Saturday, April 27, 2013

आलोचना के बहाने



सबसे पहले- ये वही दुनि‍या है, जहां हम और आप साथ-साथ रहते हैं। यही हमारी नियति है। 
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नि‍यति को समझना एक टेढ़ी खीर है। यह किसी एक सिद्धांत पर नहीं चलती कि कैलकुलेशन कि‍या और भूत भवि‍ष्‍य बांच दि‍या। इसे समझना टेढ़ी खीर इसलि‍ए भी है कि कार्य कारण संबंधों का मशीनी मामलों में पता लगाना तो आसान होता है, लेकिन मानवीय मामलों में यह इतनी परतों के नीचे दबे होते हैं कि हर एक परत को पलटना और उसकी जांच करना काफी मुश्‍कि‍ल होता है। फि‍र भी, इसे हमें ही समझना होता है, चाहे जि‍तनी भी मुश्‍कि‍ल हो।

वैचारि‍क व्‍यक्‍ति पर अक्‍सर पथभ्रष्‍टता के आरोप लगते हैं। अगर वि‍चार पूंजीवाद के खि‍लाफ हों तो यह आरोप ठीक वैसे ही लगाए जाते हैं जैसे कि सांप्रदायि‍कता वि‍रोधी लोग सांप्रदायि‍क लोगों पर लगाते हैं। वो पूंजीवाद के खि‍लाफ उठने वाली आवाज और सांप्रदायि‍क मानसि‍कता को इतना मि‍क्‍सअप कर देते हैं कि लोगों को लगने लगता है कि अगर ईश्‍वरीय सत्‍ता दरकि‍नार कर दी जाए तो वामपंथ और सांप्रदायि‍क दक्षि‍णपंथ एक जैसे ही हैं, बल्‍कि एक ही हैं। यहां पर यह बताना उचि‍त होगा कि पूंजीवाद ने अपने वि‍रोधि‍यों के लि‍ए एक ऐसी फसल तैयार कर दी है जो यही करती है। मध्‍य वर्ग में लहलहाती यह फसल कभी कभी सुखद संकेत तो देती है, पर धरातल पर आते ही सारे संकेत न जाने कैसे गायब हो जाते हैं और उनकी जगह पूंजीवादी टि‍प्‍पणि‍यां ले लेती हैं। यह कैसे हो रहा है, इसे समझने की जरूरत है।

वैचारि‍क भटकाव हर जगह होता है। वैचारि‍क मतभेद, टूटन भी हर जगह होती है। यह बात तो समझना आसान है कि एक डॉक्‍टर को अपने मरीज की हत्‍या नहीं करनी चाहि‍ए, उसका इलाज ठीक से करना चाहि‍ए, या फि‍र एक इंजीनि‍यर को ऐसा ही पुल या इमारत बनानी चाहि‍ए जो सालों साल चले। पर यह समझना जरा कठि‍न है कि वि‍चारों में मतभेद या वि‍चारों का त्‍याग कहां से शुरू होता है। आखि‍रकार यह कोई तकनीक नहीं कि जि‍सके लि‍ए बनाई गई है, वही काम करे। पि‍छले कई दशकों से पूंजीवाद ने यही मानसि‍कता लोगों के दि‍माग में भरी है कि डॉक्‍टर है तो सही से ही इलाज करेगा, इंजीनि‍यर है तो मजबूत निर्माण करेगा और वामपंथी है तो क्रांति ही करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तो इसे पाप और भ्रष्‍टाचार माना जाता है।

क्‍या हम ऐसी दुनि‍या में रह रहे हैं या फि‍र मानते हैं कि ऐसी ही दुनि‍या है जहां सभी अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं या करेंगे। अगर कि‍सी को नाली साफ करने का काम मि‍ला है तो वह जाले नहीं साफ करेगा। यहां तक कि वह अपने घर के भी जाले नहीं साफ करेगा। क्‍या सचमुच ऐसी दुनि‍या संभव है जहां काम करने वाले कामगार की उस काम से भावनाएं जुड़ती टूटती न हों, जि‍से वह रोजाना कर रहा है। पर नहीं, ऐसी ही दुनि‍या की कल्‍पना सामंती पूंजीवाद पि‍छले कई दशकों से स्‍थापि‍त कर रहा है। चूंकि ऐसा होता नहीं इसलि‍ए स्‍वाभावि‍क रूप से लोग उन चीजों में ज्‍यादा रूचि लेते हैं, जो उस सामंती पूंजीवादी कल्‍पना से हटकर होती हैं।

वैसे इस सवाल का जवाब बताने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद ने ऐसा क्‍यों कि‍या। बल्‍कि यह जानने की जरूरत है कि इस सामंती पूंजीवादी कल्‍पना को स्‍थापि‍त करने में मदद कि‍सकी ली। सामंती पूंजीवाद ने ऐसी फासि‍स्‍ट दुनि‍या का ख्‍याल नई फसल में बोने के लि‍ए उसी पुरानी सामंती वि‍चारधारा का सहारा लि‍या जो मनु स्‍मृति से लेकर रामचरि‍तमानस में पाई जाती है। हिंदू धर्म की कई कि‍ताबों में यह वि‍चार मि‍लते हैं। इसके लि‍ए खासतौर पर ऐसे लोगों को तैयार कि‍या गया जि‍नका चेहरा प्रगति‍शील लगता हो, पर हों वो सामंती पूंजीवाद के पक्षधर। इन लोगों ने नई फसल को बोने से पहले उस खेत में ऐसा मट्ठा डाला कि अब ये फसल दि‍नों दि‍न खट्टी होती जा रही है। क्‍या यह चिंता की बात नहीं कि मशीनी दुनि‍या न होने पर यह फसल आगे उगलने लगती है पर मशीनी दुनि‍या कैसे इंसानों को साथ लेकर चलेगी, उनकी भावनाओं को कैसे पोसेगी, इसका कोई ठोस खाका उनके पास नहीं है। यह लोग हर बात पर चि‍ल्‍लाते तो हैं पर दुनि‍या बनाने के नाम पर चुप हो जाते हैं। यही चीज सामंती पूंजीवाद को चाहि‍ए थी, और पि‍छले कुछ वर्षों में सड़कों पर उमड़ी दि‍शाहीन भीड़ साफ बताती है कि ऐसा हो रहा है। वैसे कभी कभी यह भीड़ रामराज की भी बात करती है।

दंगों से सामंती पूंजीवाद का नुकसान होता है। उस इलाके में मजदूर नहीं मि‍लते और उस इलाके की उत्‍पादन इकाइयां बंद हो जाती हैं और मुनाफा कम होने लगता है। लेकि‍न ऐसा कि‍न्‍हीं जगहों पर होता है इसलि‍ए जि‍तनी गंभीरता से सामंती पूंजीवाद वामपंथ को अपना शत्रु मानता है, दंगाइयों को नहीं। दंगों से असमानता फैलती है जो कहीं न कहीं पूंजीवाद को ही फायदा पहुंचाती है। पर वामपंथ वर्ग की समानता की बात करता है और हक की मजदूरी की बात करता है, इसलि‍ए उससे मुनाफा कहीं ज्‍यादा कम होता है।

यह समझना मुश्‍कि‍ल नहीं है कि सामंती पूंजीवाद वर्ग संघर्ष को दबाने और कुचलने के लि‍ए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता होगा। उदाहरण के लि‍ए इनका सबसे आसान टारगेट स्‍त्री पुरुष संबंधों को ही लेते हैं। इन संबंधों में अभी तक सबसे ज्‍यादा फायदा सामंतवाद ने उठाया है। स्‍त्री पुरुष संबंधों की सामंती सोच स्‍त्री पारगमन को पाप मानती है, पुरुषों को भी एक हद तक ही छोड़ती है। इसे तकनीकी हि‍साब से समझें तो जि‍स नट में बोल्‍ट फि‍ट कर दि‍या गया, अब उसी नट में फि‍ट रहेगा। न तो वह खुलेगा और न ही दूसरे नट में फि‍ट होगा, भले ही उसमें कि‍तनी भी जंग लग जाए, वो सड़ जाए। शायद उन्‍हें नहीं पता कि दुनि‍या में एक ही साइज के अनगि‍नत नट बोल्‍ट बनते हैं। बहरहाल, यदि स्‍त्री को परपुरुष से प्रेम होता है या वह अपनी इच्‍छा से परपुरुष से संबंध बनाती है तो सामंती पूंजीवाद की यह फसल तपाक से उसे पाप कहने लगती है। इस मामले में कई प्रगति‍शील साथी भी उनका साथ देते आसानी से देखे जा सकते हैं। लेकि‍न मेरा सवाल है क्‍या हम सचमुच ऐसी दुनि‍या में रह रहे हैं जो नट बोल्‍ट की तरह है। क्‍या भारत में रोजाना होने वाले तलाक के सैकड़ों हजारों मुकदमों में समझौतानामा लग चुका है। जाहि‍र है कि नहीं। स्‍त्री पुरुष संबंध, कार्य संतुष्‍टि, डॉक्‍टर- अच्‍छा इलाज, इंजीनि‍यर-अच्‍छा निर्माण, वामपंथी-क्रांति... क्‍या यह सारी चीजें मशीनी तरीके से समझी जा सकती हैं। जाहि‍र है कि मनुष्‍य मशीन नहीं है और मशीन वि‍चारशील नहीं है। वि‍चार तो बदलते रहते हैं, यही नि‍यति है।

Saturday, April 13, 2013

पुराने झोले से नि‍कलीं बासी लाइनें




ताकि सनद रहे और वक्‍त जरूरत काम आवे..
1
जहर भरे खुद को ले जाऊं मैं कहां,
हर तरफ तो तू ही तू दिखाई देता है।

2
मुझे यकीन है तेरे फिर से आने का,
तेरे बिना मेरी तन्हाई अकेली है।

3
तूने फिर किया है साथ देने का वादा,
मैँ फिर से तेरा यकीन करता हूं।

4
कौन कहता है कि गुजरा वक्त नही आता,
यारों आज फिर मैं अकेला हूं।

5
मेरा होना मुश्किल की दो बूंदे ही तो हैं,
फिर मेरे जिबह की राहें इतनी मुश्किल क्यों हैं।

6
ख्यालों में बोलो कि कोई सुन न ले,
ख्वाहिशें तुम्हारी बड़ी बेहिसाब हैँ।

7
रम मिटाए गम,
बेहिसाब पियो रम।

8
प्रेम गले का खूंटा है
जिसने भी दिल लूटा है
सबसे बड़ा वो झूठा है ।

9
मुस्लमां न हुए तो कैसे आएगा,
हुनर तेरी आंखों मे झांकने का।
मुस्लमां हो भी गए तो क्या हुआ,
तेरी आंखे तो कुछ और ही चाहती हैं।

10
मेरे न होने पे ताज्जुब न करना दोस्तों,
इस गली से पहले भी कई गुजरे हैं।

11
मैनें देखा है तुम्हें उमस भरी दोपहरों में,
बासबब बातों पे तुम मन उतारा करते थे,
यूं हंस के गले मिलते थे तुम हमसे,
और तंगहाली में हम हंसी संवारा करते थे।

12
साल दर साल जो बनते रहे अनजान हमसे,
टूटे रास्ते तो मुड़कर पीछे देखते हैं..

13
मतलबी लोगों ने फिर निशाना साधा है,
क्या पता, इस बार क्‍या लूटने का इरादा है।

14
सुना है कि तूने खामोश रहना सीखा है,
कहीं ये तेरे प्यार सा इक धोखा है?

15
जो अपनी दुश्वारियां रखीं उसके सामने,
वो लगा मेरी रूबाइयों की दाद देने।

16
सारी रात बह गई, अकेला दिन थम गया, तुमने तो आने को कहा था, पीठ पे टिक के लंबी सांस भी तो ली थी. . इसे उधार मानूं या दान. ? सूद चुकाऊं या असल या फिर दोनोँ . . .? कितना तो अच्छा होता कि सांसों को मेरी पीठ पर देने से पहले ही बातें साफ हो जातीं। अब उन सांसों को वापस कैसे करूं . . ?

17
उनके चंद रोज के फरेब पे हुआ आशिक मैं,
वो थे कि सालों सूद ही वसूलते रहे।

18
शराबियों में होते हैं कुछ खास शराबी,
वो पीने से पहले ही महक जाते हैं।
प्याले मे मय न हो पानी ही सही ,
गिलास भरा देखकर ही चहक जाते हैँ।

19
धूप का इक टुकड़ा अब मेरे घर भी आता है,
भरी दुपहरी रहता है, शाम तलक खो जाता है।