Tuesday, July 21, 2015

आबे हयात से एक पाठ

''संस्‍कृत की इतनी रक्षा की गई, फि‍र भी मनु-स्‍मृति जो वेदों के संपादन से कई सौ वर्ष बाद लि‍खी गई, उसमें और वेदों की भाषा में बड़ा स्‍पष्‍ट अंतर है और अब समय बीतने पर यह अंतर और भी अधि‍क हो गया है। लेकि‍न क्‍योंकि‍ राज्‍य और प्रामाणि‍क ग्रंथों पर धर्म का चौकीदार बैठा था, इसलि‍ए हानि‍ का अधि‍क भय न था कि अकस्‍मात 543 ई.पू. में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक शाक्‍य मुनि‍ का जन्‍म हुआ जो मगध देश से उठे थे। इसलि‍ए वहीं की प्राकृत में धर्मोपदेश प्रारंभ कि‍या, क्‍योंकि‍ अधि‍कतर काम जनसाधारण से था और स्‍त्री-पुरुष से लेकर बच्‍चे और बूढ़े तक, सब यही भाषा बोलते थे। उनके ओजस्‍वी वक्‍तव्‍यों से उक्‍त धर्म ऐसा फैलना प्रारंभ हुआ जैसे जंगल में आग लगे। देखते-देखते धर्म, राज्‍य, समाज, रीति‍-रि‍वाज, धर्म-वि‍धान सबको जलाकर भस्‍म कर दि‍या और मगध देश की प्राकृत समस्‍त राज-दरबार और समस्‍त कार्य की भाषा हो गई। प्रताप के यश से वि‍द्या एवं कला में भी ऐसी उन्‍नति‍ हुई कि थोड़े ही दि‍नों में अद्भुत ग्रंथों की रचना हो गई और इसी भाषा में वि‍द्याओं एवं कलाओं के पुस्‍तकालय सज गए और कलाओं की रचना शालाएं खुल गईं। कहीं कोने बि‍चाले में जहां के राजा वेद को मानते रहे, वहां वेदों का प्रभाव रहा। अन्‍य राज दरबार और वि‍द्वत परि‍षद सब मागधीमय हो गए। इसके व्‍याकरण की पुस्‍तकें भी रची गईं। ईश्‍वर की लीला देखो जो दासी थी वह रानी बन बैठी और रानी मुंह छि‍पाकर कोने में बैठ गई।
काल ने अपनी प्रकृति‍ के अनुसार (लगभग 1500 वर्ष के बाद) बौद्ध धर्म को भी ति‍लांजलि‍ दी और उसके साथ उसकी भाषा भी ति‍लांजलि‍त हुई। शंकराचार्य के प्रताप से ब्राह्मणों का डूबा हुआ सि‍तारा फि‍र से उभरकर चमका और संस्‍कृत की मान-मर्यादा पुन: प्रारंभ हुई। राजा वि‍क्रमादि‍त्‍य के युग में जो अाभा उसके प्रसाद स्‍वरूप मि‍ली, वह आज तक लोगों की आंखों का उजाला है। इससे भी यही सि‍द्ध होता है कि राज-दरबार और प्रति‍ष्‍ठि‍त लोग संस्‍कृत बोलना प्रामाणि‍कता एवं गौरव का आधार मानते थे और प्राकृत जनसाधारण की भाषा थी, क्‍योंकि इस युग में महाकवि‍ कालीदास ने शकुंतला नाटक लि‍खा है। सभा में देख लो--राजा, सामंत और पंडि‍त संस्‍कृत बोल रहे हैं। कोई सामान्‍य-जन कुछ कहता है, तो प्राकृत में कहता है। संस्‍कृत और मूल फारसी अर्थात जिंदवस्‍ता की भाषा आर्य होने के बाद एक पि‍तामह की संतानें हैं, किंतु समय का संयोग देखो कि ईश्‍वर जाने कि कि‍तने सौ वर्ष या कि‍तने हजार वर्ष की बि‍छुड़ी हुई बहनें, इस दशा में आकर मि‍ली हैं कि ऐ-दूसरे की शक्‍ल नहीं पहचान सकतीं।''
पृ-3-4
आबे हयात, आब-ए-हयात, aabehayat, aabe hayat, aab-e-hayat 

भाषा क्‍यों बि‍गड़ती है? अपभ्रष्‍ट होती है?

प्रश्‍न है- भाषा क्‍यों बि‍गड़ती है? अपभ्रष्‍ट होती है?
इसके कारण ऐति‍हासि‍क और भौगोलि‍क हैं। अपभ्रंश का अर्थ (सामान्‍य रूप में) कि‍सी भी भाषा के बि‍गड़े हुए रूप से लि‍या जा सकता है। इस दृष्‍टि‍ से डा. श्रीधर व्‍यंकटेश केतकर ने अनेक उदाहरण दि‍ए हैं।
''वे (पारसी लोग) लोग शुद्ध गुजराती नहीं बोलते, अपि‍तु गुजराती का एक अपभ्रंश बोलते हैं। उन्‍हें आज भी 'ळ' का उच्‍चारण करना नहीं आता। जब कुछ लोग अपनी भाषा-रक्षण में पूरी तरह समर्थ नहीं होते; फि‍र भी वे एकत्रि‍त रूप में (साहचर्य में) रहते हैं, तब उनकी भाषा स्‍थानीय न होकर पैतृक एवं स्‍थानीय, दोनों में से कि‍सी एक का अपभ्रंश होती है। जि‍प्‍सी लोगों ने अपनी भाषा जीवि‍त रखी और पारसि‍यों ने उसे मृत होने दि‍या। ऊपर-ऊपर से ऐसा ही प्रतीत होता है किंतु गहराई से अवलोकन करें तो प्रतीत होगा कि‍ पारसि‍यों को जि‍प्‍सि‍यों की अपेक्षा परदेश में अधि‍क काल तक रहना पड़ा है। ... और जि‍प्‍सी भाषा के जि‍प्‍सी स्‍वरूप की रक्षा हो जाना और पारसी भाषा के पारसी स्‍वरूप का लुप्‍त होना, इसमें बहुत अंतर नहीं है। अर्थात स्‍वभाषा रक्षण में जि‍प्‍सी पारसी लोगों से अधि‍क सफल हो गए, ऐसा मानने की आवश्‍यकता नहीं। क्‍योंकि जि‍प्‍सि‍यों ने भी अपनी भाषा की वाक्‍यरचना बदल दी है और उसे अंग्रेजी का स्‍वरूप दि‍या है।
जब भी दो भि‍न्‍न भाषाओं का सन्‍नि‍कर्ष होता है तो बलवान भाषा की रचना का स्‍वरूप बना रहता है किंतु दुर्बल राष्‍ट्र उस रचना के स्‍वरूप को स्‍वीकार कर लेता है, केवल अपने शब्‍द अपने रख पाता है, ऐसा प्रतीत होता है। संक्षेप में यदि‍ मनुष्‍य के समुदायों का इति‍हास लि‍खना हो तो उस भाषा के वि‍कृत रूप (अपभ्रंश रूप) का साहि‍त्‍य भी महत्‍वपूर्ण मानना चाहि‍ए। क्‍योंकि उसकी सहायता से हमें लुप्‍त मानव इति‍हास का ज्ञान होता है। और वि‍शेष रूप से मानवी समुच्‍चयों की घटनाओं के वि‍घटन का इति‍हास मालूम होता है। उसके आधार पर जाति‍यों की भ्रमणशील प्रवृत्‍ति‍यों का भी बोल होता है।''
पृष्‍ठ- 103-04

Sunday, July 19, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे- 14

फि‍र वही। फि‍र से वही सपना। बदलता भी नहीं, रुकता, संभलता या थोड़ी दूर कहीं टहलता भी नहीं। आता है तो आता रहता है, बार बार। एक ही वक्‍त में कई खि‍ड़कि‍यां, कई रोशनदानों से सीधा घुसा चला आता। साथ में इतना उजाला लाता कि गहरी नींद में भी नींद खुल जाए। आदमी परेशान था। हर रोज बगैर कि‍सी इजाजत या मुरव्‍वत के ये सपना उसे लगातार आता जा रहा था। एक ही चीज बार बार दि‍खती थी। हर बार नींद तोड़कर जाती थी। कि‍सी तरह का नशा हो, थकान हो, मरन हो लेकि‍न सपना था कि पीछा ही नहीं छोड़ता था। बार बार इसका आना अभी तक आदत नहीं बन पाया था। वैसे आदमी इसके आने के हरएक रास्‍ते से पूरी तरह वाकि‍फ था। हर रात तीन से चार बार ये आता और आदमी पैर पर पैर मसलते हुए करवट बदलते हुए आधी नींद तक पहुंचता और फि‍र परेशान होकर आधी बची नींद भी पैताने से धीरे से मसल देता। असल में मसल तो सपना रहा था। नींद को या आदमी को, ये भी आदमी अच्‍छी तरह से जानता था। 

सपना असल में सपना ही था। सबकुछ उसमें उड़ता था। घास, पत्‍ति‍यां, कपड़े, दुपट्टे, रूमाल, टोपि‍यां, आवाजें, झंडे, कुर्सियां, कंप्‍यूटर, माउस, ब्राउजर, बाल, खुशबू, उजाला, धूप... सबकुछ उड़ता था और आकर आदमी के चेहरे पर दस्‍तक देता रहता, अक्‍सर तो थपेड़े लगाता रहता। हर दस्‍तक पर वही बेचैनी, हर थप्‍पड़ पर वही बेहोशी और हर अंधेरे में वही खुशबू। एक आवाज सुनाई देती जो 'हूं' से ज्‍यादा न होती, पर होती तो दो तीन बार होती। कभी उड़ान ज्‍यादा गहरी होती तो कभी आवाज भारी होती जाती। कभी बाल चेहरे पर आए पसीने से चि‍पक जाते तो कभी उड़कर खुशबू फैलाते। सपने की वो खुशबू आदमी को नींद के उसी ढलान पर लाती, जहां से वो न फि‍सलना चाहकर भी फि‍सलकर गि‍र पड़ता। हर बार वही आवाज, हर बार वही दस्‍तक, हर बार वही बेचैनी और बेहोशी, हर बार वही खुशबू। आदमी जानता था कि खुशबुएं कैसे बदलती हैं, दस्‍तकों की आवाज कैसे कम होती है, बेचैनी और बेहोशी कैसे खपती हैं और... और सपने कैसे बदलते हैं। 

आदमी कि‍तना कुछ तो जानता है जो औरत बताती रहती थी। न जाने क्‍या क्‍या... वो बातें उसके सपने में नहीं आतीं।

Monday, July 13, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे- 13

नि‍शान खो जाएंगे, बातें बह जाएंगी, रातें कट जाएंगी, दि‍न फि‍सलते रहेंगे, फूल सूखते रहेंगे और पेड़ भी, नदी बहती रहेगी और पानी भी ठहरकर सड़ता रहेगा, दि‍शाएं भी बदलती रहेंगी, दशाओं का कोई नामलेवा न होगा, फि‍र भी...

फि‍र भी आदमी होगा और औरत भी। वहीं पर रुके, ठहरे, ठि‍ठके, सि‍हरे, डरे-सहमे से ही, लेकि‍न होंगे और होते रहेंगे। आवेग अनायास ही नहीं होगा, उसके सायास कारण उसके होने का आधार होंगे और वो कि‍सी के होने न होने के इंतजार में न होंगे। औरत खोती जाएगी और बहती भी, आदमी डूबता और चुप होता जाएगा। समय के न तो उनमें कोई घाव होंगे न ही खरोंचों के कोई दूसरे नि‍शान। दोनों नहीं भी रहेंगे, तो भी ऐसा कुछ बचा नहीं रहेगा जो दोनों के होने या न होने की कहानी बयान करेगा। दोनों खो भी जाएंगे तो भी उन्‍हें न तो कोई खोजने वाला होगा और न ही कि‍सी की उन्‍हें खोजने में कोई दि‍लचस्‍पी होगी। दि‍लचस्‍पी जैसी कि‍सी चीज या भावना से दोनों पहले ही खुद को दूर कर चुकेंगे। इतनी दूर कि जहां क्षि‍ति‍ज भी न पहुंचता हो, जहां अंधेरा भी न पसर पाता हो, जहां उजाले की बरसात कि‍सी के सपने में भी न आती हो। उस दूरी पर भी दोनों दूर नहीं होंगे, न हो पाएंगे क्‍योंकि ये शाप ही ऐसा है कि जहां सपने न आते हों, वहां पर भी ये शाप सपनों की चौखट डांककर उन दोनों में पैवस्‍त होगा, अंदर तक... उतने ही अंदर तक, जि‍तनी कि दूरी होगी।

Friday, July 3, 2015

नतमस्तक मोदक की नाजायज औलादें (32)

प्रश्‍न: देशद्रोही...
उत्‍तर: सुनो भो*** के, तुम्‍हरे मुंह में गधे का लं*** मादर*** अगर ये शब्‍द बोले
प्रश्‍न: लेकि‍न मैनें तो पूछा..?
उत्‍तर: दें का तुम्‍हरी गां*** पे पचास लात?
प्रश्‍न: आप मुझे सवाल पूछने देंगे या नहीं?
उत्‍तर: तो भो*** के सवाल ही पूछो, ज्‍यादा झंटुआओ ना
प्रश्‍न: मेरा सवाल था?
उत्‍तर: नहीं भो*** के, पहि‍ले ये बताओ कि हमरा कुरता कैसा लग रहा है?
प्रश्‍न: सूती है?
उत्‍तर: लि‍नेन है। सुने कभो नाम। तुम भो*** के का सुने होगे? जिंदगी तो सुति‍ये पे कटी तुम्‍हरी
प्रश्‍न: खैर, मैनें पूछा देशद्रोही समझते हैं?
उत्‍तर: समझते भी हैं, समझाते भी हैं। समझाएं का?
प्रश्‍न: हां, समझाइए!
उत्‍तर: लाओ रे वि‍जयवा, वहीं कोने पे रखे हैं तेल लगा के। इनकी गां** में देते हैं, भक से समझेंगे
प्रश्‍न: शब्‍दों से ही समझाइये!
उत्‍तर: देशद्रोही ऊ सब जो हमरे भगवान का पूजा नहीं करता है
प्रश्‍न: भगवान राम?
उत्‍तर: वहू भी
प्रश्‍न: ओह.. अच्‍छा.. वो वाले!!
उत्‍तर: ये जो तुम्‍हरा ओह... अच्‍छा... है ना, दुबारा बोले तो वापस तुम्‍हरी गां** में घुसेड़ देंगे भो.. के
प्रश्‍न: आज आप काफी गर्म हैं?
उत्‍तर: तुम्‍हें देख के हमरी झां*** लाल हो जाती है बहिन***
प्रश्‍न: चलि‍ए, मुझे देख कुछ तो लाल होता है आपका!
उत्‍तर: लाल करना भी आता है हमको, समझे?
प्रश्‍न: संस्‍कार समझते हैं क्‍या होता है?
उत्‍तर: खूब समझते हैं लेकि‍न झां*** नहीं बताएंगे
प्रश्‍न: आपको लगता है कि आपमें हैं वो?
उत्‍तर: तो का सबको अपनी तरह कुसंस्‍कारी समझे हो बेटी***?
प्रश्‍न: आपके भगवान ने बेटी बचाओ अभि‍यान शुरू कि‍या है?
उत्‍तर: हां तो बचा रहे हैं ना
प्रश्‍न: कैसे?
उत्‍तर: कौनो भो*** का मादर*** हमारी बहू बेटि‍यों और माताओं बहनों की तरफ आंख उठा के देखे तो बताएंगे
प्रश्‍न: क्‍या बताएंगे?
उत्‍तर: उसकी मां चो*** देंगे बहि‍नचो** की।
प्रश्‍न: और?
उत्‍तर: पूरे घर में नाच नाच के सबका रेप न कि‍ए तो हम एक बाप की औलाद नहीं!
प्रश्‍न: आपने सेल्‍फी ली?
उत्‍तर: साढ़े तीन सौ लोड कर दि‍ए
प्रश्‍न: आपकी बच्‍ची है?
उत्‍तर: हां है
प्रश्‍न: बड़ी है?
उत्‍तर: हां है
प्रश्‍न: उसके बाद एक और बच्‍ची है?
उत्‍तर: हां तो?
प्रश्‍न: उसके बाद क्‍या आपको कोई लड़का है?
उत्‍तर: हां है, लेकि‍न भो*** के तुम ये सब काहे पूछ रहे हो?
प्रश्‍न: कुछ नहीं। खैर, बहि‍न हैं आपकी?
उत्‍तर: तुम्‍हारी कि‍तनी बहि‍नें हैं?
प्रश्‍न: सवाल मैनें पूछा!
उत्‍तर: क्‍या उम्र क्‍या है उनकी?
प्रश्‍न: देखि‍ए...
उत्‍तर: क्‍या देखि‍ए बहि‍नचो***? हम पूछ रहे हैं तो लग रही है?
प्रश्‍न: अच्‍छा एक बात बताइये?
उत्‍तर: क्‍या?
प्रश्‍न: क्‍या कभी आपने दूसरी आइडी बनाई?
उत्‍तर: तुमको काहे बताएं बे?
प्रश्‍न: तो कि‍से बताएंगे?
उत्‍तर: जि‍से बताना होगा उसे बताएंगे, तुमको काहे बताएं?
प्रश्‍न: कि‍से बताना होता है?
उत्‍तर: कि‍सी को भी बताना होता है, तुमको काहे बताएं भो*** के?
प्रश्‍न: मतलब कोई है?
उत्‍तर: क्‍या मतलब कोई है?
प्रश्‍न: कुछ नहीं, कि‍सी और के साथ सेल्‍फी लि‍ए?
उत्‍तर: तुमको काहे दि‍खाएं बेटी***?? चार गांव गाओगे!!
प्रश्‍न: अरे मैं कि‍सी से न कहूंगा!
उत्‍तर: अच्‍छा देखो, ये वाली.. है ना माल
प्रश्‍न: ये कौन है?
उत्‍तर: पिछले बिफ्फय को यही थी
प्रश्‍न: मतलब?
उत्‍तर: ज्‍यादा मतलब पूछो कि बताएं हाल झारखंडी का?
प्रश्‍न: और उसके पीछे वाली के साथ भी ली थी?
उत्‍तर: हां, देखो, इसका गाल का ति‍ल एकदम्‍मे मादर*** है ना?
प्रश्‍न: बेटी कैसे बचाएंगे?
उत्‍तर: सबकी मां चो*** के बचाएंगे, कैसे भी बचाएंगे लेकि‍न बचाएंगे
प्रश्‍न: फिर भी, कोई प्‍लान तो होगा?
उत्‍तर: इन कटुओं को साफ करेंगे। मां भारती की धरती को पाप से हरेंगे.
प्रश्‍न: उनकी भी तो बेटि‍यां हैं?
उत्‍तर: उनकी बेटि‍यां नहीं, ऊ सब बच्‍चा पैदा करने की मशीन हैं.
प्रश्‍न: लेकि‍न आप भी तो सात बहन नौ भाई हैं?
उत्‍तर: तो का चाहते हो मादर***?? तुमसे हमारा कुनबा हजम नहीं होता!!
प्रश्‍न: नहीं, ऐसा बि‍लकुल नहीं!
उत्‍तर: नहीं, अइसा ही है बहि‍न के लौ**
प्रश्‍न: मैं आपकी गालि‍यों पर ध्‍यान नहीं देता!
उत्‍तर: इसपे तो ध्‍यान दे रहे हो ना?
प्रश्‍न: इसपे कि‍सपे?
उत्‍तर: ई देखो, ई मोटा मूसलचंद दि‍खाई दे रहा है?
प्रश्‍न: हां तो?
उत्‍तर: तो नि‍कलोगे या घुसेड़ें तुम्‍हारी मां की चू** में?
प्रश्‍न: आप गलत कह रहे हैं!
उत्‍तर: रे वि‍जयवा, पकड़ सारे का एकरी महतारी का चो***
प्रश्‍न: . .......