।



मुम्बई से आने वाली रेलगाड़ियों मे इन दिनों फैज़ाबादियों की तादाद बढ़ गई है। गर्मियों की शुरुआत के साथ पूर्वांचल लौटने वाले यों भी ज्यादा होते हैं। ब्याह - गौने के दिन जो शुरू होने वाले हैं। मगर इन चेहरों पर उत्साह का कोई उल्लास नही, सफ़र की थकान भी नही, सब कुछ छीन लिए जाने की उदासी दिखती है। मुम्बई पुलिस इन दिनों नाईट क्लबों -बियर बार को लेकर अचानक सख्त हो गई है। रोज़ रोज़ छापे , गिरफ्तारियां , नए नए कायदे-निर्देश। इन बंधनों ने उनसे उनकी रोज़ी छीन ली। तारून के बेलगरा, तकमीनगंज,मामगंज, और रसूलाबाद जैसे इलाकों से मुम्बई गए तमाम कुनबे लॉट आये हैं। मुम्बई के नई 'नैतिकता' के मारे इंसानी चहरे , नाचने गाने के बहाने सनातन इंसानी फितरत मे अपनी बेहतरी तलाशते चिचुक गए चहरे। हाथ, गले और उँगलियों की सुनहरी चमक उनकी पेशानी की रेखाओं पर कोई असर नही डालती। कल क्या होगा, किसी को अंदाज़ नही। अब देखा जाएगा दो चार महीने बाद।

बेलगरा बाज़ार से आगे जाती सड़क के किनारे खडे सेमल के उंचे पेड़ों से उतरकर आँचल फैलाती शाम , साईकिल के कैरियर पर बैठी वह युवती एक झटके से उतरकर घर के सामने पडी चारपाई पर बैठ जाती है। सवालिया निगाहों से ताकती है और फिर दूसरी तरफ मुह करके पान की पीक थूकती है। उस घर को देखकर एकबारगी किसी को अंदाज़ नही होगा कि मुम्बई की चकाचौंध भरी दुनिया से भी इसका कोई नाता हो सकता है। मगर सच तो यही है। माया मुम्बई मे रहती हैं अपनी बेटी खुशबु के साथ। गहनों से लदी स्थूलकाय महिला मीना हैं, उनकी बहन। थोड़े संकोच के साथ शुरू हुई पूरी बातचीत मे मुम्बई के कारोबार की असलियत अप्रत्यक्ष रुप से बनी रही। शुरुआत की माया की बुआ रामवती ने जो एक जमाने मे थियेटर कम्पनी मे अभिनय करती और गाती भी थी। बनारस मे बाकायदा उस्ताद शुकरुल्ला से तालीम और फिर थियेटर की बाइज़्ज़त नौकरी। मगर तब का ज़माना और था, रियासतें थीं , जमींदार थे सो ऎसी तंगी नही थी। माया मुम्बई मे हाजी अली के पास एक बियर बार मे काम करती थी। काम यानी डांस। पिछले महीने किसी होटल मे किसी नेता को पीट दिया गया और फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ। कार्निवल बार, जहाँ वह काम करती थी, बंद हो गया। काम के बारे मे पूछने पर बताती हैं कि नाच गाना और क्या। कभी किसी ने पूछ लिया कि जूस पीने चलोगी तो चले जाते हैं। वहीँ हज़ार पांच सौ दे देता है। फिर होटल मे बुलाता है। यही है कुल जिंदगी। फारस रोड पर चिक्कलबाड़ा की एक चाल, जिसमे एक ही कमरे मे बाथरूम और रसोई सब कुछ और बार की जगमग रातें। यहाँ लौट आने पर मुम्बई बहुत याद आता है उन्हें। क्या मुम्बई की सुबह ! 'कहॉ का सवेरा बाबू। रात भर तो हाड तोड़ते -जागते हैं , कब सुबह हो जाती है पता ही नही चलता। फिर लौटकर दिन भर सोते हैं' बताती हैं माया। उन्हें अफ़सोस है कि अपनी बेटी के लिए कुछ नही कर पाई । फिरोजी रंग की पोशाक मे घर के अन्दर बाहर घूमती वह किशोरी भी उनके साथ बार मे जाने लगी थी। हाव भाव मे ग्राम्य परिवेश से अलग होने की अभिजात किस्म की झलक। पुलिस ने कह दिया है कि २१ साल से कम की युवतियाँ अब बार मे डांस नही करेंगी। सो उसका आसरा भी गया। यों और करे भी तो क्या, उसे पढ लिखा नही पाई। बेटा है जो यहीं रहकर पढता है।

बताती हैं कि एक भाई को पढ़ाया लिखाया , दूसरे भाई-भाभी और बहन को भी देखती है। ये सब यहीं गाँव मे ही रहते हैं। कई बार मन करता है कि कुछ और जमीन खरीदकर यहीं गाँव मे ही रह जाएँ मगर हो नही पाता। यह मुम्बई की कशिश है जो बार बार खींच ले जाती है। माया को पछतावा है , मुम्बई से लौट आने का नही, इस पेशे मे आने का। कहती हैं कि अब न तो पैसा है और ना ही इज़्ज़त रह गई है इस पेशे मे। फिर भी यही क्यों ! माया का जवाब बाक़ी सारे सवालो को खामोश कर देता है। ' इस पेशे मे सबको तलाश है एक एसे शख्स की जो अपना लेगा, ढ़ेर सारा पैसा देगा और अपना नाम भी। इज़्ज़त की इसी जिंदगी की तलाश मे जाने कितनी जिंदगियां गर्क हो जाती हैं। मगर आस है कि पीछा ही नही छोडती।' यह सेलयुलायड का 'चांदनी बार' नही, जिंदगी है, जहाँ विडम्बनाएँ हैं , विद्रूपता है और विरोधाभास ऐसे कि फिल्मी कहानी फिस्स हो जाए ।

Saturday, September 1, 2007

कटरा बी आर्ज़ू और आज का लोकतंत्र

टरा बी आर्ज़ू जब पहली बार मैंने पढ़ना शुरू किया था तो यह मुझे साधारण से मुहल्ले की कहानी लगी थी-जैसा हर मुहल्ला होता है. राही साहब की पाठकों से सीधे एक रिश्ता बना लेने और अपने पाठ के बारे में एक विश्वसनीयता कायम कर लेने की खासियत के चलते मुझे उनके उपन्यास बेहद प्रिय रहे. इस उपन्यास के साथ भी यही हुआ. जैसे ही थोडा़ आगे बढे़, पाया कि हम एक कुचक्र के गवाह बनने जा रहे हैं-जो हमारे सामने कई दशकों से रचा जा रहा है. अंततः वह कुचक्र इमरजेंसी के रूप में हमारे सामने आया.

कटरा बी आर्ज़ू शायद पहला हिंदी उपन्यास है जो देश की संसदीय प्रणाली और लोकतंत्र के बारे में भ्रमों को इतनी स्पष्टता से दूर करता है. अब भी अनेक लोग मिल जायेंगे, जो यह विश्वास करते हैं कि संसद के होते हुए, न्यायपालिका के होते हुए और फिर मीडिया के होते हुए हम पर फ़ासिज़्म थोपा नहीं जा सकता. मगर इमरजेंसी और कुछ नहीं थी सिवाय फ़ासिज़्म के. उन काले दिनों के बारे में बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है. आपातकाल संसद के ज़रिये ही लगाया गया था. और तब न तो मीडिया और न न्यायपालिका की कुछ खास कर पाये थे.
आज भी वैसे ही हालात हैं. बल्कि उससे बदतर. और अब तो आपातकाल की भी कोई ज़रूरत नहीं रही. संसद चलती रहती है, अदालतों में रोज़ इजलास बैठती है, अखबार हैं, चैनल हैं और गुज़रात में हज़ारों अल्पसंख्यकों को कत्लेआम से नहीं बचाया जा सका, आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से खदेडा़ जा रहा है और कोई उनकी नहीं सुनता, नर्मदा घाटी के हज़ारों परिवारों को उनके घरों से खदे़ड़ दिया गया है, उनके लिए पुनर्वास की कोई व्यवस्था किये बगैर उनके घर डुबा दिये गये हैं. विरोधियों के लिए जेलें और पुलिस की गोलियां हैं, दमन के तमाम उपाय हैं. क्या आपतकाल में इससे अलग कुछ होता है?
और ऐसे में याद आता है ज़र्मनी का अतीत. हिटलर भी संसद के ज़रिये ही सत्ता में आया था. तो संसद ऐसी चीज़ नहीं है कि उससे आश्वस्त हुआ जाये, और अदालतें, और मीडिया...

और ऐसे में राही मासूम रज़ा के कटरा बी आर्ज़ू की याद आती है... जो हमें बताता है कि सपने कैसे कुचल दिये जाते हैं, और लोगों के मुंह से रोटियां कैसे छीन ली जाती हैं, और यह कि एक जनविरोधी व्यवस्था कभी लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक नहीं हो सकती, भले ही वह लोकतंत्र के स्थूल उपादानों जैसे संसद, संविधान आदि को बने रहने दे. राही का यह उपन्यास इमरजेंसी के बहाने देश को मिली आज़ादी के छद्म को भी उजागर करता है.